Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit व्याकरण न्याय परिचय Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Sanskrit Vyakaran न्याय परिचय
संस्कृत में ‘न्याय’ शब्द का उपयोग कई अर्थों में होता है। संस्कृत व्याकरणशास्त्र की व्युत्पत्ति प्रक्रिया के अनुसार उसका अर्थ किया जाय तो ‘नीयते प्राप्यते अनेन सः न्यायः।’ अर्थात् जिसके द्वारा विशेष वस्तु या स्थिति प्राप्त की जाती है, वह न्याय है। संस्कृत शब्दकोश शास्त्र के अनुसार सोचें तो यह न्याय शब्द अलग-अलग प्रसंगों में रीति – पद्धति, धारा, औचित्य, फैसला वगैरह अर्थ में उपयोग किया जाता है। संस्कृत साहित्य में न्याय नामक एक स्वतंत्र शास्त्र भी है। (इस शास्त्र को तर्कशास्त्र या आन्वीक्षिकी विद्या भी कहते हैं।) यह शास्त्र ‘प्रमाणेः अर्थपरीक्षणं न्यायः।’ अर्थात् प्रत्यक्ष वगैरह प्रमाणों द्वारा अर्थ की परीक्षा करने की प्रक्रिया को कहते हैं। इस तरह, न्याय शब्द कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है।
यहाँ न्याय शब्द का उपयोग जिस अर्थ में किया जा रहा है, वह एक विशेष अर्थ में है। यह अर्थ कुछ इस तरह है। अपनी बात को संक्षेप में फिर भी खूब सटीक ढंग से प्रस्तुत करने के आशय से लोक या शास्त्र में प्रसिद्ध ऐसे जो दृष्टांत प्रयोग किए जाते हैं, वे (दृष्टांत) ‘न्याय’ हैं – ‘लोकशास्त्रप्रसिद्धदृष्टान्तविशेषः न्यायः।’
जैसे कि, एक पात्र में दूध है और दूसरे पात्र में पानी है। कोई एक व्यक्ति तीसरे पात्र में इन दोनों को मिला देता है। अब, इस तीसरे पात्र में एकत्रित दूध और पानी को पुनः अलग करना कठिन कार्य है। इस कठिन कार्य को हंस नामक पक्षी कर सकता है, उसे प्रकृति ने ऐसी शक्ति दी है। अतः दूध और पानी को अलग करने के लिए लोक (संसार) में हंस प्रसिद्ध है। इसी आधार पर लोक में ‘नीरक्षीरविवेक’ ऐसा एक न्याय प्रसिद्ध हुआ है।
जब लोक व्यवहार में किसी अच्छे-बुरे के भेद को परखने की बात हो या एक-दूसरे में मिश्रित सत्य-असत्य जानकारी को अलग करने की बात हो, तब वहाँ दृष्टांत देने के लिए इस नीरक्षीरविवेक न्याय का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणस्वरूप, किसी व्यापारी और ग्राहक के बीच विवाद हुआ और उसकी शिकायत की गई। दोनों अपनी बात को सही बताते हुए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय करना कठिन है। इसके निर्णय के लिए दोनों न्यायालय जाते हैं। वहाँ विद्वान न्यायाधीश के समक्ष दोनों के बीच की न्यायिक प्रक्रिया चलती है। इसके पश्चात् प्रमाण और दोनों पक्षों के तर्कों के आधार पर न्यायाधीश अपना निर्णय सुनाता है कि ग्राहक झूठा है और व्यापारी की बात सही है।
न्यायाधीश के इस निर्णय के विषय में संक्षेप में फिर भी खूब सटीक रूप से अपना अभिप्राय देने के लिए नीरक्षीरविवेक न्याय प्रयोग किया जा सकता है। जैसे कि “न्यायाधीश ने नीरक्षीरविवेक न्याय के तहत कार्य किया। परिणामस्वरूप सही और गलत का निर्णय हो गया। ग्राहक दोषी और व्यापारी निर्दोष सिद्ध हुआ और मुक्त हो गया।” इस तरह यहाँ इस न्याय का उपयोग करके न्यायाधीश की बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यवाही को संक्षेप में सटीक तथा अच्छी तरह से व्यक्त किया जा सकता है।
भाषिक व्यवहार में इस तरह न्याय वाक्यों का प्रयोग करने से दो लाभ हो सकता है। एक तो आपके संभाषण में सौन्दर्य आता है, दूसरे इन न्याय वाक्यों में निहित तथ्य को समझ करके मनुष्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रेरणा और मार्गदर्शन भी प्राप्त कर सकता है। यह प्रेरणा और मार्गदर्शन मनुष्य का उत्कर्ष सिद्ध कर सकता है। यहाँ उपर्युक्त न्यायवाक्य के प्रयोग का संदर्भ मन में रखकर थोड़ा विचार करेंगे।
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में नित्य नए-नए व्यक्तियों के साथ काम करने का प्रसंग आता है। ये सभी व्यक्ति एकसमान नहीं होते हैं। दूध और पानी की तरह ही कभी-कभी इन व्यक्तियों में भी सज्जन-दुर्जन का मिश्रण हो सकता है। इस स्थिति में नीरक्षीरविवेक न्याय हमारा जिस तरह मार्गदर्शन करता है, उसी तरह सबसे पहले सज्जन और दुर्जन का भेद परखना रहता है। एक बार इस प्रकार का भेद पता चलने के पश्चात् सज्जन के साथ सहयोग तथा दुर्जन के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए, ऐसा उपयोगी मार्गदर्शन यहाँ से हमें प्राप्त होता है।
संस्कृत में ऐसे कई न्याय प्रचलित हैं। उनमें से यहाँ मनपसंद के मात्र दस न्याय का परिचय प्राप्त करेंगे :
(1) सिंहावलोकनन्याय: – ‘सिंह’ शब्द एक प्राणी का वाचक है। ‘अवलोकन’ अर्थात् देखा। जंगल का राजा माना जानेवाला थोड़ी-थोड़ी देर पर पीछे मुड़कर देखता रहता है। सिंह की इस विशेषता को ध्यान में रखते हुए इस न्याय की परिकल्पना की गई है।
इस पर से यह बोध प्राप्त होता है कि मनुष्य को भले ही आगे की ओर चलना होता है, परन्तु कभी-कभी पीछे मुड़कर भी देखना चाहिए। एक विद्यार्थी के रूप में भले ही आपको अगली कक्षा में जाना है, और इसलिए आपकी दृष्टि अगली कक्षा पर हो, यह स्वाभाविक है। फिर भी आगे बढ़ने की इस प्रक्रिया में कभी-कभी पीछे मुड़कर देख लेना आवश्यक है। यदि आप ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते हों तो कभी-कभी दसवीं कक्षा में सीखी बातों की तरफ नज़र डाल देनी चाहिए।
(2) पङ्कप्रक्षालनन्याय: – ‘पङ्क’ अर्थात् कीचड़ और ‘प्रक्षालन’ अर्थात् धोने की क्रिया। कीचड़ को धोने की क्रिया को ‘पङ्कप्रक्षालन’ कहते हैं। कीचड़ में पैर पड़ जाय और पैर गंदा हो जाय, तो कई विशेष परेशानी नहीं होती है क्योंकि कीचड़ से गंदे पैर को स्वच्छ पानी से धो सकते हैं। इसतरह कीचड़ को धोने की व्यवस्था उपलब्ध है, फिर भी कीचड़ से पैर गंदे ही न हों, ऐसी सावधानी रखी जाय तो कीचड़ को धोने की प्रक्रिया नहीं करनी पड़ेगी। इस तथ्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत न्याय की परिकल्पना की गई है।
यह न्याय कदम-कदम पर सीन देनेवाला है। वर्षाऋतु में इधर-उधर भरे पानी में मच्छर पैदा होते हैं और उनके बढ़ने से बीमारियाँ आती हैं। सामान्य रूप से लोग ऐसा सोचते हैं कि मच्छरों से बचने के लिए तरह-तरह के साधन उपलब्ध हैं और बीमार होंगे तो अस्पताल में चिकित्सा उपलब्ध है। परिणामस्वरूप मच्छरों से होनेवाली परेशानी का निवारण कर लेंगे। इसमें चिंता करने की क्या आवश्यकता है। परन्तु ऐसे विचार के सामने यह न्याय उपदेश देकर समझाता है कि वर्षाऋतु में इधर-उधर पानी न भरे, मच्छरों की उत्पत्ति न हो और मच्छरों के कारण बीमारी न फैले, उसका पहले से ही ध्यान रखना चाहिए। यदि इस तरह किया जाय तो आनेवाली परेशानी के निवारण के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, रूपये का अपव्यय नहीं होगा तथा बीमारी के कारण उपद्रव नहीं बढ़े, उसके लिए हमें पहले से ही सावधान रहना चाहिए।
यदि किसी व्यक्ति के पास परेशानी के निराकरण का उपाय उपलब्ध है, ऐसा मानकर पहले तो परेशानी पैदा करता है, उसके बाद निराकरण के लिए समय और शक्ति खर्च करता है तथा कष्ट उठाता है, ऐसे मनुष्य के व्यवहार को सचोट रूप से व्यक्त करने के लिए सामान्य व्यवहार में इस न्यायवचन का प्रयोग किया जा सकता है।
(3) वृद्धकुमारीवाक्यन्याय: – ‘वृद्धकुमारी’ वृद्ध ऐसी कुमारी, ‘वाक्य’ अर्थात् वचन। वृद्धावस्था को प्राप्त कोई एक कुमारी के वचन पर से यह न्याय प्रचलित हुआ है। एक कथा है – वृद्धावस्था में पहुँची एक कुमारिका को मात्र एक ही वरदान माँगने के लिए कहा जाता है। वह सोचकर वरदान माँगती है कि – पुत्रा में बहुक्षीरघृतमोदनं काञ्चनपात्रे मुज्जीरन्। अर्थात् मेरे पुत्र सोने के बर्तन में घी और दूध से युक्त भात खाएँ। इस तरह, एक ही वचन में वृद्ध कुमारी ने अपने लिए पति और पुत्र को तो माँग ही लिया, उसके साथ घी, दूध, अन्न वगैरह खाद्य पदार्थ तथा सुवर्णादि जैसे सभी धन माँग लिए। वृद्धकुमारी के वचन पर से इस न्याय की परिकल्पना की गई है।
मानवजीवन के भिन्न-भिन्न अनेक संदर्भो में इस न्याय से प्रेरणा और उपदेश मिल सकता है। यहाँ भोजन के संदर्भ में इस न्याय से मिलता-जुलता उपदेश सोचेंगे। हम जानते हैं कि शरीर के लिए अनेक प्रकार के विटामिन, खनिज, प्रोटीन वगैरह तत्त्व अपेक्षित हैं। वे सभी उचित प्रमाण में प्राप्त हों, इसके लिए भिन्न-भिन्न साग-सब्जी और अनाज खाने होते हैं। परन्तु यदि कभी एक ही वस्तु खा करके सबकी प्राप्ति कर लेनी हो, तो मनुष्य को गाय का दूध पीने जैसा है। वृद्धकुमारी के इस वचन की तरह ही एकमात्र गाय के दूध के भोजन से सभी आवश्यक तत्त्वों की प्राप्ति हो जाती है।
इस तरह, जब कोई व्यक्ति एक ही उपक्रम से कई की प्राप्ति करता हो, तब उस व्यक्ति की उपलब्धि को महत्त्व देने के लिए इस न्यायवाक्य का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) शुण्डासूचिन्याय: – ‘शुण्डा’ अर्थात् सैंड और ‘सूचि’ अर्थात् सूई। सूंड स्थूल है और सूई सूक्ष्म है। धूल में खो गई सूक्ष्म सूई को खोजने के लिए कोई स्थूल ऐसी हाथी के सूंड का उपयोग करे, तो मनुष्य का यह व्यवहार हँसी का पात्र बनता है। इसी पर से यह न्याय प्रचलित हुआ है।
इस न्याय से हमें जो प्रेरणा मिलती है, उसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। यहाँ वैद्यकीय क्षेत्र की एक बात करेंगे। मानो कि कोई एक रोगी है। उसे सामान्य रोग हुआ है। उस रोग की दवा भी आसानी से उपलब्ध है और सामान्य दवा से रोग मिट सकता है। इसके बाद भी कोई वैद्य बड़े ऑपरेशन (शल्यक्रिया) की बात करे, तो वह वैद्यकीय जानकारों के बीच हँसी का पात्र बन जाता है।
इस तरह जब कोई किसी छोटे से काम को करने के लिए बड़े साधन का उपयोग करे और फिर भी कार्यसिद्ध न हो, तब उस व्यक्ति की मूर्खता को सचोट शब्दों में प्रस्तुत करने के लिए इस न्यायवचन का अपने वक्तव्य में प्रयोग किया जा सकता है।
(5) सूचिकटाहन्याय: – ‘सूचि’ अर्थात् सूई और ‘कटाह’ अर्थात् कढ़ाही। किसी कारीगर को सूई और कढ़ाही दोनों बनाने का कार्य मिला हो, तो स्वाभाविक है कि वह सरल और छोटी होने से कारीगर सूई को पहले बना देगा और उसके बाद कढ़ाही बनाएगा। अनेक कारीगरों के इस प्रकार के अनुभवों को ध्यान में रख करके यह न्याय प्रचलित हुआ है।
परीक्षा दरम्यान परीक्षार्थी के हाथ में जब प्रश्नपत्र आ जाता है, तब सर्वप्रथम प्रश्नपत्र पढ़ना होता है। उसके बाद उत्तरपुस्तिका में उसके उत्तर लिखने होते हैं। इस समय स्वभाविक ढंग से परीक्षार्थी उत्तरपुस्तिका में सबसे पहले सरल-सरल और छोटे-छोटे प्रश्नों के उत्तर लिन देता है और कठिन एवं बड़े प्रश्नों के उत्तर दूसरे क्रम में लिखता है। परीक्षार्थी को इस तरह का व्यवहार करने के लिए प्रेरणा यह न्याय देता है।
जब कोई व्यक्ति सरल कार्य को पहले कर लेता हो और कठिन कार्य को दूसरे क्रम पर करने का आयोजन करता हो, तब उस व्यक्ति के ऐसे व्यवहार को कहने के लिए इस न्याय का प्रयोग किया जा सकता है।
(6) जलबिन्दुनिपातन्याय: – ‘जल’ अर्थात् पानी, ‘बिन्दु’ अर्थात् बूंद, ‘निपात’ अर्थात् गिरना। घड़े जैसे पात्र में भरे पानी के भंडार में से (घड़े में हुए छिद्र में से) छोटे-छोटे बूंदों के रूप में पानी के बह जाने की क्रिया के कारण खाली हुए घड़े को देखकर किसी ने इस न्याय की कल्पना की होगी।
माता-पिता की प्रचुर संपत्ति को देखकर कोई लड़का ऐसा समझता है कि ‘मैं चाहे जितना खर्च करूँ मेरे पिता की संपत्ति कहाँ कम होनेवाली है।’ ऐसा सोचकर वह पिता की संपत्ति का उपयोग खूले हाथ करने लगे और उसमें कोई वृद्धि न करे, तो कभी न कभी वह प्रचुर संपत्ति भी समाप्त हो जाती है। इसी तरह, प्रकृतिदत्त खनिज भंडार को देखकर मनुष्य किसी भी प्रकार का संयम किए बिना उसका उपयोग करता रहे तो वह खनिज संपत्ति भी कम हो जानेवाली है। प्रस्तुत न्याय इस वास्तविकता का दर्शन करवाकर उपदेश देता है कि जिस तरह भरे घड़े में से पानी बूंद-बूंद करके बह जाता है, तो एक समय वह खाली हो जाता है। अतः खर्च हो रहे पदार्थ के भंडार में वृद्धि करते रहना है अथवा संग्रह का निपात न हो, (पानी गिरे नहीं) ऐसी व्यवस्था करके रखनी है।।
किसी वस्तु के बड़े भंडार को देखकर कोई खुले हाथ से उपयोग करने लग जाय तो उस व्यक्ति के इस व्यवहार को अभिव्यक्त करने के लिए अपने वक्तव्य में इस न्याय का उपयोग किया जा सकता है।
(7) देहलीदीपकन्यायः – ‘देहली’ अर्थात दहलीज, ‘दीपक’ अर्थात दीया। दीपक का कार्य प्रकाश फैलाना है। उसे घर के किसी भी कमरे में रखा जाय तो वह मात्र उसी कमरे में ही प्रकाश फैला सकता है, परन्तु यदि उसे घर की दहलीज पर रखा जाए तो वह देहली के दोनों ओर अर्थात् घर के अंदर और बाहर प्रकाश फैला सकता है। इस तरह, एक जगह रहकर दो जगह कार्य करने के साधनों के संदर्भ में यह ‘देहलीदीपक’ न्याय प्रचलित हुआ है।
यह न्याय हमें पदार्थों के उपयोग की रीति सिखाता है। मनुष्य चाहे तो किसी पदार्थ से सीमित लाभ ले सकता है और … मनुष्य चाहे तो असीमित लाभ भी ले सकता है। इसके लिए कभी पदार्थ के प्रयोग का स्थान और कभी पदार्थ के प्रयोग की रीति महत्त्वपूर्ण बन जाती है। जैसे कि, कोई विद्यार्थी विद्यालय में आने के लिए साइकिल का उपयोग करता है। भोजन के बाद कुछ समय बीत जाने पर या बाद में भोजन किए बिना खाली पेट रहकर विद्यार्थी द्वारा होनेवाले साइकिल के उपयोग से एक तरफ समय की बचत होती है, तो दूसरी तरफ शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है। इसतरह, विद्यार्थी साइकिल के उपयोग से एक साथ दो लाभ ले सकता है।
विद्यार्थी द्वारा लिए जा रहे साइकिल के इस द्विविध लाभ को कहने के संदर्भ में इस न्याय का प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह जब भी किसी एक व्यक्ति या वस्तु द्वारा एक साथ दो प्रयोजन सिद्ध किए जा रहे हों, तब उस प्रसंग को संक्षेप में सचोट रूप से व्यक्त करने के लिए इस न्याय वाक्य का प्रयोग किया जा सकता है।
(8) मात्स्यन्याय: – ‘मत्स्य’ अर्थात् मछली। ‘मत्स्य’ नाम के ऊपर से ‘मात्स्य’ शब्द बना है। ‘मत्स्य’ से संबंधित वस्तु या बात को ‘मात्स्य’ कहते हैं। नदी या समुद्र में रहनेवाली बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को खाकर अपना अस्तित्व बनाए रखती है, जीवित रहती है। मछली के इस व्यवहार के आधार पर मात्स्यन्याय प्रचलित हुआ है।
इस न्याय पर से मनुष्य को यह बात समझनी है कि जिस तरह समुद्र में मछलियों का सहअस्तित्व है उसी तरह मानवसमाज में मानव-मानव का सह अस्तित्व है। मछलियों के सहअस्तित्व में जिस तरह छोटे को बड़े से सतत भय रहता है और अपने आपको बचाना रहता है, उसी तरह मानव समाज में भी छोटे व्यक्ति को बड़े व्यक्ति से सतत भय बना रहता है और स्वयं को बचाए रखना होता है। (जब कि मानवसमाज में ऐसा हमेशा नहीं होता है, उसके लिए राजतंत्र या प्रजातंत्र की स्थापना हुई है। परिणामस्वरूप मानव समाज में शक्तिसंपन्न लोगों के बीच भी शक्तिहीन लोगों का अस्तित्व बना रहता है।)
बातचीत दरम्यान कोई ऐसा संदर्भ बने कि कोई बलवान व्यक्ति निर्बल को पीड़ा पहुँचा रहा हो या उसकी निर्बलता का लाभ ले करके अपना साम्राज्य या अस्तित्व बनाए रखने की चेष्ठा कर रहा हो, तो इस संदर्भ में उस व्यक्ति के अमानवीय व्यवहार को सटीक ढंग से व्यक्त करने के लिए यह ‘मात्स्यन्याय’ उपयोग किया जा सकता है।
(9) पिष्टपेषणन्याय: – ‘पिष्ट’ अर्थात् पिसी हुई कोई वस्तु और ‘पेषण’ अर्थात् पीसना। पिष्ट अर्थात् पिसी हुई वस्तु (आटा) को पेषण अर्थात् (पुनः की जानेवाली) पीसने की क्रिया को पिष्टपेषण कहते हैं। सामान्य रूप से कोई वस्तु पिष्ट – पिसी हुई हो, तो उसे पीसने की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी कोई उस पिसी हुई वस्तु को पीसने का अनावश्यक प्रयत्न करे तो वह मात्र समय और शक्ति को बर्बाद करता है। इस वास्तविकता का उपदेश करने के लिए यह न्याय प्रचलित हुआ है।
दो प्रकार के कार्य की कल्पना की जा सकती है। एक तो हो गया कार्य और दूसरा न हुआ कार्य। यह न्याय सीख देता है कि मनुष्य को इन दो प्रकार के कार्यों में से हो गए कार्य को फिर से करके अपने समय और शक्ति की बर्बादी नहीं करनी चाहिए, बल्कि न हुए कार्य को करने का उपक्रम करके अपने समय और शक्ति का सदुपयोग करना चाहिए। जैसे, घर या विद्यालय को किसी ने पहले से ही स्वच्छ कर दिया हो, तो उसे पुनः साफ करने के लिए समय और शक्ति खर्च नहीं करनी चाहिए। उसके बदले जो स्थल अस्वच्छ हो, उसे स्वच्छ करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके बाद भी कई बार ऐसा होता है कि प्रसिद्धि या दिखावे के लिए स्वच्छ स्थान को फिर से स्वच्छ करने का उपक्रम किया जाता है। यह तो समय और शक्ति की बर्बादी है। – इस प्रकार की समय और शक्ति की बर्बादी को संभाषण दरम्यान सटीक रूप से व्यक्त करने के लिए इस न्यायवाक्य का उपयोग किया जा सकता है।
(10) कूपमण्डूकन्याय: – ‘कूप’ अर्थात् कुआँ, ‘मण्डूक’ अर्थात् मेढ़क। कुआँ मेढ़क का जन्मस्थान और निवासस्थान है। कुएँ में जन्म लेकर कुएँ में रहनेवाला मेढ़क उसी में इधर से उधर घूमता रहता है। लेकिन उसे कुएँ के अलावा अन्यत्र कहीं जाने का अवसर नहीं मिलता है। अपने निवासस्थान के अतिरिक्त उसने और कोई भी जगह नहीं देखी, और न ही दिखाई देती है। परिणामस्वरूप वह कुएँ को ही संपूर्ण जगत समझता है। कुएँ के बाहर स्थित अतिविशाल जगत से उसका नाममात्र भी परिचय नहीं हो पाता है। कुएँ में रहनेवाले इस मेंढ़क की स्थिति पर से ही यह न्याय प्रचलित हुआ है।
मानवमात्र किसी एक छोटे स्थल में जन्म लेता है और अधिकांशत: वह किसी एक छोटे स्थान में ही निवास करता है। ज्यादातर मनुष्य का जीवन अपने जन्म और निवास स्थल में ही व्यतीत होता है। यह जरूरी नहीं है कि सभी लोगों को देश-विदेश को प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर ही मिले, परंतु यदि मनुष्य चाहे तो शिक्षा प्राप्त करके इस शिक्षा के माध्यम से जगतभर का परिचय प्राप्त कर सकता है। फिर भी मनुष्य को जगत की विशालता का और इस विशाल जगत के सामने अपनी स्थिति का एहसास होता है। यह एहसास मनुष्य के मन को और हृदय को विशाल बनाता है। मन परोपकारी बन जाता है। इस तरह विशाल जगत का परिचय मनुष्य का कई तरह से उत्कर्ष करता है। परन्तु जो व्यक्ति शिक्षा न प्राप्त करके या यात्रा न करके मात्र अपने निवासस्थान रूपी छोटे से हिस्से में रहकर जीवन जीता है, उसे विशाल जगत का कोई ख्याल ही नहीं आता है। उसके लिए तो अपना गाँव या शहर ही समग्र जगत बन जाता है। ऐसे व्यक्ति की विचारधारा भी सीमित ही होती है। यह सीमित विचारधारा मनुष्य के मन और हृदय को भी संकुचित कर देती है।
जिसने मात्र अपना गाँव ही देखा हो और अपने गाँव को ही जगत मान लिया हो, उस व्यक्ति का व्यवहार और विचार दोनों संकुचित बन जाते हैं। अपने अत्यंत सीमित ज्ञान को संपूर्ण माननेवाले मनुष्य को ऐसे संकुचित व्यवहार को दर्शाने के लिए इस न्याय का उपयोग किया जा सकता है।
The word Nyaya in Sanskrit is used in many ways as it has many meanings in Sanskrit. Accoridng to the etymology in Sanskrit grammar the wordNyaya means नीयते प्राप्यते अनेन सः न्यायः। It means any position or state acquired is Nyaya. According to Sanskrit dictionary the word Nyaya in different situations is used in the sense of custom, method, tradition, appropriateness, judgement. There is a separate branch of learning (Shastra) in Sanskrit literature. (This branch of knowledge is called logic or science by investigation. निरक्षीरविवेकः According to this branch of learning प्रामणोः अर्थपरीक्षणं न्याय: It means a process of examining intention/motive through evidences like testimony of eyewitness. Thus, the use of the word ‘Nyaya’ has many connotations.
Here, the word Nyaya is used has a special meaning. That meaning is something like this : In order to present what one wants to say very clearly and in brief one uses illustrations that are very popular among people and are also there in Shastras. The illustration used is Nyaya.
For example, in one vessel there is milk and in the other there is water someone mixes both in third vessel. Now, it is difficult to separate milk and vessel. This difficult task a bird named shown can do. Nature has given it such an ability. So, a person whi can separate milk and water is known as swan-goose. On the basis of this, Nyaya known as निरक्षीरविवेकः has become famous.
Now, when a point arises to find out truth and untruth or to separate true and untrue information, to give an illustration this निरक्षीरविवेकः Nyaya is used. For example, there is a quarrel between a merchant and a customer a complain is lodged for this quarrel. Both say they are right. It is difficult to decide who is right and who is wrong. Both approach a court. Here the case is before the learned judge. The judge, after checking examining the evidences and listening to the arguments of both the parties, announce his judgement. That the merchant was right and the customer was wrong.
We can use निरक्षीरविवेकः for giving about the judgement given my the judge in a succinct and brief manner e.g. “The judge did his job in a निरक्षीरविवेकः manner. As a result, right and wrong could be decided. The customer who was wrong proved to be wrong and the merchant who was right proved to be right and became free.” Thus, here using निरक्षीरविवेकः one can describe the intelligent procedure followed/adopted by the judge very succinctly and quite in brief.
There can be two advantages of the use of this निरक्षीरविवेकः in oral communication. One advantage is that the language of our lecture becomes flowery say pleasing, beautiful. Secondly, by understanding the implied/inner meaning,one can get some guidance and inspiration in different fields. Such guidance and inspiration can help a person grow. Here, we will think of the use of निरक्षीरविवेकः done above.
Everyone in life has to work with different persons, may be unfamiliar, everyday. All those persons are not alike. There can be a mixture of goodness and wickedness like that mixture of milk and water. In such a situation निरक्षीरविवेकः guides us first to differentiate between a good man and a wicked man. Once we recognise this difference we must behave with the good co-operatively and indifferently with the wicked the bad one. In short, we must not behave uniformly with everyone is the moral we get.
In Sanskrit there are many such Nyayas prevalent. Out of those here we will have an introduction of if you are studying in class XI, you must casually think of what you learnt in class X.
(1) सिंहावलोकनन्याय: I The word सिंहmeans lion अवलोकन means ‘to observe’. the lion who is considered as the king of the forest has one peculiarity. It is that when he moves forward, he looks back with a little distance. Keeping in mind this pecularity of the lion, this Nyaya has come to an existence. From this, we can get the moral that though we have to move ahead in life, but sometimes, we need to look back. As a student though you are promoted in the next standard, so your concentration must be there, still in the process of going ahead, sometimes, you have to turn back, that’s what is the message.
In Sanskrit there are many such Nyayas prevalent. Out of those here we will have an introduction. If you are studying in class XI, you must casually think of what you learnt in class.
(2) पङ्कप्रक्षालनन्यायः। पङ्क means mud and प्रक्षालन means to wash. An act of washing mud is called पङ्कप्रक्षालन If our foot slips in mud, it is no problem because a foot that becomes dirty with mud can be washed with clean water. Thus, there is facility of washing out mud. But if we remain vigilent and our foot does not become dirty with mud, it would not be necessary to use water. keeping this truth in view this kind of Nyaya is thought of.
This kind of Nyaya sermonises, advice at every step. Mosquitoes breed in Puddles of water in rainy season and large number of mosquitoes cause sickness. People generally think that to avoid mosquitoes many kinds of remedies are available and if we fall sick treatment in hospital is available. Consequently, people feel that they will be able to prevent difficulties caused by mosquitoes, we need not worry about it. But this Nyaya advises us against that thinking. It advises us to remain quite vigilent from the beginning and see that there are no puddles in monsoon, mosquitoes don’t breed and sickness is not experienced. If this is done, we will not need to take steps to avoid difficulties, we will not have to incur unnecessary expenses and we will not have to undergo any pains resulting due to sickness. Thus, we must remain very careful to see that mosquito-terror does not increase in rainy season.
A person, creating difficulties / thinking that remedies are available and then to avoid those difficulties spends his time, energy and money. This can be described very succinctly is thought of using this Nyaya terminology i.e. पङ्कप्रक्षालनन्यायः
(3) वृद्धकुमारीवाक्यन्यायः।वृद्धकुमारी an old virgin, वाक्य means utterance. This Nyaya has become on the basis of the utterance of some virgin who has become old. There is a story – A virgin who has grown old is asked to ask only one boon. After good thinking she asks – my sons eat rice with ghee and milk in golden utensils. Thus the old virgin asked for a husband and sons, along with that she asked for ghee, milk other eatables and gold which means riches. This Nyaya is conceived on the basis of the old virgins utterance.
This Nyaya can give much inspiration and advice in various contexts of human life. Here we think about the advice in the context of food. We know that many kinds of vitamins, minerals proteins etc. are desired for good health. To acquire all those as much needed we have to eat different vegetables and grains. But at time comes when a person has to acquire all these by eating only one eatable, he must drink cow-milk. According to what that old virgin said we get all the necessary elements from cow-milk.
When time somebody acquires many things through only one undertaking the achievement of the man can be expressed by using this Nyaya sentence.
(4) शुण्डासूचिन्याय: शुण्डा means trunk (of an elephant) and सूचि-needle. Trunk is large, thick and needle is small. If somebody uses thick trunk of an elephant to find the needle lost, that person’s behaviour becomes a laughing stock, a matter of derision. This Nyaya must have originated from this.
This Nyaya gives us much inspiration and its scope i.e. the scope of inspiration that we get from it is also very wide. Here we will talk about a medical field. Suppose there is a diseases. He is suffering from a very ordinary disease, medicine for that disease is also easily available and that medicine can cure the patient easily. Still however, some physician foolishly talks about surgery, he becomes a subject of joke, derision among other physicians.
Thus, to express orally in plain words, the foolishness of someone to use a big instrument for a trifling without any success words of this Nyaya are used.
(5) सूचिकटाहन्यायः। सूचि means needle and कटाह means pan. Suppose some skilled labourer is asked to make a needle and a pan, he very naturally finish making a needle first, it is easy and will decide to make pan later. This Nyaya came in use keeping in view this sort of experience.
An examinee receiving the question paper starts reading the question paper, then he is expected to write answers.
(6) जलबिन्दुनिपातन्यायः। जल water, बिन्दु means ‘drops’. निपात means to fall. Somebody may have been forced to think of this Nyaya seeing a pot like vessel filled with water empty because of the flowing away of water in the form of drops through a hole in the pot.
Seeing abundent wealth of parents, if their child’s thinking that even if he/she would spend any amount his /her parent’s riches will not get exhausted, starts spending money without adding to it even a little, his abundant wealth gets exhausted at sometime or the other. In the same way, if the man starts making use of unlimited treasure of minerals, gifted to the human race by nature, in an unrestricted manner, it will also get exhausted. The Nyaya under discussion advises us to think of the reality and conveys that as the pot filled to its brim with water also becomes empty if water flows out from a hole in it even in drops. So we must always add to the mass of things we use or should manage to see that the store of things does not get ruined – (water is not spoiled)
This Nyaya can be referred to in a speech to describe the behaviour of a person spending seeing a big store of things, articles.
(7) देहलीदीपकन्यायः। देहली means the threshold of adoor दीपक means lamp. The role of a lamp is to spread light. If a lamp is put in any room of the house, it will illuminate that room only. But if a lamp is put on the threshold of a house, it will spread its light on both the sides of the threshold. Thus, with reference to the works more than one, done even being at one place this Nyaya देहलिदीपक has come in use.
This Nyaya teaches us the manner of using things. If a man decides he can take unlimited advantages of one thing for this sometimes the place where the thing is used and sometimes the way, the method of using it are of importance.e.g. a student, uses a bicycle to come to school. The use of bicycle to come to school either after a lapse of sometime after dinner or even without taking meals, saves his time on one hand and on the other it gives him exercise. So, the student using a cycle can reap two advantages at a time.
One can make use of this Nyaya in one’s expression to talk about the double benefits of the use of a bicycle, taken by a student. Thus, to express succinctly the double objectives achieved at a time by one person or thing. This Nyaya statement is used.
(8) मात्स्यन्यायः। मत्स्य means a fish. The root word of मात्स्य is मत्स्य. A thing related to मत्स्य is called मत्स्य. A bigger fish sustains her existence by eating small fish. On the basis of this sort of behaviour has come in popular.
This Nyaya explains that as there is coexistence of fishes in the sea as there is coexistence of human beings in the human society. As in the coexistence of fishes small fishes are always under the fear of big fishes and have to strive to protect themselves, in the human society small (not in height or weight but in status-social, political, economic) persons always live under the fear of big persons and have to protect themselves (to see that such situations not arise in the human society political administration or democratic administration has become prevalent. Consequently in the human society the weak exist among the strong.)
During discussion if any such point comes up depicting a strong person oppressing a weak person or attempts to survive or to maintain his empire (supremacy) to manifest that person’s inhuman behaviour very emphatically and clearly RepRIR expression can be used.
(9) पिष्टपेषणन्यायः। पिष्ट means something that is ground and पेषण means to grind. Means anything that is ground (flour) and पेषणmeans an act (done again and again) of grinding. Thus an act of grinding is called पिष्टपेषणान्यायः useless repetition. Generally, anything that is ground does not need to be ground again, still if somebody makes a useless attempt like grinding the ground thing, it is simply a waste of time and ability. To sermonise this reality this Nyaya became prevalent.
We can think of two types of actions. One something that is already done and the other not done. This Nyaya advises that out of these two types of actions-one must not waste time and ability in doing again and again something that is already done. But a person must always make the best use of time and ability attempting to do what is not done. e.g. If someone has already cleaned a house or school, no time and ability should be wasted in cleaning it again. Instead the attempt should be made to clean the place that is dirty. Still for the sake of publicity a programme of cleaning, the place that is already cleaned and it is sheer waste of time and ability.
To express such a waste of time and ability this expression ‘Nyayavakya’ can be used.
(10) कूपमण्डूकन्यायः – कूप means a well, मण्डूक means a frog.Awell is the birthplace and anabode of a frog. Afrog in a well moves about in a well, but does not get a chance to go anywhere outside the well. It has neither known nor seen any other place except its birthplace. As a result he thinks that well is the whole world. It does not get any chance to be familiar or get acquainted with the wide world outside the well. On the basis of this condition of the frog, this Nyaya became prevalent.
Every individual is born in some small place and mostly lives in there. Mostly a man passes his life at his birthplace and his place of stay. It is not necessary that everyone gets a chance to visit foreign countries, even all parts of one’s own country. But if a person desires to get acquainted with the world, he can do so by taking education. As a result, a person realises the vastness of the world and in that context of one’s own state. This realisation helps a man to be large-hearted. Man’s to be large-hearted. Man’s behaviour becomes very polite and benevolent. Thus familiarity with a wide world helps man to grow in many ways. But a man who does not take education or visits other places and passes his life in his birthplace does not get any idea of the wide world. For him, his small village or a town or even a city is his world. Thinking of such a person is also very restricted, such restricted thinking results in narrowness of his mind and heart.
One who has seen only one’s village or a town and believes it to be the world remains very narrow in his thinking and dealing with others. This Nyaya can be used in expession to talk about the person who believes that his limited knowledge, information is perfect, complete.