Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 18 किं नाम व्यक्तित्वम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 18 किं नाम व्यक्तित्वम्
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit किं नाम व्यक्तित्वम् Textbook Questions and Answers
किं नाम व्यक्तित्वम् Test
1. संस्कृतभाषयाम् एकवाक्येन उत्तरं लिखत :
પ્રશ્ન 1.
सर्वेषां जनानां का कामना भवति ?
उत्तरं :
सर्वेषां जनानांमिदं कामना भवति यदस्मदीयं व्यक्तित्वं महद् स्यात्।
પ્રશ્ન 2.
अभ्युदये किं करणीयं भवति ?
उत्तर :
अभ्युदये क्षमा करणीया भवति।
પ્રશ્ન 3.
वाक्पटुता कुत्र अपेक्षिता भवति ?
उत्तर :
वाक्पटुता सदसि अपेक्षिता भवति।
પ્રશ્ન 4.
धैर्यं कदा करणीयं भवति ?
उत्तर :
धैर्यं विपदि करणीयं भवति।
2. Answer the following questions in your mother-tongue:
Question 1.
With regard to which matter do we find people striving hard these days?
उत्तर :
वर्तमान समय में लोग व्यक्तित्व-निर्माण के विषय के प्रति अत्यधिक प्रयत्नरत हैं।
Question 2.
When can an attempt to build up personality become possible ?
उत्तर :
व्यक्तित्व का स्वरूप क्या है ? यह जानने पर व्यक्तित्व के निर्माणार्थ प्रयत्न हो सकता है।
Question 3.
How many Shataks are composed by Bhatruhari?Name them.
उत्तर :
राजर्षि भर्तृहरि विरचित शतक तीन हैं – शृङ्गारशतक, नीतिशतक एवं वैराग्यशतक।
Question 4.
What are the natural qualities of a saint/ a gentleman ?
उत्तर :
विपत्ति में धैर्य, उन्नति में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में विक्रम, यश में अभिरूचि और श्रुति में व्यसन अर्थात् स्वाभाविक आदत होना महात्माओं के प्रकृति सिद्ध लक्षण है।
3. Explain in detail :
‘Prasangshatak’ प्रसन्गषटक :
व्यक्ति के जीवन में सदा परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती हैं। किसी भी व्यक्ति के जीवन-काल के अन्तराल में छः प्रकार के प्रसंग आते ही हैं। कभी विपत्ति तो कभी युद्ध, कभी विकास तो कभी किसी सभा में स्थित होना, यश और श्रुति का विचार ये प्रसंग प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं।
अतः भर्तृहरि के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न छः प्रसंगों में एक उत्कृष्टतम् आदर्श का निर्वहन करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान किया है जिसके द्वारा व्यक्ति का जीवन उदात्त, दिव्य और प्रेरक हो सकता है।
इस अवसर पर मानव क्रमश: धैर्य एवं क्षमाभाव रखें, वाक्पटुता एवं विनम्र का प्रदर्शन करें, यश में रति एवं श्रुति में व्यसन रखें तो उसका व्यक्तित्व महान बन जाता है।
4. Analyse with reference to context:
1. श्रुतौ च व्यसनं करणीयं भवति :
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के ‘किं नाम व्यक्तित्वम्’ नामक गद्य-पाठ से ली गई है। इस पाठ की विषयवस्तु भर्तृहरि द्वारा विरचित नीति-शतक में वर्णित एक श्लोक से ली गई है। जिसमें मानवीय व्यक्तित्व का एक सुन्दर रेखाचित्र प्रस्तुत किया गया है।
अर्थ : श्रुति (ज्ञान-प्राप्ति में) में व्यसन (स्वाभाविक आदत) किया जाना चाहिए। भर्तृहरि इस पंक्ति के माध्यम से यह समझाना चाहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को उत्कृष्ट व्यवहार के लिए ज्ञानार्जन करना परम अनिवार्य है।
ज्ञान के समान पवित्र इस विश्व में कुछ भी नहीं है तथा ज्ञान ही परं ब्रह्म स्वरूप है। गाम्भीर्यपूर्ण, उदात्त एवं दिव्य-जीवन-यापन हेतु ज्ञानार्जन में सहज स्वाभाविक आदत होनी चाहिए। ज्ञान के बिना मानव का जीवन निरर्थक हो जाता है। अतः प्रसंगषट्क में ज्ञान का सविशेष उल्लेख किया गया है।
2. प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् :
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के ‘किं नाम व्यक्तित्वम्’ नामक गद्य-पाठ से ली गई है। इस पाठ की विषयवस्तु भर्तृहरि द्वारा विरचित नीति-शतक में वर्णित एक श्लोक से ली गई है। जिसमें मानवीय व्यक्तित्व का एक सुन्दर रेखाचित्र प्रस्तुत किया गया है।
अनुवाद : यह महात्माओं का प्राकृतिक स्वभाव है। समाज में कई लोग स्वयं को महात्मा के रूप में प्रस्थापित करते हैं। एतदर्थ कई लोग वस्त्रों का, ज्ञान का, कुछ लोग वाक्छटा का एवं दंभ का आश्रय लेते हैं। परंतु यह स्मर्तव्य है कि इस प्रकार के व्यक्तित्ववाले लोग सर्वदा महात्मा नहीं हो सकते हैं।
यदि आप किसी महात्मा के चरित्र को समझना चाहते हैं तो आपको उसके जीवन में प्राप्त विपत्ति एवं अभ्युदय के समय में उसके द्वारा किए गए व्यवहार का अवलोकन करना चाहिए। यदि वह विपत्ति में धैर्यवान हो तो निश्चित रूप से वह महात्मा है।
इसी प्रकार मानव सभा में उपस्थित होकर स्व वाक्चातुर्य से सत्य के पक्ष को प्रबल बना सकता है। किन्तु संघर्ष एवं युद्ध के अवसर पर विक्रम प्रदर्शित कर सके तो यह समझना चाहिए कि वह महात्मा है तथा अन्त में यदि उसकी रूचि यशार्जन में हो एवं श्रुति (सज्जनों को, विद्वानों को सुनने) का व्यसन हो, तो वह निश्चित ही महात्मा है। कई महान आत्माएँ उपर्युक्त सर्वगुणों के साथ जन्म लेती हैं।
परंतु यदि जन्म से किसी के पास उपर्युक्त गुण न हो तो वह प्रयत्नों से उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न हो सकता है। वह प्रकृति-सिद्ध महात्मा नहीं है। वह स्व-प्रयत्न से महात्मा बन सकता है किन्तु उसका व्यक्तित्व उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होना चाहिए।
5. Write a critical note on:
- शतकत्रयम्
- नीतिशतकम्
- श्रुतिः
- गुणद्वयम्
1. शतकत्रय :
संस्कृत भाषा में शत शब्द का अर्थ है सौ। इस प्रकार शतक अर्थात् सौ का संकलन। यहाँ सौ श्लोकों से युक्त एक ग्रन्थ को शतक कहा गया है। भर्तृहरि ने सौ-सौ श्लोकों का संकलन करके तीन ग्रन्थों की रचना की हैं।
शृङ्गार शतक में कवि रत्न राजा भर्तृहरि ने शृङ्गार रस का सविशेष वर्णन करते हुए सौ श्लोकों की रचना की है। नीतिशतक में भर्तृहरि के द्वारा मानवीय व्यवहार से सम्बद्ध विभिन्न विषयों का एवं नैतिकता का मार्ग-दर्शन कराने हेतु नीति का वर्णन करते हुए सौ श्लोकों की रचना की गई है।
भर्तृहरिकृत वैराग्यशतक में जगत् की नश्वरता एवं वैराग्य की महत्ता प्रदर्शित करते हुए सौ श्लोकों का वर्णन किया है। इस प्रकार भर्तृहरि कृत शृङ्गार शतक, वैराग्य शतक एवं नीति शतक इन तीन ग्रन्थों को शतकत्रयम् कहा जाता है।
2. नीतिशतकम् :
सुप्रसिद्ध कविरत्न भर्तृहरि के द्वारा रचित ग्रन्थ ‘नीतिशतकम्’ संस्कृत साहित्य की एक अमूल्य निधि है। मानवीय जीवन के विभिन्न अंगों में, प्रसंगों में तथा विविध परिस्थितियों में किन-किन वस्तुओं का महत्त्व होता है तथा किस प्रकार का आचरण किया जाना चाहिए आदि मानवीय व्यवहार से सम्बद्ध सभी विषयों का एवं नैतिक – आचरण का वर्णन नीति-शतक में प्राप्त होता है।
मानवीय व्यवहार से सम्बद्ध नैतिकतापूर्ण जीवन का मार्गदर्शन करने हेतु सौ श्लोकों का संग्रह नीतिशतक ग्रन्थ में संग्रहित है।
3. श्रुति :
श्रुति शब्द का आशय है वेद, वेदवाक्य। वेदों का संरक्षण गुरु-शिष्य परंपरा के कारण श्रवण प्रधान विधि से हुआ है। श्रुति अर्थात् श्रवण करते हुए जिसका रक्षण ऋषियों – महर्षियों ने किया है, अतः वेद श्रुति भी कहा जाता है।
यहाँ इस गद्य पाठ में कविरत्न भर्तृहरि के द्वारा वर्णित व्यक्तित्व के गुणों में श्रुति का महत्त्व भी दर्शाया गया है। भर्तृहरि के अनुसार सज्जनों का, महात्माओं का यह सहज स्वभाव होता है कि वे वेद-वाक्यों का, भगवद्-चिंतन आदि का श्रवण करने हेतु सदैव उत्सुक रहते हैं।
वे सांसारिक विषयों से दूर रहकर अन्य किसी प्रपंच से मुक्त रहते हैं। सात्विक विषयों के श्रवण से, व्यक्ति का चारित्रिक, मानसिक, सांवेगिक विकास सम्यक् प्रकार से होता है।
4. गुणद्वयम् :
गुणद्वयम् अर्थात् दो गुण। भर्तृहरि विरचित नीतिशतक में महात्मा के छ: गुणों का वर्णन करते हुए एक श्लोक में गुणद्वयम्। शब्द से महात्मा के अन्तिम दो गुणों का ज्ञान होता है, जिसमें यश के प्रति अभिरूचि होना एवं श्रुति के प्रति व्यसन होना इन दो गुणों का होना अनिवार्य है।
व्यक्ति को यशार्जन के प्रति रूचि होनी चाहिए क्योंकि यश रूपी देह से वह अजर-अमर हो सकता है तथा श्रुति अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के द्वारा सज्जनों को सुनकर सत्य-ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
इस प्रकार किसी भी महात्मा में अन्य चार गुणों के साथ इन दो गुणों के प्रति विशेष रूप से अभिरूचि एवं सहज आदत होनी चाहिए।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB किं नाम व्यक्तित्वम् Additional Questions and Answers
किं नाम व्यक्तित्वम् स्वाध्याय
1. संस्कृतभाषायाम् एकवाक्येन उत्तरं लिखत।
પ્રશ્ન 1.
सांप्रतिके समाजे जनाः किम् निर्माणाय विशेषतः प्रयत्नरताः सन्ति ?
उत्तर :
सांप्रतिके समाजे जना: व्यक्तित्वस्य निर्माणाय विशेषतः प्रयत्नरताः सन्ति।
પ્રશ્ન 2.
शतकत्रयं केन रचितम् ?
उत्तर :
कविरत्नेन भर्तृहरिणा शतकत्रयं रचितम्।।
પ્રશ્ન 3.
जीवने प्रत्येकेन जनेन कस्य साक्षात्कार: करणीय: ?
उत्तर :
जीवने प्रत्येकेन जनेन विपदः अभ्युदयस्य च साक्षात्कार: करणीयः भवति।
પ્રશ્ન 4.
विक्रमः कुत्र करणीय: ?
उत्तर :
विक्रमः युधि करणीयः।
પ્રશ્ન 5.
अभिरूचिः कुत्र करणीया ?
उत्तर :
अभिरूचिः यशसि करणीया।
પ્રશ્ન 6.
महात्मा का भवति ?
उत्तर :
यस्य व्यक्तित्वं महदस्ति, स एव महात्मा भवति।
किं नाम व्यक्तित्वम् Summary in Hindi
सन्दर्भ : भर्तृहरि संस्कृत साहित्य में अनेक प्रकार से प्रसिद्ध हैं। कुछ लोग भर्तृहरि के एक नहीं किन्तु अनेक होने की बात को स्वीकार करते हैं। इनमें से एक भर्तृहरि वैयाकरण है, दूसरे वैरागी है। वाक्यपदीयं ग्रन्थ के कारण वैयाकरण भर्तृहरि प्रसिद्ध है तथा वैरागी भर्तृहरि तीन शतकों (नीति शतक, वैराग्य शतक तथा शृंगारशतक के कारण प्रसिद्ध हैं। तथापि वैयाकरण भर्तृहरि की अपेक्षा शतकत्रय के रचयिता भर्तृहरि अधिक लोक-भोग्य रहे हैं।
इस पाठ का आधार नीतिशतक का एक श्लोक है। इस श्लोक में भर्तृहरि के द्वारा अभिव्यक्त विचारों के अनुसार मानवीय व्यक्तित्व का एक सुन्दर रेखाचित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
प्रत्येक मानव के जीवन में छ : अवसर आते हैं। यद्यपि व्यक्ति के स्वयं की पद-प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में इन छ: प्रसंगों की व्यापकता अल्प या अधिक हो सकती है किन्तु वे अनिवार्य रूप से आते हैं यह निश्चित है। ये छः अवसर हैं – विपद् तथा अभ्युदय, सदस् या युद्ध की स्थिति, एवं यश एवं श्रुति का विचार।
इस अवसर पर मानव, क्रमश : धैर्य एवं क्षमाभाव रखे, वाक्पटुता एवं विक्रम का प्रदर्शन करे, यशस् में रति एवं श्रुति में व्यसन रख्ने, तो उसका व्यक्तित्व महान बन जाता है। जिसका व्यक्तित्व महान है वह ही महान है।
इस प्रकार यहाँ मानव के व्यक्तित्व के विकास का रेखाचित्र खींचकर प्रत्येक मानव को महात्मा बनने की प्रेरणा दी गई है। पाठगत पद्य का छन्द द्रुत विलम्बित है।
शब्दार्थ
इयम् = इदम् सर्वनाम्, स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन – यह। व्यक्तित्वम् = व्यक्तित्व, मानव के व्यवहार से उत्पन्न होनेवाला प्रभाव, मानव का चरित्र। प्रकृतिसिद्धम् = स्वाभाविक, स्वभाव से सिद्ध, प्राकृतिकः, प्रकृत्या सिद्धम् – तृतीया तत्पुरुष समास। महत् = बड़ा – नपुंसक लिंग। साम्प्रतिके = वर्तमान समय में। प्रयत्नरता: = प्रयत्न में व्यस्त-प्रयत्ने रताः – सप्तमी तत्पुरुष समास। विविधया = भिन्न-भिन्न (प्रकार) से – विविधा – स्त्रीलिंग – तृतीया विभक्ति एकवचन। विकासयितुम् = विकास करने के लिए – वि + कास् (प्रेरणार्थक – णिच् – कासय) + तुमुन् – हेत्वर्थक कृदन्त।
प्रयतन्ते = प्रयत्न करते हैं – प्र + यत् – वर्तमान काल, अन्य पुरुष, बहुवचन। सम्भाव्यते – संभव होता है। – सम् – भू – प्रेरणार्थक – वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन – कर्मणि – प्रयोग। वस्तुतः = वास्तविक रूप से। अवगच्छामः = जानते हैं, समझते हैं – अव + गम् – वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन। कथं नाम = किस प्रकार। शतकत्रयम् = तीन शतक, शतक अर्थात् सौ, सौ स्वतंत्र श्लोकों से युक्त काव्य को शतक-काव्य कहा जाता है। – शतकानां त्रयम् – षष्ठी तत्पुरुष समास। विपदि = विपत्ति में, संकट में – विपत् (स्त्रीलिंग) – सप्तमी विभक्ति, एकवचन। अभ्युदये = उन्नति में।
सदसि = सभा में – सदस् – नपुंसक लिंग – सप्तमी एकवचन। वाक्पटुता = वाक्चातुर्य – वाचि पटुः – सप्तमी तत्पुरुष समास वाक्पटो: भावः = वाक्पटुता। युधि = युद्ध में, संघर्ष में – युध् – स्त्रीलिंग – सप्तमी विभक्ति, एकवचन। यशसि = यश में – यशस् – नपुंसक लिंग, सप्तमी विभक्ति, एकवचन। अभिरूचिः = प्रेम। व्यसनम् = आदत। श्रुतौ = श्रुति में, ज्ञानप्राप्ति में। इत्थम् = इस प्रकार। अवगन्तव्यम् = समझना चाहिए, जानना चाहिए – अव + गम् + तव्यत् – विध्यर्थ कृदन्त। विपदः = आपत्ति का – विपद् – स्त्रीलिंग षष्ठी विभक्ति – एकवचन। अभ्युदयस्य = उन्नति का।
साक्षात्कारः = सामना। करणीयः = किया जाना चाहिए – कृ धातु – अनीयर् – विध्यर्थ कृदन्त। धरणीयम् = धारण किया जाना चाहिए – धृ – अनीयर् – विध्यर्थ कृदन्त। कर्तव्यम् = करने योग्य – कृ धातु – तव्यत् – विध्यर्थ कृदन्त। आचरता = आचरण करते हुए (व्यक्ति आदि के द्वारा) – आ + चर् + शतृ – वर्तमान कृदन्त, आचरत् पुल्लिंग – तृतीया विभक्ति, एकवचन। प्रदर्शनीय: = दिखाया जाना चाहिए – प्र + दृश् + अनीयर् – विध्यर्थ कृदन्त। विचारयता = विचार, चिंतन करते हुए – वि + चर् + शतृ – वर्तमान कृदन्त – विचारयत् पुल्लिंग – तृतीया विभक्ति, एकवचन।
गुणद्वयम् = दो गुण – गुणानाम् द्वयम् – षष्ठी तत्पुरुष। वरणीयम् = वरण किया जाना चाहिए – वृ + अनीयर् – विध्यर्थ कृदन्त। अभिरूचिः = प्रेम। यथावसरम् = अवसर के अनुसार – अवसरम् अनतिक्रम्य – अव्ययी भाव समास। उक्तम् = कहा हुआ – वच् + क्त प्रत्यय – कर्मणि भूत कृदन्त। प्रसङ्गषट्कम् = छह प्रसंगों का समूह। आयाति = आता है – आ + या वर्तमानकाल, अन्य पुरुष, एकवचन। आकारितम् = जिस आकार दिया गया हो। आ + कृ – कारि + क्त – कर्मणि भूत कृदन्त। रेखाङ्कनम् = रेखांकन, रेखाचित्र – रेखायाः अङ्कनम् षष्ठी तत्पुरुष समास।
नीतिज्ञः = नीति को जाननेवाला – नीतिं जानाति असौ – उपपद तत्पुरुष समास। इति दिक् = इस पदावलि का प्रयोग कर किसी लेख या प्रसंग की पूर्णाहुति करने की परंपरा संस्कृत में है। इसका आशय यह है कि दिग्दर्शन पर्याप्त है।
अनुवाद :
सभी लोगों की यह कामना होती है कि हमारा व्यक्तित्व महान हो। वर्तमान समाज में तो व्यक्तित्व के निर्माण के लिए लोग विशेष रूप से प्रयत्न-रत हैं। भिन्न उपायों से और विविध क्रियाओं से वे अपने व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए प्रयत्न करते हैं।
परंतु यहाँ यह व्यक्तित्व क्या है ? यह एक महान प्रश्न है। इस प्रश्न का सर्वसम्मत उत्तर संभव नहीं है। वस्तुतः मानवीय व्यक्तित्व का स्वरूप विभिन्न है। तथापि जब तक हम व्यक्तित्व के स्वरूप को नहीं जानते हैं, तब तक व्यक्तित्व के निर्माणार्थ प्रयत्न कैसे हो सकता है।
संस्कृत साहित्य में भर्तृहरि नामक सुप्रसिद्ध कवि रत्न के द्वारा नीति शतक, वैराग्य शतक और शृंगार शतक – तीन शतकों की रचना की गई है।
नीति शतक में एक सुप्रसिद्ध श्लोक है। जैसे –
अन्वय : अथ महात्मनाम् हि विपदि धैर्यम्, अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, युधि विक्रमः, यशसि अभिरूचिः च श्रुतौ व्यसनम् इदम् प्रकृति सिद्धम्।
अनुवाद : विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में विक्रम, यश में अभिरूचि और ज्ञान-प्राप्ति में व्यसन (आदत) हो यह महात्माओं में स्वाभाविक होता है।
इस श्लोक में कवि के द्वारा महात्माओं के स्वाभाविक व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है। वह इस प्रकार जानना चाहिए – जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा विपत्ति और उन्नति का साक्षात्कार किया जाना चाहिए। विपत्ति में धैर्य धारण किया जाना चाहिए और उन्नति में क्षमा की जानी चाहिए।
कर्तव्य का आचरण करते हुए व्यक्ति के द्वारा सभा या युद्ध का सामना किया जाना चाहिए। सभा में वाक्चातुर्य का आचरण किया जाना चाहिए और युद्ध में विक्रम का प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
मन से विचार करते हुए व्यक्ति के द्वारा यश और श्रुति अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति – दो गुणों का वरण किया जाना चाहिए। वहाँ यश में प्रेम और ज्ञान-प्राप्ति की आदत होनी चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में यथावसर उपर्युक्त छः प्रसंग आते ही हैं। इन छः प्रसंगों के आने पर मानव जैसा आचरण करता है उसी प्रकार का उसका व्यक्तित्व होता है। जो व्यक्ति अत्यधिक प्रयत्न से विपत्ति आदि अवसरों में धैर्य धारण-रुपी व्यवहार का आचरण करता है, उसका व्यक्तित्व महान होता है।
जिसका व्यक्तित्व महान होता है वह ही महात्मा होता है। इस प्रकार इस श्लोक में राजर्षि भर्तृहरि मानवीय-जीवन का रेखांकन करते हैं। हम भी यथावसर करणीय (करने योग्य) व्यवहार का आचरण करते हुए महात्मा बनें।