Gujarat Board GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 18 हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 18 हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
GSEB Class 11 Hindi Solutions हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Textbook Questions and Answers
अभ्यास
कविता के साथ :
प्रश्न 1.
लक्ष्य-प्राप्ति में इन्द्रियाँ बाधक होती हैं इसके संदर्भ में अपने तर्क दीजिए ।
उत्तर :
सच है, लक्ष्य प्राप्ति में इन्द्रियाँ बाधक होती है । क्योंकि इन्द्रियाँ सदैव अपने आपको तुष्ट करने का प्रयत्न करती हैं । मनुष्य उन्हें तुष्ट करने के फेर में अपना अधिकांश समय-शक्ति व्यर्थ ही गँवा देता है । कई बार तो उसे न करने जैसे कार्यों की ओर भी प्रवृत्त करती हैं । मनुष्य दिशा भ्रमित और पथभ्रष्ट हो जाता है । वह अपने लक्ष्यवेध को चूकता ही नहीं, वरन् भूलता ही जाता है । अतः इन्द्रियों को अपने वश या नियंत्रण में रखना आवश्यक नहीं अनिवार्य है । कायिक अर्थात् शारीरिक श्रम, मिताहार से भी इन्द्रियाँ नियंत्रण में रहती हैं।
प्रश्न 2.
‘ओ चराचर ! मत चूक अवसर’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्ति में कवयित्री ने जगत के चर-अचर अर्थात् जड़ एवं चेतन सभी को संबोधित किया है । या यों कहिए कि समस्त जगत को संबोधित करते हुए कहा है कि मनुष्य योनी में जन्म लेना सबसे बड़ा सौभाग्य है । जीवन अमूल्य है । मनुष्य को अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए उसे शिवभक्ति करने का जो अवसर मिला है, उससे चूकना नहीं चाहिए ।
ऐसा अवसर बार-बार मिलनेवाला नहीं है । सांसारिक मोह-माया के पचड़े में गिरकर हरिनाम को भूल गया, शिय का स्मरण ही नहीं किया तो उसका कल्याण कैसे होगा । अतः इस अमूल्य अवसर को न गवाँकर शिवं स्मरण करना चाहिए । अन्यथा समय बीत जाने के बाद उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा। उसे मिला हुआ धन्य जीवन और धन्य अवसर को वह व्यर्थ ही गँवा देगा – फिर पछताये क्या होत हैं जब चिड़िया चुग गई खेत । फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा – ‘अंतकाल पछताएगा जब प्राण जाएँगे छूट ।’
प्रश्न 3.
ईश्वर के लिए किस दृष्टांत का प्रयोग किया गया है ? ईश्वर और उसके साम्य का आधार बताइए ।
उत्तर :
कवयित्री अक्कमहादेवी ने ईश्वर के लिए जूही के फूल का दृष्टांत दिया है । जूही का फूल श्वेत एवं सुगंधित होता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अमीर, गरीब, राजा-रंक, स्वामी-सेवक, सुंदर-असुंदर, जाति-पाँति के स्तर पर किसी प्रकार का भेदभाव न रखकर सभी को समान रूप से अपनी खुश्बू लुटाता है ।
ईश्वर भी तो समदर्शी है । उसकी कृपा सभी पर समान रूप से बरसती है । वह सबकी सुनता है । इस वचन में इसी अर्थ में (समदर्शी) ईश्वर के लिए जूही के फूल का दृष्टांत दिया है । अर्थात् वह – कवयित्री की भी याचना सुनेगा और तदनुरूप कृपा बरसायगा ।
प्रश्न 4.
अपना घर से क्या तात्पर्य है ? इसे भूलने की बात क्यों कही गई है ?
उत्तर :
अपना घर से तात्पर्य है – सांसारिक जीवन । अपने घर को पूरी तरह से भूल जाने का आशय है – सारे रिश्ते-नातें, भौतिक सुख-सुविधाएँ, सांसारिक मोहमाया से विरक्त हो जाना । ‘घर की माया’ अपने अराध्य तक पहुँचने के मार्ग का रोड़ा है, अवरोधक बल है । कबीर ने इसलिए तो कहा था – “जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ” । कवयित्री के ‘कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह और कबीर के ‘जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ’ में भाव के स्तर पर कितनी साम्यता है । बुद्ध, कबीर, महावीर और गोरखनाथ आदि महापुरुषों ने इसीलिए ‘घर की माया’ को त्याग दिया था ।
प्रश्न 5.
दूसरे वचन में ईश्वर से क्या कामना की गई है ? और क्यों ?
उत्तर :
दूसरे वचन में कवयित्री अपने अराध्य से याचना करती है कि मेरे अहं को पुष्ट करनेवाले तमाम भाव और परिस्थितियों को नष्ट कर दे । मुझे इतना अकिंचन लाचार, दयनीय एवं सर्वसाधन विहीन कर दे कि मेरा अहं भाव नष्ट हो जाए ।
वह भीख माँगने जैसी परिस्थिति, झोली फैलाने पर भी भीख न मिलना, कोई रहम खाकर भीख दे भी तो नीचे गिर जाना, नीचे गिरी हुई भीख को उठाने की कोशिश में कुत्ते के द्वारा झपटकर ले जाना जैसी असहाय स्थितियों की कामना कवयित्री इसलिए करती है कि सुख-सुविधा, संपन्नता व्यक्ति को अपने अहं में लिप्त रखती है, जो कि ईश्वर के मार्ग में रोड़ा हैं, अवरोधक बल हैं । जबकि दुःख-दुविधा-विपन्नता, अकिंचनता व्यक्ति को ईश्वराभिमुख करती है । यह निर्विकार हो जाता है ऐसी स्थिति में ही ईश्वरभक्ति की जा सकती है ।
कविता के आसपास
प्रश्न 1.
क्या अक्कमहादेवी को ‘कन्नड़ की मीरा’ कहा जा सकता है ? चर्चा करें ।
उत्तर :
हाँ, कहा जा सकता है । जिस तरह से महादेवी वर्मा को हिन्दी की आधुनिक मीरा कहा जाता है, वैसे ही अक्कमहादेवी को कन्नड़ की मीरा कहा जा सकता है । मीरा और अक्कमहादेवी दोनों विवाह से पूर्व अपने-अपने आराध्य के प्रति दीवानी थीं। मीरा श्रीकृष्ण के प्रति तो अक्कमहादेवी चन्नमल्लिकार्जुन (शिव) के प्रति ।
दोनों विवाह करना नहीं चाहती थीं । दोनों ने वैवाहिक जीवन अपनी इच्छा से तोड़ा । मीरा का जन्म राजघराने में हुआ, विवाह भी राजघराने में हुआ । वहीं अक्कमहादेवी का जन्म साधारण घर में हुआ मगर विवाह राजघराने में । दोनों ने अपने-अपने समय में सामाजिक बंधनों को तोड़ा । दोनों ने लोकलाज की परवाह नहीं की ।
Hindi Digest Std 11 GSEB हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
‘आई हूँ संदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का’ का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर :
चन्नमल्लिकार्जुन अर्थात् शिव । अक्कमहादेवी शिव की अनन्य भक्त हैं । वह वीर शैव संप्रदाय से जुड़ी हुई है । वह दुनियाभर में शिव के संदेश प्रचारित-प्रसारित करना चाहती हैं । शिव संसार का कल्याण करनेवाले हैं | मनुष्यरूपी जीवन को व्यर्थ न गँवाकर ईशवंदना में चित्त लगाने के अवसर को भूल न जाना चाहिए ।
इस संदर्भ में एक विशेष बात यह भी है कि प्रत्येक वचन के अंत में रचयिता का कोई न कोई संकेत नाम रहता है । जैसे कि बसवेश्वर के वचन के अंत में ‘कूडलसंगम देव’ अल्लम के वचन के अंत में ‘गहेश्वरा’ और अक्कमहादेवी के वचन के अंत में ‘चन्नमल्लिकार्जन’ । ये संकेत नाम शिवशरणों के उपास्य देव शिव के प्रति लक्ष्य करके कहे गए हैं । इन वचनों में अभिव्यक्त विचार मानवजीवन को बेहतर बनाने की उमदा भावना से ओतप्रोत है ।
प्रश्न 2.
पहले वचन के शिल्प-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर :
कन्नड़ साहित्य में वचन साहित्य सामाजिक बदलाव की भूमिका के रूप में एक आंदोलन के रूप में चला था । अतः उसमें सामाजिक सरोकार ढूँढ़ना चाहिए नहीं के कलात्मक सौष्ठव । फिर भी हम देखें तो पहले वचन में कवयित्री ने इस वचन में संबोधन शैली का प्रयोग किया है ।
विभिन्न वृत्तियों एवं भावों पर मानवीय भावों का आरोपण किया है । अतः मानवीकरण अलंकार का सुंदर उदाहरण है । दूसरा यह कि ‘मत मचल’, ‘मचा मत’ में अनुप्रास अलंकार है । मूल्ल कन्नड़ भाषा में लिखा गया वचन, किंतु यहाँ खड़ी बोली का सहज-सरल रुप अभिव्यक्त हुआ है । शांत रस का सम्यक् परिपाक हुआ है ।
प्रश्न 3.
दूसरे वचन की भाषा-शैली एवं कलात्मक पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर :
दूसरे वचन में कवयित्री ने आरंभ में ही ईश्वर के लिए ‘जूही के फूल’ का उपमान प्रयुक्त करके दोनों के बीच तुलना की है । अर्थात् उपमा अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है । ‘मँगवाओ मुझसे’, ‘कोई कुत्ता’ जैसी शब्द योजना में अनुप्रास अलंकार है । विभिन्न प्रकार की स्थितियों में दृश्य-बिम्ब की सुंदर सृष्टि हुई है । जैसे कि भीख मांगना, झोली फैलाना, भीख का नीचे गिर जाना, उसे उठाने के लिए झुकना, कुत्ते के द्वारा छापटना आदि । संवाद शैली का प्रयोग हुआ है और शांत रस का परिपाक हुआ है ।
योग्य विकल्प चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए ।
प्रश्न 1.
- कन्नड़ भाषा में अक्क का अर्थ …………… होता है । (बहन, भाई, माँ, पिता)
- अक्कमहादेवी ………… आंदोलन से जुड़ी हुई थी । (दलित, आदिवासी, शैव, वैष्णव)
- अक्कमहादेवी का जन्म. ……………. सदी में हुआ था । (10, 12, 14, 16)
- अक्कमहादेवी ने विवाह के लिए राजा के समक्ष ……….. शर्ते रखी थी । (1, 3, 5, 7)
- अक्कमहादेवी………….. की अनन्य भक्त थीं । (चन्नमल्लिकार्जुन, कूड़लसंगम, कबीर, रैदास)
- कवयित्री ने ईश्वर की तुलना ……….. के फूल के साथ की है । (गुलाब, सूरजमुखी, जूही, चंपा)
- बारहवीं सदी के इन भक्त कवियों के काव्य को ……………. कहते हैं । (वचन, पद, साखी, सबद)
- अक्कमहादेवी को कन्नड़ की …………. कहते हैं । (कोयल, मीरा, राधा, शान)
- लक्ष्य प्राप्ति में ………… बाधक होती है । (खुशी, सखी, रात, इन्द्रियाँ)
- अक्कमहादेवी के वचन ……….. चेतना का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । (नारी, दलित, आदिवासी, व्यक्तिगत)
उत्तर :
- बहन
- शैव
- 12
- 3
- चन्नमल्लिकार्जुन
- जूही
- वचन
- मीरा
- इन्द्रियाँ
- नारी
अपठित पद्य
इस कविता को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए ।
जिसमें नहीं सुवास नहीं जो
करता सौरभ का व्यापार,
नहीं देख पाता जिसकी
मुस्कानों को निष्ठुर संसार !
जिसके आँसू नहीं माँगते
मधुपों से करुणा की भीख,
मदिरा का व्यवसाय नहीं
जिसके प्राणों ने पाया सीख !
मोती बरसे नहीं न जिसको
दे पाया उन्मत्त बयार,
देखी जिसने हाट न जिस पर
ढुल जाता माली का प्यार !
चढ़ा न देवों के चरणों पर
गूंथा गया न जिसका हार,
जिसका जीवन बना न अब तक
उन्मादों का स्वप्नागार !
निर्जनता के किसी अँधेरे
कोने में छिपकर चूपचाप,
स्वप्नलोक की मधुर कहानी
कहता सुनता अपने आप !
किसी अपरिचित डाली से
गिरकर जो नीरस बन का फूल,
फिर पथ में बिछकर आँखों में
चुपके से भर लेता धूल;
उसी सुमन-सा पल भर हँसकर
सूने में हो छिन्न मलीन,
झड़ जाने दो जीवन-माली
मुझको रहकर परिचयहीन !
– महादेवी
वर्मा सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए ।
प्रश्न 1.
कवयित्री ने अपना परिचय किस रूप में दिया है ?
(a) गमले का फूल
(b) बाग का फूल
(c) यनफूल
(d) मुरझाए फूल
उत्तर :
(c) वनफूल
प्रश्न 2.
निष्ठुर संसार क्या नहीं देख पाता ?
(a) वनफूल की मुस्कान
(b) उन्मादों का स्वप्नागार
(c) सौंदर्य
(d) सौरभ
उत्तर :
(a) वनफूल की मुस्कान
प्रश्न 3.
कवयित्री चुपचाप वनफूल की तरह झड़ जाने देने के लिए किससे प्रार्थना कर रही है ?
(a) बाग के माली से
(b) जीवन के माली से
(c) निष्ठुर संसार से
(d) स्वयं से
उत्तर :
(b) जीवन के माली से
प्रश्न 4.
सौरभ का समानार्थी शब्द कविता में से ढूँढ़कर लिखिए ।
(a) सुगंध
(b) सुवास
(c) मधुर
(d) मदिरा
उत्तर :
(b) सुवास
प्रश्न 5.
इस कविता का उचित शीर्षक दीजिए ।
(a) फूल
(b) सौरभ
(c) माली
(d) परिचय
उत्तर :
(d) परिचय
हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Summary in Hindi
कवयित्री परिचय :
अक्कमहादेवी का जन्म 12वीं सदी में उडुतरी नामक गाँव, जिला शिवमोगा, कर्णाटक में हुआ था । इनके पिता का नाम विमल और माता का नाम सुमति था । दोनों ही परम शिवभक्त थे । गरीब होने पर भी यह परिवार शीलादि गुणों से युक्त था ।
प्रमुख रचनाएँ :
हिन्दी में वचन सौरभ नाम से और अंग्रेजी में स्पीकिंग ऑफ शिवा (सं. ए. के. रामानुजन) है । महादेवी के वचनों की संख्या बहुत कम है, किंतु उन्होंने गागर में सागर भरा है । वचनों के अतिरिक्त ‘योगांश त्रिविधि’ नामक एक छोटी-सी रचना उनकी बतायी जाती है जिसमें आध्यात्मिक तत्त्वों का सरल भाषा में निरूपण किया गया है। भारतीय धर्म साधना में कर्णाटक की देन बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
वीर शैव भक्ति आंदोलन से जुड़े भक्त कवियों में अल्लमप्रभु, बसव, चेन्नबसव, सिद्धराम के साथ ही साथ अक्कमहादेवी का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है । अक्कमहादेवी के आराध्यदेव चन्नमल्लिकार्जुन देव (शिव) थे । कन्नड़ भाषा में ‘अक्क’ शब्द का अर्थ बहन होता है । श्री एम. आर. श्रीनिवास मूर्ति ने अक्कमहादेवी के व्यक्तित्व का महात्म्य इन शब्दों में व्यक्त किया है…… “महादेवी अक्क का जीवन चरित्र क्या है – स्त्री गौरव गरिमा, स्वातंत्र्य-प्रियता और परमार्थ साधना का एक महा प्रकरण है ।”
अक्कमहादेवी बड़ी रूपवती थीं । महादेवी का रूप और यौवन देखकर उस प्रदेश के जैन राजा कौशिक मोहित हो गए और लड़की को विवाह में देने के लिए परिवारवालों को मजबूर किया । गरीब माँ-बाप में राजा की इच्छा के विरुद्ध जाने का साहस कहाँ ? लेकिन अक्कमहादेवी ने अपने को विवाह के बन्धन में फंसाकर अपनी अध्यात्म-साधना में बाधा डालने से इनकार कर दिया, क्योंकि बचपन से ही महादेवी में भक्ति का अंकुर पल्लवित तथा पुषित हो गया था ।
जब राजा की प्रेमभिक्षा ने राजाज्ञा का रूप धारण किया तब गरीब माता-पिता उभय संकट में पड़े । अपने प्यारे माता-पिता की हृदय-वेदना को देखकर महादेवी का मन पिघल गया और विवाह के लिए राजी हो गयीं । किन्तु उन्होंने विवाह के लिए कुछ शर्ते लगायीं । उन्होंने कहा कि मेरी अपनी पूजा-उपासना में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़नी चाहिए ।
इसके अतिरिक्त उन्होंने राजा से तीन नियमों का पालन कराना आवश्यक बताया और कहा कि यदि इन नियमों के पालन में कुछ क्षति हुई तो मैं तुमसे अलग हो जाऊँगी । मोही कौशिक ने सब शते मान लीं । लेकिन स्त्री को एक भोग की वस्तु समझनेवाले उस कामी राजा के साथ सदा शिव-ध्यान निरत महादेवी कैसे निभ सकती थीं ?
जैसे ही राजा ने किसी समय उक्त नियमों के पालन में त्रुटि की वैसे ही महादेवी राजसी सुख-भोग को लात मारकर महल से चन्नमल्लिकार्जुन अर्थात् परशिव की खोज में निकल पड़ी । लोगों ने बहुत कुछ सगझाया और घरबार छोड़ देने से होनेवाली विकट परिस्थितियों का भयावना चित्र उपस्थित किया ।
लेकिन महादेयी ने कहा, “यदि भूख लगी तो भिक्षान्न मिलेगा, प्यास लगी तो झील-सरोवर का पानी है, सोने के लिए भग्न मन्दिर हैं, और चन्नमल्लिकार्जुन सदा साथ हैं ।” जिस तरह बसव के उपास्य देव का नाम कूडलसंगम था उसी प्रकार अक्कमहादेवी के उपास्य-देव का नाम ‘चन्नमल्लिकार्जुन’ जो उनके प्रत्येक वचन के अन्त में अंकित है ।
महादेवी अपने पति के यहाँ से अकेली चल पड़ी और जंगलों, पहाड़ों से होते हुए कल्याण नगर पहुँची । रूपवती इस नवयुवती को अकेली देखकर लोगों ने तरह-तरह के विचार व्यक्त किए । महादेवी को लोगों की व्यंग्य-भरी बातें सुनकर अकल्पनीय मनोवेदना सहनी पड़ी। मगर मीरा की भाँति अक्कमहादेवी ने भी भारतीय नारी के इतिहास में अपने क्रांतिकारी चरित्र का परिचय दिया ।
सबसे चौंकाने और तिलमिला देनेवाली बात यह है कि महादेवी ने सिर्फ राजमहल का परित्याग नहीं किया वरन् पुरुष वर्चस्व के खिलाफ जोरदार आवाज़ उठाई। जिसकी प्रतिक्रियारूप उन्होंने अपने वस्त्रों को भी उतार फेंका । वस्त्रों को उतार फेंकना केवल वस्त्रों का त्याग नहीं था, बल्कि स्त्रियों पर थोपी गई पाबंदियों, एकांगी मर्यादाओं और नियम-कानूनों के खिलाफ जोरदार प्रतिरोध था । नारी केवल शरीरमाज नहीं
है, उस गहरे बोध के साथ महावीर आदि महापुरुषों के समक्ष खड़ा होने का साहस था । कबीर की भाँति महादेवी ने भी ‘सीस उतारे हाथ कहि, सो पेसे घरमाँहि’ वाला त्याग और बलिदान का रास्ता अपनाया । शिवानुभव मण्टव में बसव, अल्लम आदि सबों ने महादेवी की कई तरह से परीक्षा ली । महादेवी की प्रेम-विह्वल निर्मल भक्ति को देखकर बसव और अल्लम दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
बसव से दीक्षा लेकर महादेवी शियानुभव मण्टप में शामिल हुई । शियानुभव मण्टप में आश्रय पाने पर महादेवी अत्यन्त प्रसन्न हुई और इस आनन्द से विभोर होकर उन्होंने बहुत-से अनमोल वचनों की रचना की । अक्कमहादेवी ने अपने चरित्र द्वारा यह साबित किया है कि अबलाएँ भी सबलाएँ बन सकती हैं । उनकी वीरवाणी अध्यात्मसाधना में अन्यत्र दुर्लभ है ।
वे कहती है – “जिसने पर्वत पर घर बसाया है वह जंगली जानवरों से क्यों डरे, जिसने समुद्र पर घर बनाया है वह लहरों को देखकर क्यों भयभीत हो, बाजार में घर बसाकर शोरगुल से क्यों घबरावे, हे चन्नमल्लिकार्जुन, जब इस संसार में जन्म लिया है तब फिर निन्दा-स्तुति सुनकर क्यों कोई मन में क्रोध का भाव लाचे, शांति से सब सहना चाहिए ।”
अक्कमहादेवी की निर्भिक वाणी से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में विधवा और सधवा स्त्रियाँ जिनमें अधिकतर निचले तबके से थीं शैव आंदोलन से जुड़ी । इतना ही नहीं, अपने जीवन-संघर्ष और नारकीय यंत्रणा को कविता के माध्यम से बेबाक अभिव्यक्ति दी ।इस प्रकार अक्कमहादेवी के वचन समग्न भारतीय साहित्य में नारीचेतना का महत्त्वपूर्ण उद्घोष है।
महादेवी का लोकानुभव अपार था । उन्होंने बसव से भक्ति, प्रभुदेव से ज्ञान, चेन्नबसव से धर्म – इस प्रकार तीन महात्माओं से तीन गुणों को ग्रहण कर अपनी भक्तिसाधना को परिपक्व किया था । उन्होंने विरक्ति का नमूना शायद ही अनन्य मिले । जितने दिन तक महादेवी कल्याण में रहीं उतने दिन तक उन्होंने अपनी अनन्य भक्ति, शील, उज्ज्वल चरित्र और सेवा से वचनमण्डप के शिवशरणों को मुग्ध कर रखा था ।
परतत्त्व का साक्षात्कार करके महादेवी अपनी अध्यात्म साधना का चरम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए श्री शैल की ओर चल पड़ी और वहीं शिवैक्य को प्राप्त हुई । यहाँ पाठ्यक्रम में अक्कमहादेवी के दो वचन लिए गए हैं । प्रथम वचन में कवयित्री ने इंद्रिय नियंत्रण का संदेश दिया है । उनका कहना है कि मनुष्य को अपनी भूख, प्यास, नींद आदि वृत्तियों तथा क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि भावों के वश न होकर पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ।
तभी चन्नमल्लिकार्जुन (शिव) प्रसन्न होते हैं । अपने दूसरे वचन मैं कवयित्री अक्कमहादेवी अपने आराध्य चन्नमल्लिकार्जुन से अनुनय-विनय करती है और शिव की अनुकंपा के लिए, शिव की शरण प्राप्त करने के लिए सांसारिक सुख-सुविधाओं का परित्याग करना चाहती है । वह ऐसी निष्काम स्थिति की कामना करती है, जिससे उनका अहं विगलित हो जाये, अहंकार नष्ट हो जाये ।
वह अपने परम आराध्य शिव से ऐसी स्थितियों से गुजारने का अनुरोध करती है कि उसका अहंकार नष्ट हो जाये । जैसे कि भीख माँगने पर भी भीख न मिले, अपने घर-परिवार की मोह-माया से मुक्त हो जाये, अपनी झोली फैलाने पर भी कुछ न मिले, यहाँ तक कि कोई उसे कुछ देना भी चाहे तो वह नीचे गिर जाए और उसे उठाने के लिए नीचे झुकने से पहले ही कोई कुत्ता झपटकर छीन ले जाए । यहाँ अपने आपको अकिञ्चन की स्थिति में रखने का आशय अपने परम आराध्य शिव की शरणागति या शिव की प्राप्ति ही है ।
काव्य का सारांश :
‘वचन’ में इंद्रिय-नियंत्रण का संदेश दिया गया है, जो सीधे आदेश या उपदेश रूप में एक निवेदन-मनुहार के स्वरूप में है । मनुष्य को भूख, निगा, मैथुन और भय की लिप्सा से ऊपर उठने के लिए यह नियंत्रण अनिवार्य भी है।
दूसरा वचन एक भक्त का ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण है । चन्न मल्लिकार्जुन (शिव) में संपूर्ण निष्ठा व्यक्त करते हुए वह स्वयं को अत्यंत दारूण स्थिति में लाकर एकदम अकिंचन बना देने का निवेदन करती है ताकि वह सदैव आराध्य के आश्रित बनी रहे । कवयित्री को ‘घर की माया’ आराध्य तक पहुँचने के मार्ग में रोड़ा प्रतीत होती है ।
काव्य का भावार्थ :
अक्कमहादेवी के दो वचनों का मर्म उद्घाटिक करने से पूर्व वचन क्या है ? वचनों की विशेषता क्या है ? और वचनों के मूल में कौन-सी दार्शनिक पृष्ठभूमि है ? इसे समझना आवश्यक है । वीर शैवभक्तों को शिवशरण भी कहते हैं । उन्होंने अपने अनुभव की बातें सीधी और सरल भाषा में सुनाई हैं । ये वाणियाँ कन्नड़ में ‘वचन’ कहलाती हैं ।
यही अनुभवसिद्ध आत्मवाणी बचन साहित्य के रूप में कन्नड़ साहित्य की अमर निधि बनी है । प्रत्येक वचन अपने आप में पूर्ण हैं । इन वचनों में अभिव्यक्त विचार मानवजीवन की आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक तथा नैतिक समस्याओं से संबंध रखते हैं । वचनकारों ने पुरानी परंपरा (संस्कृत भाषा में लेखन) को तोड़कर बोलचाल की भाषा में अपने विचार व्यक्त किये ।
वीर शैव संप्रदाय की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ :
- वर्णाश्रम-धर्म का पूर्ण रूप से खण्डन करके लिंग, वर्ण, जाति के कारण समाज में, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच किसी प्रकार के भेद को न मानना ।
- अग्निपूजा तथा मूर्ति-पूजा का बहिष्कार करना ।
- शरीर पर शिवलिंग को धारण करना और शिवभक्ति पर जोर देना ।
- पंचसूतकों को न मानना ।
- सामाजिक जीवन में शरीर-श्रम पर विशेष रूप से जोर देना ।
- सात्विक शाकाहार सेवन करना और प्राणि हिंसा न करना ।
- एकेश्वरवाद पर विश्वास रखना ।
हो भूख ! मत मचल
प्यास, तड़प मत हे
हे नींद ! मत सता
हे मोह ! पाश अपने ढील
लोभ, मत ललचा
हे मद ! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
ओ चराचर ! मत चूक अवसर
आई हूँ संदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का।
प्रस्तुत वचन में कर्णाटक की प्रसिद्ध कवयित्री अक्कमहादेवी ने इंद्रियों पर नियंत्रण रखने पर विशेष बल दिया है । वे अपनी भूख, प्यास, नींद आदि वृत्तियों एवं क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि को संबोधित करती हैं । भूख से कहती है, कि हे भूख ! तू मचल मत । अर्थात मुझे हैरान, परेशान या विकल मत कर ।
प्यास (सांसारिक इच्छाएँ) से कहती है कि तू मुझमें सांसारिक चीजवस्तुओं, भौतिक सुख-सुविधाओं की तड़प मत जगा । आलस्य, प्रमाद या अत्यधिक नींद भगवद् भक्ति में बाधक है । वह मनुष्य को निठल्ला या अकर्मण्य बनाती है । अतः कवयित्री नींद से कहती है कि तु मुझे सता मत । राजस्थानी लोकगीतों में तो नींद को भक्तों ने ‘बैरण’ (दुश्मन) कहकर संबोधित करते हुए कहा है – “उण घर जाइजे बैरण नींद, जिण घर राम नाम नी भोव !”
(अर्थात् है बैरन नींद ! तू उस घर पर जाकर अपना अड्डा जमा कि जहाँ पर हरि के नाम न जपा जाता हो ।) क्रोध मनुष्य के विवेक को मार डालता’ है । अतः कवयित्री क्रोध को संबोधित करते हुए कहती है कि हे क्रोध ! उथल-पुथल मत मचा । क्रोध पाप का मूल है । मोहवश मनुष्य तटस्थ और संयमी नहीं रह सकता । सांसारिक मोहमाया मकड़ी के जाले के समान है ।
उसमें फँसा हुआ आदमी कभी बाहर नहीं करने के लिए उद्यत हो जाता है । लोभ मनुष्य के लिए बुरी बला है । वह मनुष्य को निन्यानवें के चक्कर में ऐसा उलझाती है कि उसको कभी संतोषधन मिल ही नहीं सकता । इसीलिए वह कहती है कि हे लोभ ! तु मनुष्य को ललचाना छोड़ दे । अहंकार में डूबा मनुष्य अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ समझता है ।
वह जब तक अहंकारशून्य नहीं होता, हरिशरण या हरिनाम संभव ही नहीं । इसीलिए मद (अहंकार) से कवयित्री कहती है कि तु मनुष्य को अधिक पागल न बना । ईर्ष्या एक ऐसा मनोविकार है जो दूसरों की सुख-समृद्धिसफलता पर हमें अकारण ही भीतर ही भीतर जलाता है । अत: कवयित्री ने उसे संबोधित करते हुए कहा है कि हमें जलाना छोड़ दे ।
वचन के आखिर में कवयित्री ने चराचर जगत (जड़ चेतन सभी) को संबोधित करते हुए कहा है कि मनुष्य जन्म अमूल्य है । शिवभक्ति करने का जो अवसर मिला है, उससे मत चूकना । ऐसा अवसर बार-बार मिलनेवाला नहीं है । मैं शिव-संदेश लेकर तुम्हारे पास आई हूँ । जड़-चेतन सभी को इसका लाभ उठाना चाहिए ।
हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मैंगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख
कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि मैं झुकू उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुहासे ।
प्रस्तुत वचन में कवयित्री अक्कमहादेवी ने अपने आराध्य चन्नमल्लिकार्जुन (शिव) को संबोधित करते हुए उनके प्रति अपनी अनन्य निष्ठा और समर्पणभाव व्यक्त किया है । वह अपने आराध्य से विनय करती हैं कि मेरे अहं को पुष्ट करनेवाले तमाम भाव और परिस्थितियों को नष्ट कर दे । मुझे इतना अकिंचन, लाचार, दयनीय एवं सर्वसाधनहीन कर दे कि मेरा अहं भाव नष्ट हो जाए ।
कवयित्री अपने आराध्य के लिए ‘जूही के फूल’ जैसे उपमान का सोद्देश्य प्रयोग करती है । उसका मानना है कि जूही के फूल जिस तरह सभी को अपनी खुश्बू बाँटते हैं, किसी तरह का भेदभाव नहीं करते । उसी प्रकार मेरे साथ भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेंगे । समदशी बनकर मेरी भी सुनेंगे । इसीलिए वह कहती है कि हे प्रभु ! तू मेरे समक्ष ऐसी स्थितियाँ पैदा कर कि भीतर का अहं अपने आप विगलित हो जाए ।
जब तक आराधक भीतर से रिक्त नहीं होता (सांसारिक मोहमाया आदि) तब तक अपने आराध्य के लिए जगह कहाँ ? यही कारण है कि कवयित्री ‘भीख’ माँगने जैसी करुण स्थिति से गुजरना चाहती है । मीरा ने भी अपने इष्टदेव श्री कृष्ण से विनय भाग से कहा था – ‘म्हाने चाकर राखो जी !’ अक्कमहादेवी इससे भी आगे चलकर यह कहती है कि हे प्रभु !
कुछ ऐसा करो कि मैं अपने . घर को पूरी तरह से भूल जाऊँ । अपने घर को पूरी तरह से भूल जाने का आशय है सारे नाते-रिश्ते, भौतिक सुख-सुविधाएँ, सांसारिक मोह-माया से विरक्त हो जाना । ‘घर की माया’ अपने आराध्य तक पहुँचने के मार्ग का रोड़ा है, अवरोधक बल है । कबीर ने इसीलिए तो कहा था –
“जो घर जारे आपना
चले हमारे साथ ।”
अक्कमहादेवी के – “कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह” और कबीर के – “जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ” में भाव के स्तर पर कितनी साम्यता है । कवयित्री अपने लिए ऐसी दारुण स्थिति की कल्पना करती है कि याचक बनकर झोली फैलाने पर भी उसे भीख न मिले । इससे भी आगे बढ़कर वह ऐसी स्थिति की कामना करती है कि यदि कोई मुझ पर दया करके कुछ देने को हाथ भी बढ़ाए तो वह मेरी झोली में गिरने के बजाय सीधा नीचे गिर जाए ।
यदि उसे उठाने के लिए नीचे झुकूँ तो कोई कुत्ता आ जाए और वह भी झपटकर मुझ से छीन ले । अक्कमहादेवी की यह भावना मध्यकालीन संत कवियों को संतोष भाव से कहीं आगे है । जैसे कि संतों ने सांई से इतना मांगा है कि जिसमें कुटुम्ब की उदरपूर्ति हो जाए । संत भी भूखा न रहे और उसके घर पर आया हुआ साधु, संत या अतिथि भी भूखा न रहे । मगर यहाँ तो कवयित्री साधु, अतिथि, कुटुम्बीजन की तो ठीक पर अपने खुद की भी चिन्ता नहीं करती । इसका आशय यही है कि ऐसी अकिंचन एवं दारुण स्थिति में वह अपने इष्टमय रहेगी ।
शब्दार्थ :
- पाश – जकड़
- मद – नशा
- चन्नमल्लिकार्जुन – शिव
- मदहोश – नशे में अर्धचेतन होना, होश खोना
- हाथ बढ़ाना – सहायता करना
- ढील – ढीला करना
- चराचर – जड़ और चेतन
- मचल – पाने (प्राप्त) की जिद, तड़प, छटपटाहट
- चूकना – छोड़ना, भूलना