GSEB Solutions Class 10 Hindi Kshitij Chapter 14 एक कहानी यह भी

Gujarat Board GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 14 एक कहानी यह भी Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.

GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 14 एक कहानी यह भी

GSEB Class 10 Hindi Solutions एक कहानी यह भी Textbook Questions and Answers

प्रश्न-अभ्यास

प्रश्न 1.
लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?
उत्तर :
लेखिका मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व पर दो लोगों का जबरदस्त प्रभाव पड़ा :
पिता का प्रभाव : पिता के अनजाने-अनचाहे व्यवहार ने लेखिका के मन में हीन भावना उत्पन्न कर दीं। लेखिका काले रंग की थी और उनके पिता को गोरा रंग पसन्द था । बड़ी बहन से तुलना होने पर उसके कार्यों की प्रशंसा की जाती थी। परिणामस्वरूप लेखिका अपने को हीन समझने लगी।

यह भावना उनके भीतर इतना घर कर गई थी कि साहित्य क्षेत्र में इतनी प्रसिद्ध, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान मिलने पर भी उन्हें अपनी उपलब्धियों पर विश्वास नहीं होता था। आजादी की अलख जगाने तथा राजनैतिक गतिविधियों से अवगत भी वे अपने पिता के कारण ही हुई थी।

शीला अग्रवाल : हिन्दी प्राध्यापिका : हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का प्रभाव मन्नू के व्यक्तित्व में उभर कर आया है। साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश कराने का श्रेय भी इनको ही जाता है। इनके सानिध्य में रहकर अनेक साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ा, चर्चा और विचार-विमर्श किया। बाद में कथा लेखिका के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई।

शीला अग्रवाल की जोशीली बातों से, उनके भीतर अंकरित देश-प्रेम की भावनाएं, विशाल वृक्ष जैसी बन गई। उसके प्रभाव में आकर अनेक आन्दोलनों, हड़तालों, भाषणों में सक्रिय भूमिका निभाया। वे निडर होकर हर कार्यों में भाग लेने लगीं। अत: इन दो लोगों की अमिट छाप है लेखिका के व्यक्तित्व पर ।

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प्रश्न 2.
इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है ?
उत्तर :
लेखिका के पिताजी रसोईघर को भटियारखाना कहते थे, उनके अनुसार रसोई तक लड़की को सीमित कर देना, उसकी प्रतिभा को कुंठित कर देना है, जिसमें रहकर अपनी प्रतिभा को खत्म कर देना है। पिताजी नहीं चाहते थे कि लेखिका रसोई तक सीमित रहे । यदि वह रसोई में काम करेगी तो अपनी प्रतिभा संवारने का अवकाश नहीं मिलेगा।

रसोई वह स्थल है जहाँ भट्टी सुलगती रहती है और किसी-न-किसी के लिए कुछ-न-कुछ बनता रहता है। अत: पिताजी अपनी बेटी को भट्टी में झोंकना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि मन्नू आम स्त्री से भिन्न होकर अपने व्यक्तित्व का विकास करे, अपनी अलग पहचान बनाए ।

प्रश्न 3.
वह कौन-सी घटना थी जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आंखो पर विश्वास हो पाया न कानों पर?
उत्तर :
एक बार लेखिका के कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र उनके पिता के नाम आया जिसमें लेखिका के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने के विषय में पिताजी को बुलाया गया था। पत्र पढ़ते ही वे बहुत नाराज हो गए। कॉलेज जाने पर उन्हें अपनी बेटी के नेतृत्व के विषय में पता चला। छात्रों में वह बहुत लोकप्रिय है। आजादी के आन्दोलनों में वह बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है।

छात्राओं उसके इशारों पर चलती हैं। प्रिन्सिपल के लिए कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया है। तब उनके पिता बेटी के कार्य से गौरवान्वित हुए । घर आने पर उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह तो देश की पुकार है, इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है? लेखिका को तब न तो अपनी आँखों पर विश्वास हुआ न कानों पर । उन्हें लगता था कि पिताजी घर आकर बहुत डाटेंगे। ऐसा कुछ न होकर उनकी तारीफ हुई तो लेखिका यकीन ही नहीं कर पाई।

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प्रश्न 4.
लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
लेखिका और उनके पिता के बीच वैचारिक भिन्नता थी। जिसके कारण ये टकराहट पैदा होती थीं । लेखिका के पिता शक्की स्वभाव के थे इस कारण भी लेखिका उन पर भन्ना जाती थीं । उनके पिता लेखिका को घर की चहारदीवारी में रखकर देश और समाज के प्रति जागरूक तो बनाना चाहते थे, किन्तु एक निश्चित सीमा तक ।

वे नहीं चाहते थे कि आन्दोलनों में भाग ले, हड़ताल कराए, भाषणबाजी करें, लड़कों के साथ सड़क पर घूमे। शीला अग्रवाल के प्रभाव में आकर लेखिका और भी निडर हो गयीं और वो सब कार्य करती जो पिता को पसन्द नहीं था। इसलिए पिता पुत्री में आए दिन वैचारिक टकराहट होती थीं। पिता की इच्छा के विरुद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव से शादी की तब भी उनके विचार टकराए थे।

प्रश्न 5.
इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नूजी की भूमिका को रेखांकित कीजिए।
उत्तर :
सन् 1946-47 के आसपास स्वाधीनता आंदोलन अपनी चरमसीमा पर था। देश के कोने कोने से युवा-वृद्ध सभी हिस्सा ले रहे थे। प्रभातफेरियाँ, हड़ताल, भाषण सभी जगह हो रहे थे। लेखिका के पिता ने देश में चल रही गतिविधियों से परिचय तो करवाया, पर बेटी सक्रिय रूप से भाग ले वे यह नहीं चाहते थे। अत: स्वाधीनता की अलख जगानेवाले उनके पिता थे किन्तु प्रज्ज्वलित करने का कार्य किया उनकी हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने ।

उनकी जोशीली बातों के प्रभाव में आकर वे भी चल पड़ी आंदोलन के मार्ग पर । हड़ताल, हुल्लड, भाषण, जुलूष, प्रभात फेरियों में निडर होकर हिस्सा लेने लगीं । लेखिका का सारे कॉलेज में दबदबा था। उनके एक ईशारे पर छात्र आन्दोलन पर उतर आते थे। अतः प्रिन्सिपल ने अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए लेखिका के पिता को पत्र भी लिखा । यो लेखिका ने स्वाधीनता-आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 6.
लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल भी खेले किन्तु लड़की होने के कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित था। क्या आज भी लड़कियों के लिए स्थितियां ऐसी ही हैं, या बदल गई हैं, अपने परिवेश के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
निःसंदेह आज की स्थिति पहले से पूर्णत: भिन्न है। आज लड़की घर की चार दीवारी से निकल कर अंतरिक्ष तक पहुंच गई हैं। हर क्षेत्र में लड़कियाँ आगे है, चाहे वो विज्ञान का क्षेत्र हो या अंतरिक्ष का, साहित्य का हो या टेक्नोलोजी का हर जगह लड़कियों ने अपनी पहचान कायम की है। अपनी इच्छा और रूची के अनुसार लड़कियाँ क्षेत्र का चुनाव कर उसमें अपनी योग्यता स्थापित कर रही है। वे शिक्षा और खेल के लिए देश-विदेश में भी जाती हैं । अत: लड़कियों की स्थिति पहले से पूर्णत: भिन्न है।

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प्रश्न 7.
मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है। परंतु महानगरों में रहनेवाले लोग प्रायः पड़ोस कल्चर से वंचित रह जाते हैं। इस बारे में अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
महानगरों में रहनेवाले लोग एकांकी जीवन जीना पसंद करते हैं। जीवन में सबकुछ पाने की चाह उन्हें इतना व्यस्त रखती है कि आसपड़ोस में क्या हुआ, इसकी कोई जानकारी नहीं रखते । फ्लेटों में रहनेवाला मनुष्य खुद को चारदीवारी के बीच कैद कर लेता है, दीवारों के उस पार क्या हो रहा है इसकी भी उसे खबर नहीं होती। परिणामस्वरूप मनुष्य अपने में ही सीमटता चला जा रहा है। शहर में रहनेवाले हर मनुष्य की यही दशा है अतः यहाँ के लोग पड़ोस कल्चर से वंचित रह जाते हैं।

प्रश्न 8.
लेखिका द्वारा पढ़े गए उपन्यासों की सूची बनाइए और उन उपन्यासों को अपने पुस्तकालय में खोजिए।
उत्तर :
पाठ के अनुसार लेखिका ने निम्नलिखित उपन्यास पढ़े हैं, उनकी सूची निम्नानुसार है

  1. सुनीता
  2. शेखर एक जीवनी
  3. नदी के द्वीप
  4. त्यागपत्र
  5. चित्रलेखा

छात्र अपने विद्यालय के पुस्तकालय में उपरोक्त पुस्तकें खोजे और पढ़े । पुस्तकें पढ़ने से साहित्यिक रूची पनपती है। अपने हिन्दी अध्यापक से साहित्यिक पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करें।

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भाषा अध्ययन

प्रश्न 10.
इस आत्मकथ्य में मुहावरों का प्रयोग करके लेखिका ने रचना को रोचक बनाया हैं। रेखांकित मुहावरों को ध्यान में रखकर कुछ और वाक्य बनाएं
(क) इस बीच पिताजी के एक निहायती दकियानुसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिताजी की लू उतारी।
(ख) वे तो आग लगाकर चले गए और पिताजी सारे दिन भभकते रहे।
(ग) बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ।
(घ) पत्र पढ़ते ही पिताजी आग बबूला हो उठे।
उत्तर :
(क) घर पर देर से आने के कारण पिताजी ने मेरी अच्छी तरह से लू उतारी।
(ख) पड़ौसी आग लगाकर चले गए और डाँट मुझे खानी पड़ी।
(ग) रामसेवक के बेटे की आचरणहीनता को देख लोग थू-थू करने लगे।
(घ) परीक्षा में कम अंक आने पर मेरे पिताजी आग बबूला हो उठे।

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अतिरिक्त प्रश्नोत्तर

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो-तीन वाक्यों में लिखिए :

प्रश्न 1.
लेखिका के पिता का स्वभाव क्रोधी क्यों हो गया था ?
उत्तर :
लेखिका के पिता को बहुत बड़ा आर्थिक झटका लगा था। इस कारण उनकी नवाबी इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती थीं। महत्त्वाकांक्षाएँ अधूरी रह गई थीं। समाज में प्रतिष्ठित होने के बाद हाईपर आ गए थे। इस सब कारणों से लेखिका के पिता का स्वभाव क्रोधी हो गया था।

प्रश्न 2.
लेखिका के अवाक् होने का क्या कारण था ?
उत्तर :
कॉलेज के प्रिंसिपल ने लेखिका के पिता को अनुशासनात्मक कार्यवाही करने के लिए बुलाया था। लेखिका को लगा कि जब वे कॉलेज से लौटेंगे तो उन्हें बहुत डॉट पड़ेगी। किन्तु वहाँ से आने के बाद पिता ने उनकी प्रशंसा की इसलिए लेखिका अवाक रह गई।

प्रश्न 3.
लेखिका ने बचपन में कौन-कौन से खेल खेले थे?
उत्तर :
लेखिका ने बचपन में सत्तोलिया, लँगड़ी टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली टोलों जैसे खेल खेले थे। इसके अतिरिक्त गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाने का खेल खेला । भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा और पतंगें भी उड़ाई थी।

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प्रश्न 4.
लेखिका का अपने पिता के साथ संबंध कैसा था ?
उत्तर :
लेखिका का अपने पिता के साथ संबंध मधुर नहीं बल्कि कटुतापूर्वक था। दोनों के विचारों में भिन्नता थी जिसके कारण आए दिन उनमें वैचारिक टकराव हुआ करता था।

प्रश्न 5.
इन्दौर में रहते हुए लेखिका के पिता का जीवन कैसा था ?
उत्तर :
इन्दौर में लेखिका के पिता एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । वे समाज-सुधार के कार्यों में लगे रहते थे। वे कोरा उपदेश नहीं देते थे बल्कि कई छात्रों को अपने घर रखकर पढ़ाया भी था जिनमें कई तो ऊँचे-ऊंचे पदों पर कार्यरत हुए। उस समय उनकी दरियादिली के चर्चे भी बहुत थे।

प्रश्न 6.
‘मन्नू भंडारी की मा त्याग और धर्म की पराकाष्ठा थी-फिर भी लेखिका के लिए आदर्श न बन सकी।’ क्यों ?
उत्तर :
लेखिका की मां में कई विशेषताएँ थी फिर भी वे अपनी मां को अपना आदर्श नहीं माना क्योंकि लेखिका स्वयं स्वतंत्र विचारों की थी, वे अपने अधिकार और कर्तव्य समझती थीं । मा पिताजी की हर ज्यादती को अपना प्राप्य समझकर सहन करती थीं। माँ की असहाय मजबूरी में लिपटा उनका त्याग और सहनशीलता के कारण उन्होंने कभी भी माँ को अपना आदर्श नहीं माना ।

प्रश्न 7.
लेखिका के पिता का ध्यान लेखिका पर कब गया ?
उत्तर :
जब लेखिका की बड़ी बहन की शादी हो गई, वे अपने ससुराल कोलकाता चली गई तथा दोनों भाई पढ़ाई के लिए बाहर चले गए तब लेखिका को अपने वजूद का अहसास हुआ। उस समय लेखिका के पिता का ध्यान उन पर गया।

प्रश्न 8.
डॉ. अम्बालाल कौन थे ? उन्होंने लेखिका की तारीफ क्यों की ?
उत्तर :
डॉ. अंबालाल लेखिका के पिता के अभिन्न और.अंतरंग मित्र थे। वे अजमेर के अति सम्मानित व प्रतिष्ठित डॉक्टर थे। उन्होंने लेखिका के भाषण को सुना था अतः अपने मित्र को बधाई देने के लिए आए और लेखिका की तारीफ की।

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प्रश्न 9.
कॉलेज ने लेखिका समेत दो-तीन छात्राओं को क्यों प्रवेश-निषिद्ध कर दिया ?
उत्तर :
कॉलेज ने शीला अग्रवाल को लड़कियों को भड़काने और अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में नोटिस थमा दिया। इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे इसलिए थर्ड इयर की क्लासेज बंद कर दो-तीन छात्राओं को प्रवेश निषिद्ध कर दिया।

प्रश्न 10.
लेखिका के जीत की खुशी और चिर प्रतीक्षित खुशी में क्या अन्तर था ?
उत्तर :
लेखिका ने कॉलेज के बाहर रहकर इतना हुड़दंग मचाया कि कॉलेजवालों को थर्ड इयर की क्लास खोलनी पड़ी यह लेखिका की जीत की खुशी थी तथा सने 1947 में भारत अंग्रेजों से आजाद हुआ, यह चिर प्रतीक्षित खुशी थी।

प्रश्न 11.
सन् 1946-47 में देश में परिस्थिति कैसी थी और क्यों ?
उत्तर :
सन् 1946-47 के समय देश अत्यंत नाजुक स्थिति से गुजर रहा था। सभी भारतीय एकजुट होकर अंग्रेजों का सामना कर रहे थे। जगह-जगह प्रभात-फेरियां, हड़तालें, जुलूप तथा भाषण आदि हो रहे थे। युवावर्ग पूरे जोश तथा उत्साह से इसमें शामिल होता था। सभी शहरों में एक बवंडर मचा हुआ था।

दीर्घउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखिका की मां की क्या विशेषता थीं ? अपने शब्दों में लिखिए ।
अथवा
लेखिका ने अपनी माँ के बारे में क्या जानकारी दी ? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
लेखिका ने अपनी माँ के विषय में जानकारी देते हुए बताया कि वे पिता के स्वभाव से बिलकुल विपरीत थी। उनकी मां पढ़ी-लिखी नहीं थी। पिता द्वारा दिए जा रहे प्रताड़ना को चूपचाप सहती थीं। वे पिता की हर ज्यादती और अपने बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइश और जिद को अपना कर्तव्य समझकर पूरा करती थीं।

उनकी माँ ने जिंदगी भर अपने लिए कुछ नहीं मांगा। सबको हमेशा दिया ही। सभी भाई-बहन अपनी मा से सहानुभूति रखते थे। माँ के प्रति उनका लगाव था किन्तु लेखिका के अनुसार माँ की असहाय व मजबूरी में लिपटा उनका त्याग तथा उनकी सहनशीलता कभी भी लेखिका का आदर्श नहीं बन सका।

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प्रश्न 2.
दसवीं के बाद किताबों के सन्दर्भ में लेखिका में क्या बदलाव आया और क्यों ?
उत्तर :
दसवीं या उससे पहले लेखिका लेखक की रचनाओं के विषय में न जानते हुए भी उनकी पुस्तकें पढ़ती थी। सन् 1947 में लेखिका जब कॉलेज गई तो वहाँ उनकी मुलाकात हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुई। उन्होंने लेखिका को साहित्यजगत में प्रवेश कराया । चुनकर पुस्तकें पढ़ने को दी। साहित्यिक विचार-विमर्श कराया। पढ़ी हुई किताबों पर विचार-विमर्श किया।

इस प्रकार प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने साहित्यिक अभिरूचि की ओर प्रेरित कर चुनाव करके पढ़ने की ओर प्रेरित किया परिणामस्वरूप लेखिका ने किसी भी पुस्तक को न पढ़कर चुनी हुई किताबों को पढ़ना शुरू किया। इसके बाद तो उनका साहित्यिक दायरा बढ़ता गया, प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल, अशेय, भगवती चरण वर्मा की किताबों को पढ़ा । इस प्रकार लेखिका का साहित्यिक दायरा बढ़ता गया और चुनी हुई किताबों को पढ़ने की ओर प्रेरित हुई।

प्रश्न 3.
‘एक कहानी यह भी’ लेखिका के जीवन-संघर्ष और सफलता की कहानी है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखिका अपने ही घर में पिता द्वारा हीनभावना का शिकार होती हैं। स्वयं लेखिका काली थीं। उनकी बड़ी बहन गोरी और स्वस्थ थीं । पिताजी हमेशा बड़ी बहन की तारीफ करते थे। इस कारण लेखिका के मन में हीन भावना घर कर गई थी। पिताजी की परम्परागत निष्ठाओं के कारण पिता के विरोधों और क्रोध का सामना करना पड़ता है।

उन्हें अपने वजूद का एहसास तब हुआ जब उनकी बहन ससुराल चली गई और दोनों भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए। लेखिका और उनके पिता के बीच विचारों में मतभेद होने के कारण आए दिन टकराव हुआ करते थे। लेखिका के सफलता की कहानी कॉलेज की हिन्दी प्राध्यापिका के सम्पर्क में आने से शुरू हुई।

अध्यापिका ने ही उनकी साहित्यिक समझ को बढ़ाया जिसके कारण वे चुनी हुई किताबों को पढ़ने की ओर प्रेरित हुई और बाद में एक प्रतिष्ठित कथा लेखिका बन सकीं। हिन्दी अध्यापिका की ओजस्वी वाणी से प्रेरित होकर, उन्होंने अपने कॉलेज में वर्चस्व स्थापित किया, स्वाधीनता आन्दोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया। प्रभातफेरी, हुड़दंग, हड़ताल, भाषण आदि में बढ़चढ़ कर भाग लेती थीं।

यहाँ भी लेखिका का टकराव अपने पिता से होता था। वे चाहते थे कि बेटी स्वाधीनता के विषय में, राजनैतिक उलट फेर के विषय में जाने लेकिन घर की चार दीवारी में रहकर । लेखिका को ये मंजूर नहीं था। डॉ. अंबालाल जैसे अंतरंग मित्र से अपनी पुत्री की तारीफ सुन कर पिता गावित होते हैं। यों ‘एक कहानी यह भी’ में लेखिका ने अपने आत्म संघर्ष और सफलता की कहानी कही है।

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प्रश्न 4.
लेखिका के पिताजी के स्वभाव पर प्रकाश डालिए।
अथवा
लेखिका के पिताजी के विषय में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
लेखिका के पिताजी अति महत्त्वाकांक्षी और अहंवादी थे। वे यश और प्रतिष्ठा के भूखे थे। समाज में अलग पहचान बनाना चाहते थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। इसी महत्त्वाकांक्षा के कारण धन के अभाव में भी उन्होंने शब्दकोश का कार्य पूर्ण किया। अपने ही व्यक्तियों द्वारा विश्वासघात होने पर वे शकी स्वभाव के हो गए थे।

उनके इसी शकी स्वभाव के कारण लेखिका को कई बार वैचारिक टकराहट भी हुई थी। अपना क्रोध वे अपनी पत्नी पर निकालते थे। वे अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति सजग थे। दोनों लड़कों को पढ़ने के लिए उन्होंने बाहर भेजा था । मन्नू अर्थात् लेखिका की एक अलग पहचान बने इसलिए वे नहीं चाहते थे कि वह रसोई में जाकर खाना बनाए और अपनी प्रतिभा को नष्ट करें।

प्रश्न 5.
लेखिका के पिता अपनी बेटी पर क्यों आग बबूला हो गए ?
अथवा
भण्डारीजी के मित्र ने ऐसी क्या बात कह दी कि वे आग बबूला हो गए ?
उत्तर :
उस समय आजाद हिंद फौज के मुकदमें का सिलसिला था। सभी कॉलेजों, स्कूलों तथा दुकानों के लिए हड़ताल का माहौल था। छात्रों का समूह जा-जाकर हड़ताले करवा रहा था । युवा छात्र भाषणबाजी द्वारा इस कार्य को अंजाम दे रहे थे। शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी वर्ग चौपड़ पर इकट्ठा हुआ और घर आकर उन्होंने शिकायत की कि ‘उस मन्नू की तो मत मारी गई है…

न जाने कैसे उलटे-सीधे लड़कों के साथ हड़ताले करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह । हमारे आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज्जत-आबरू का ख्याल भी रह गया है आपको या नहीं ?’ यह सुनकर लेखिका के पिता आग बबूला हो गए और पूरे दिन इस आग में जलते रहे।

प्रश्न 6.
‘अध्यापक छात्र के चरित्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।’ इस कथन के आलोक में विचार त्यष्ट कीजिए।
अथवा
‘छात्र-जीवन में गुरु का विशेष महत्त्व होता है।’ पाठ के सन्दर्भ में अपने विचार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
छात्रों के जीवन में गुरु या अध्यापक का बहुत योगदान होता है। चाणक्य जैसे गुरु ने एक साधारण से बालक को मगध का सम्राट बना दिया इसे हम अच्छी तरह से जानते हैं। लेखिका की हिन्दी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल एक ऐसी ही अध्यापिका है जिन्होंने लेखिका के व्यक्तित्व को गढ़ने का प्रयास किया। शीलाजी ने न केवल अपने छात्रों को हिन्दी विषय पढ़ाया बल्कि उनकी साहित्यिक समझ को परिष्कृत किया।

उन्हें सही दिशा दिखाई। पुस्तकों का चुनाव करके पढ़ने के लिए प्रेरित किया। पढ़ी हुई पुस्तकों पर विचार-विमर्श करना सीखाया। इससे लेखिका की साहित्यिक परिधि का फैलावा हुआ। प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा जैसे विख्यात लेखकों की पुस्तकों को पढ़ा। आलोचनात्मक दृष्टि का विकास हुआ। यों आगे चलकर लेखिका हिन्दी की सुप्रसिद्ध कथाकार बनीं ।

अनेक देश-विदेश के पुरस्कारों से सम्मानित हुई । इतना ही नहीं शीला अग्रवाल ने स्वाधीनता आन्दोलन के लिए भी लेखिका को प्रेरित किया, उनके जोशीले भाषण के प्रभाव में आकर स्वयं लेखिका इस आन्दोलन में कूद गई। प्रभात फेरी, हड़ताल, जुलूस, भाषणबाजी में भी सक्रीय भूमिका निभाई । अत: अध्यापक छात्र के चरित्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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अर्थबोध सम्बन्धी प्रश्न :

1. जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो-मंजिला मकान से, जिसकी ऊपरी मंजिल में पिताजी का साम्राज्य था, जहां वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे ।

नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं । हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन मा… सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर । अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था। कोंग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे।

शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया है जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुंचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद कोधी अहंवादी।

प्रश्न 1.
लेखिका का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
लेखिका जा जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा गांव में हुआ था।

प्रश्न 2.
घर के ऊपरी मंजिले में पिताजी क्या करते रहते थे ?
उत्तर :
घर के ऊपरी मंजिले में जहाँ पिताजी का साम्राज्य था, वहाँ वे अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों – पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो पढ़ते रहते या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे।

प्रश्न 3.
लेखिका की माँ की विशेषता क्या थीं?
उत्तर :
लेखिका की माता अनपढ़ व व्यक्तित्वविहीन थीं। सवेरे से शाम तक सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञा का पालन करने के लिए तत्पर रहती थीं।

प्रश्न 4.
ओहदा और सिलसिला शब्द का अर्थ लिखिए।
उत्तर :
पद और क्रमवार

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प्रश्न 5.
लेखिका के पिता अजमेर से पहले कहाँ रहते थे ?
(क) भोपाल
(ख) इन्दौर
(ग) गोपालगंज
(घ) उदयपुर
उत्तर :
(ख) इन्दौर

2. पर यह सब तो मैंने केवल सुना । देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौंसले से अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था।

इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया । सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ।

नवाबी आदतें, अधूरी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कंपाती-थरथराती रहती थीं। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूंदकर सबका विश्वास करनेवाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था।

प्रश्न 1.
लेखिका के पिता का अहं किस बात की अनुमति नहीं देता था ?
उत्तर :
लेखिका के पिता का अहं इस बात की अनुमति नहीं देता था कि वे कम से कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विषमताओं का भागीदार बनाए।

प्रश्न 2.
लेखिका के पिता अपनी पत्नी पर क्रोध क्यों करते थे ?
उत्तर :
लेखिका के पिता अपनी नवाबी आदतें, अधूरी महत्त्वाकाक्षाएँ और हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकने के कारण अपनी पत्नी पर क्रोध करते थे।

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प्रश्न 3.
लेखिका के पिता बाद में शक्की क्यों हो गए?
उत्तर :
अपनों के हाथों विश्वासघात की गहरी चोटें लगने के कारण लेखिका के पिता का स्वभाव शक्की हो गया था।

प्रश्न 4.
लेखिका के पिता किस पर क्रोध उतारते थे ?
(क) लेखिका पर
(ख) उसके भाइयों पर
(ग) पड़ोस के लोगों पर
(घ) लेखिका की माँ पर
उत्तर :
(घ) लेखिका की मां पर

प्रश्न 5.
‘महत्त्वाकांक्षा’ शब्द का संधि-विच्छेद हैं :
(क) महत्त्वा + कांक्षा
(ख) महत्त्व + कांक्षा
(ग) महत्त्व + आकांक्षा
(घ) महत्त्व + अकांक्षा
उत्तर :
(ग) महत्त्व + आकांक्षा

3. पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव गान करना है बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूं कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया । मैं काली हूँ।

बचपन में दुबली और मरियल भी थीं। गोरा रंग पिता जी की कमजोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई ?

आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का जिक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पते के नीचे दबी इसी हीन-भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती, सबकुछ मुझे तुक्का ही लगता है।

प्रश्न 1.
बचपन में लेखिका कैसी थीं?
उत्तर :
बचपन में लेखिका काली, दुबली और मरियल थीं।

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प्रश्न 2.
लेखिका के पिताजी की क्या कमजोरी थी ?
उत्तर :
गोरा रंग लेखिका के पिता की कमजोरी थी।

प्रश्न 3.
किन कारणों से लेखिका के मन में हीन भावना पैदा हो गई ?
उत्तर :
लेखिका से दो साल बड़ी उनकी बहन सुशीला थीं जो गोरी, स्वस्थ और हंसमुख धौं । हर बात में उनकी तुलना बहन सुशीला से होती थीं, फिर उनकी ही तारीफ होती थी। इस कारणों से लेखिका के मन में हीन भावना पैदा हो गई।

प्रश्न 4.
लेखिका अपनी उपलब्धियों पर भरोसा क्यों नहीं कर पाती थीं ?
उत्तर :
अचेतन मन में दबी हीन भावना के कारण ही लेखिका अपनी उपलब्धियों पर भरोसा नहीं कर पाती थीं। 5. ‘लेखकीय’ शब्द में प्रत्यय हैं :
(क) कीय
(ख) इय
(ग) ईय
(घ) य
उत्तर :
(ग) ईय

4. पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं । सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी एक धुंधली-सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले – सतोलिया, लंगड़ी-टांग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो… तो कमरों में गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए, पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ ।

यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर । हाँ, इतना जरूर था कि उस जमाने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थी इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे।

प्रश्न 1.
सबसे बड़ी बहन की शादी में लेखिका कितने साल की थी ?
उत्तर :
सबसे बड़ी बहन की शादी में लेखिका सात साल की थीं।

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प्रश्न 2.
लेखिका द्वारा बचपन में खेले गए खेल कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
लेखिका द्वारा बचपन में खेले गए खेल हैं – सतोलिया, लँगड़ी टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली टोलो और गुड़े-गुड़ियों का खेल । इसके अतिरिक्त गिल्ली डंडा का खेल खेला और पतंगें भी उड़ाई।

प्रश्न 3.
लेखिका के समय में घर की दीवारें कहाँ तक फैली थीं ?
उत्तर :
लेखिका के समय में घर की दीवारें घर तक नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले तक फैली थीं। इसलिए मुहल्ले के किसी भी घर में जाने की पाबंदी नहीं थी।

प्रश्न 4.
भाई-बहन और गिल्ली-डंडा में कौन-सा समास हैं?
उत्तर :
भाई-बहन – भाई और बहन – द्वन्द्व समास गिल्ली डंडा – गिली और डंडा – द्वन्द्व समास है।

5. उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यती थी – उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक । सन् 44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्र-छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वजूद का एहसास हुआ।

पिताजी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केन्द्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे, पिताजी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं।

प्रश्न 1.
लेखिका के परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता क्या थी ?
उत्तर :
लेखिका के परिवार में उस समय लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थीं – सोलह वर्ष की उम्र और मैट्रिक तक की शिक्षा।

प्रश्न 2.
लेखिका को अपने वजूद का एहसास कब हुआ?
उत्तर :
लेखिका की बहन सुशीला की शादी हो गई और वह कोलकत्ता चली गई तथा दोनों भाई आगे की पढ़ाई के लिए बाहर चले गए तब लेखिका को अपने वजूद का एहसास हुआ।

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प्रश्न 3.
लेखिका के पिताजी रसोई को भटियारखाना क्यों कहते थे ?
उत्तर :
लेखिका के पिता के अनुसार रसोई बनाना यानी अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकने के समान था इसलिए वे रसोई को भटियारखाना कहते थे।

प्रश्न 4.
‘कुशल’ तथा ‘सुघड़’ शब्द का विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर :
कुशल × अकुशल तथा सुघड़ × अनगढ़ विलोम शब्द हैं।

6. सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी खास समझ के घर में रहनेवाली बहसें सुनती थी और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् 45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं ‘फर्स्ट इयर’ में आई, हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ।

सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल… जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला… खुद चुन चुनकर किताबें दी… पढ़ी हुई किताबों पर बहसें की तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज वाक्योंवाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था।

‘सुनीता’ (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा था, अज्ञेय जी का उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ पढ़ा जरूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था, कुछ सालों बाद ‘नदी के द्वीप’ पढ़ा तो उसने मन को इस कदर बाँधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई … इस बार कुछ समझ के साथ ।

वह शायद मूल्यों के मंथन का युग था… पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिह्न ही नहीं लग रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी संदर्भ में जैनेंद्र का ‘त्यागपत्र’, भगवती बाबू का ‘चित्रलेखा’ पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी-लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा।

प्रश्न 1.
लेखिका को साहित्य की दुनिया में प्रवेश कराने का श्रेय किसे जाता है ?
उत्तर :
लेखिका को साहित्य की दुनिया में प्रवेश कराने का श्रेय उनकी फर्स्ट ईयर की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल को जाता है।

प्रश्न 2.
शीला अग्रवाल ने लेखिका की साहित्यिक समझ को कैसे विकसित किया ?
उत्तर :
शीला अग्रवाल ने मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला… खुद चुन-चुनकर किताबें दीं, पढ़ी हुई किताबों पर बहसें की। इस प्रकार लेखिका की साहित्यिक समझ विकसित होती गई।

प्रश्न 3.
लेखिका ने उस समय किन-किन साहित्यकारों को पढ़ा ?
उत्तर :
लेखिका ने उस समय शरत, प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवती चरण वर्णा, अज्ञेय आदि को पढ़ा।

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प्रश्न 4.
बाकायदा शब्द में से उपसर्ग अलग कीजिए।
उत्तर :
बाकायदा शब्द में ‘बा’ उपसर्ग लगा है।

7. यश-कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत की व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए… कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी।

एक बार कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएं कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए ?…. पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला। “यह लड़की मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रखेगी… पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर!” चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।”

गुस्से से भनाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरसा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुवार निकल जाए, तब बुलाना । लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही है, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते।

प्रश्न 1.
लेखिका के पिता की क्या दुर्बलता थीं ?
उत्तर :
लेखिका के पिता की यह दुर्बलता थी और उनके जीवन की धूरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बनकर जीना चाहिए। कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो ।

प्रश्न 2.
लेखिका के पिता को कॉलेज के प्रिंसिपल ने पत्र क्यों लिखा ?
उत्तर :
लेखिका की गतिविधियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने के लिए कॉलेज के प्रिंसिपल ने लेखिका के पिता को पत्र लिखा।

प्रश्न 3.
पत्र पढ़ते ही क्रोधित पिता ने लेखिका के विषय में क्या कहा ?
उत्तर :
पत्र पढ़ते ही लेखिका के पिता क्रोधित हो गए और उन्होंने कहा कि- ‘यह लड़की कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रखेगी। पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर । चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।’

प्रश्न 4.
दुर्बलता तथा विशिष्ट शब्द का विलोम लिखिए।
उत्तर :
दुर्बलता × सबलता तथा विशिष्ट × सामान्य विलोम शब्द है।

8. इस सबसे बेखबर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के एक बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालालजी बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, आओ, आओ मन्नू । मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया।

‘आई एम रिअली प्राउड ऑफ यू…’ क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी… घर से निकला भी करो। ‘यु हैव मिस्ड समथिंग’, और वे धुआंधार तारीफ करने लगे – वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दोपहर के गुस्सेवाली बात बताई तो मैंने राहत की सांस ली।

प्रश्न 1.
घर लौटने पर लेखिका के पिताजी के साथ कौन बैठा था ?
उत्तर :
घर लौटने पर लेखिका के पिताजी के साथ उनके बेहद अंतरंग अभिन्न मित्र तथा अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालालजी बैठे थे।

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प्रश्न 2.
लेखिका को देखते ही अंबालालजी ने क्या किया?
उत्तर :
लेखिका को देखते ही अंबालाल ने गर्म जोशी के साथ उनका स्वागत करते हुए कहने लगे- “आओ, आओ मन्नू । मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण
सुनते ही सीधा भंडारीजी को बधाई देने चला आया। आई एम रिअली प्राउड ऑफ यू।”

प्रश्न 3.
बेटी की तारीफ सुनकर लेखिका के पिता में क्या बदलाव आया?
उत्तर :
लेखिका के पिता बहुत गुस्से में थे किन्तु जब उन्होंने अपने अंतरंग मित्र से मन्नू की तारीफ सुनी तो गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो गया और चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलते जा रहा था।

प्रश्न 4.
‘अंतरंग’ और ‘संतोष’ का विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर :
अंतरंग × बहिरंग तथा संतोष × असंतोष विलोम शब्द है।

अति लघुत्तरी प्रश्न (विकल्प सहित)

प्रश्न 1.
लेखिका के पिता इन्दौर से अजमेर क्यों आ गए थे?
(क) तबादला होने के कारण
(ख) शौख के कारण
(ग) आर्थिक झटके के कारण
(घ) पैतृक सम्पत्ति के कारण
उत्तर :
(ग) आर्थिक झटके के कारण

प्रश्न 2.
अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं, बढ़ती अभावग्रस्तता का क्रोध किस पर उतरता था ?
(क) लेखिका की बहन पर
(ख) लेखिका की मां पर
(ग) लेखिका के भाइयों पर
(घ) लेखिका पर
उत्तर :
(ख) लेखिका की मां पर

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प्रश्न 3.
लेखिका की माँ उसके पिता के ठीक विपरीत थीं, का आशय क्या है ?
(क) उनके स्वभाव और गुणों में बहुत अंतर था।
(ख) बच्चों की पढ़ाई पर वे एकमत न थे।
(ग) अजमेर में रहते हुए वे झगड़ते थे।
(घ) दोनों के स्वभाव मेल नहीं खाते थे।
उत्तर :
(क) उनके स्वभाव और गुणों में बहुत अंतर था

प्रश्न 4.
लेखिका की माँ अपना कर्तव्य किसे समझती थीं?
(क) बच्चों की जरूरतें पूरी करना
(ख) बच्चों को अच्छी शिक्षा देना
(ग) बच्चों का पालन-पोषण करना
(घ) बच्चों की अच्छी-बुरी मांग और जिद् को पूरी करना
उत्तर :
(घ) बच्चों की अच्छी बुरी माँग और जिद को पूरी करना

प्रश्न 5.
शेखर : एक जीवनी किसकी रचना है?
(क) जैनेन्द्र
(ख) अज्ञेय
(ग) प्रेमचंद
(घ) यशपाल
उत्तर :
(ख) अज्ञेय ।

उपसर्ग तथा प्रत्यय अलग करके लिखिए :

शब्द – उपसर्ग – प्रत्यय – मूलशब्द

  • अव्यवस्थित – अ – इत – व्यवस्था
  • संवेदनशील – सम् – शील – वेदना
  • सकारात्मक – स – आकार – आत्मक

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संधि-विच्छेद कीजिए :

  • सकारात्मक – सकार + आत्मक
  • महत्त्वाकांक्षा – महत्त्व + आकांक्षा
  • किशोरावस्था – किशोर + अवस्था
  • अंतविरोध – अंत: + विरोध
  • युवावस्था – युवा + अवस्था

सविग्रह समास भेद बताइए :

  • पितृ-गाथा – पितृ (पूर्वजों) की गाथा – तत्पुरुष समास
  • हीन-भाव – हीनता का भाव – तत्पुरुष समास
  • पैतृत-पुराण – पितृ (पूर्वजों) की गाथा – तत्पुरुष समास
  • भाव-भंगिमा – भाव और भंगिमा – द्वंद्व समास
  • पाक-शास्त्री – पाकशास्त्र में निपुण – तत्पुरुष समास
  • पाप-पुण्य – पाप और पुण्य – द्वंद्व समास
  • सही-गलत – सही या गलत – द्वंद्व समास
  • नैतिक-अनैतिक – नैतिक या अनैतिक – द्वंद्व समास
  • प्रभात-फेरियाँ – प्रभात में की जानेवाली फेरियाँ – तत्पुरुष समास
  • यश-कामना – यश की कामना – तत्पुरुष समास
  • यश-लिप्सा – यश की लिप्सा – तत्पुरुष समास
  • डाँट-डपटकर – डाँट और डपटकर – द्वंद्व समास
  • जो-जो-जो और जो – अव्ययी भाव
  • धीरे-धीरे – धीरे और धीरे – अव्ययी भाव
  • विद्यार्थी-वर्ग-विद्यार्थियों का वर्ग – तत्पुरुष समास
  • मान-मर्यादा – मान और मर्यादा – द्वंद्व समास
  • इज्जत-आबरू -इज्जत और आबरू – द्वंद्व समास
  • सहनशक्ति – सहन करने की शक्ति – तत्पुरुष समास

विशेषण बनाइए :

  • खुशहाली – खुशहाल
  • दरियादिली – दरियादिल
  • विश्वासघात – विश्वासघाती
  • लेखक – लेखकीय
  • भिन्नता – भिन्न
  • फरमाइश – फरमाइशी
  • असहायता – असहाय
  • सहिष्णुता – सहिष्णु
  • सीमा – सीमित
  • पाकशास्त्र – पाकशास्त्री
  • राजनीति – राजनैतिक
  • जोश – जोशीला
  • अनुशासन – अनुशासित
  • प्रतीक्षा – प्रतीक्षित

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विलोम शब्द लिखिए :

  • बेखबर × खबरदार
  • मान × अपमान
  • आधुनिकता × परंपरागत/प्राचीनता
  • उपस्थिति × अनुपस्थिति
  • नैतिक × अनैतिक
  • विरोध × समर्थन
  • सुखद × दु:खद
  • आरंभिक × अंतिम
  • खंडित × अखंड
  • विस्फारित × संकुचित
  • खुशहाली × बदहाली
  • अव्यवस्थित × व्यवस्थित
  • संवेदनशील × संवेदनहीन
  • सकारात्मक × नकारात्मक
  • आर्थिक × अनार्थिक
  • अव्यवस्थित × व्यवस्थित
  • भिन्नता × अभिन्नता
  • अचेतन × चैतन्य

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लेखक – परिचय :

हिन्दी साहित्य की सुप्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भण्डारी का जन्म सन् 1931 में भानपुरा गाँव, जिला मंदेसौर (म.प्र.) में हुआ। राजस्थान के अजमेर शहर में इन्होंने इन्टर तक की शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी में एम.ए, करने के बाद दिल्ली में मिरांडा हाउस में अध्यापन कार्य किया। वहाँ से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् ये स्वतंत्र रूप से लेखनकार्य कर रही हैं। कुछ समय तक इन्होंने प्रेमचंद सृजनपीठ की निर्देशिका के पद पर भी काम किया।

मन्नूजी कहानी और उपन्यास दोनों ही विद्याओं में समान रूप से लिखती रही हैं। इन्होंने नारी-जीवन की विभिन्न समस्याओं और उनसे जुड़े अछूते पहलुओं को अपनी रचनाओं में उद्घाटित किया है। स्त्री-पुरुष संबंधों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है। एक प्लेट सैलाब’, ‘मैं हार गई,’, ‘यही सच है,’ ‘त्रिशंकु’ इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं तो आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

मन्नू भण्डारी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए हिन्दी अकादमी के शिखर सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं जिनमें, भारतीय | भाषा परिषद, कोलकता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पुरस्कार शामिल है। नई कहानी आन्दोलन में इनकी प्रमुख भूमिका रही है। इनकी रचनाओं में सड़ी-गली, परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह के स्वर सुनाई देते हैं।

इनके कथा साहित्य में भाषा और शिल्प की ताजगी व प्रामाणिक अनुभूति मिलती है। प्रस्तुत पाठ ‘एक कहानी यह भी’ मन्नूजी की आत्मकथा का अंश है। इसमें लेखिका ने किशोर मन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है। इनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में इन दोनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

लेखिका ने एक सामान्य लड़की से प्रतिष्ठित लेखिका बनने के विभिन्न पड़ावों को प्रकट किया है। सन् 1946-47 की आजादी की आँधी ने इनके व्यक्तित्व को प्रभावित किया। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी सक्रिय भूमिका निभाई । प्रस्तुत पाठ में मन्नूजी का उत्साह, ओज, नैतृत्व क्षमता और विरोधी प्रकृति देखने को मिलता है।

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पाठ का सार (भाव) :

बचपन की यादें : लेखिका के अनुसार उनका जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था। अजमेर की यादें ताजा करते हुए वे बताती है कि जहाँ उनके पिता रहते थे, वहाँ अव्यवस्थित रूप से फैली पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं के बीच उनके पिता कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे या डिक्टेशन देते रहते थे। पिताजी की आज्ञाओं और सबकी इच्छाओं का पालन करती हुई उनकी बेपढ़ी मां रहती थी।

अजमेर से पहले इन्दौर में जहाँ उनके पिता रहते थे, वहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। वे कोंग्रेस के साथ सुधार कार्यों में लगे रहते थे। वे केवल शिक्षा के उपदेश न देकर विद्यार्थियों को अपने घर पढ़ाया करते थे। इस तरह उनके उदार दिल की चर्चा होती थी। वे एक ओर कोमल और संवेदनशील थे तो दूसरी ओर अत्यंत क्रोधी और अहंवादी थे।

पिता की बिगड़ती आर्थिक स्थिति : आर्थिक संकट के कारण लेखिका के पिताजी इन्दौर से अजमेर आ गए। यहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश (विषयवाद) के अधूरे कार्य को पूरा किया, जिससे पिताजी को यश-प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई किन्तु अर्थ (पैसा) नहीं मिला । बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति ने उन्हें हाशिए पर ला दिया।

फिर भी वे इस बात का ध्यान रखते कि आर्थिक विषमता का प्रभाव बच्चों पर न पड़े। दूसरी ओर अभावों की ओर खिसकते जाने के कारण उत्पन्न क्रोध माँ पर बरसता । अपनों के कारण धोखा खाने के बाद पिताजी का स्वभाव शक्की हो गया था। इतना शकी की उसकी चपेट में स्वयं लेखिका भी आ जाती थीं।

लेखिका के व्यक्तित्व पर पिता की छाप : लेखिका बताती हैं कि पिताजी के अनजाने, अनचाहे व्यवहार ने मेरे अंदर हीन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। गोरा रंग पिताजी की कमजोरी थी। मैं काली थी और मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, बहिन सुशीला से मेरी हर बात में तुलना करते हुए उसकी प्रशंसा करते थे, जिससे लेखिका के मन में हीन भाव की ग्रंथि पैदा हो गई ।

नाम, सम्मान, प्रतिष्ठा पाने के बावजूद वे आज तक इससे ऊपर नहीं पाई । यही कारण है कि हीन भावना के रहते अपनी किसी उपलब्धि पर वे भरोसा नहीं कर पाई। आज भी शक्की स्वभाव की झलक वे अपने भीतर महसूस कर सकती हैं। वह अतीत आज भी भीतर जड़ जमाए बैठा है।

लेखिका और उनकी मां : लेखिका की माँ उनके पिता के स्वभाव से एकदम विपरीत थी । उनमें धैर्य और सहनशक्ति अपेक्षा से अधिक थी। पिताजी की हर ज्यादती को अपना भाग्य व बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइश और जिद को सहजभाव से पूरा करती थीं। उन्होंने जिंदगी भर अपने लिए कुछ नहीं मांगा और न चाहा, केवल दिया ही । सभी भाई-बहनों का लगाव सहानुभूति के कारण उन्हीं के प्रति था। इतने पर भी उनका त्याग, उनकी सहिष्णुता लेखिका का आदर्श न बन सका।

पड़ौस कल्चर : लेखिका याद करती हैं कि उनके समय में घर की दीवारें पड़ोस तक फैली रहती थीं । सभी परिवार के हिस्से होते थे। बचपन में खेले जानेवाले खेल की सौमा परिवार की दीवारें थीं और यह सीमा सम्पूर्ण पड़ोस तक जाती थी। अपने बचपन के समय के पड़ोस कल्चर को याद कर महानगरों के फ्लेट कल्चर को देख वे पहले के समय के पड़ोस कल्चर को अच्छा बताती हैं। उनकी अपनी कहानियों के पात्र वे ही हैं जिनके साथ

किशोरावस्था की यादें जुड़ी हैं। इतने वर्ष बीत जाने पर भी उनकी भाव-भंगिमा, उनकी भाषा बिना किसी प्रयास के सहज भाव से कहानियों में उतरते चले गए । लेखिका बताती हैं कि उस समय के दो साहब ‘महाभोज’ में इतने वर्षों के बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय था।

अपने वजूद का एहसास : लेखिका बताती हैं कि बड़ी बहन की शादी हो जाने तथा दोनों बड़े भाइयों के पढ़ाई के लिए बाहर चले जाने पर उसे अपने वजूद का एहसास हुआ। पिताजी का ध्यान पहली बार उन पर केन्द्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनने के नुस्खे जुटाए जाते थे, उनके पिता का आग्रह रहता कि वे रसोई से दूर रहें।

घर में आए दिन राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं । लेखिका जब वहाँ चाय-पानी देने जाती तो पिताजी का आग्रह रहता कि वे वहीं बैठें। उस समय लेखिका को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ, उनके आपसी विरोध या मतभेद की समझ नहीं थीं पर क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण, उनकी कुबानियों से जरूर मन आक्रांत रहता था।

प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से मिली प्रेरणा : कॉलेज के प्रथम वर्ष में लेखिका की मुलाकात शीला अग्रवाल से हुई। इन्होंने ही साहित्य-संसार में प्रवेश करने की प्रेरणा दी। इसके बाद लेखिका एक के बाद एक शरत्, प्रेमचंद्र, जैनेन्द्र, अज्ञेय यशपाल, भगवती चरणवर्मा के साहित्य को पढ़ती गई और शीला अग्रवाल से बहस (साहित्य चर्चा) करती हुई उस उम्र में जितना समझ सकती थीं, उन्होंने समझा।

देश की स्थितियों को जानने समझने का जो सिलसिला पिताजी ने शुरू किया था उसे शीला अग्रवालजी ने सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। वैसे भी सन् 46-47 के दिनों में घर बैठे रहना संभव न था। प्रभात फेरियां, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चित्र था और पूरे दमखम के साथ इनसे जुड़ना हर युवा का उन्माद था ।

लेखिका भी उस समय युवा थी अत: शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते हुए खून को लावे में बदल दिया । एक ओर शहर में बवंडर मचा हुआ था वहीं दूसरी ओर लेखिका के घर में भी। वे हड़ताल करवाती, नारे लगवाती, सड़कें नापती, यह सब उनके पिताजी को अच्छा नहीं लगता था, वे पिताजी के क्रोध की चिंता किए बिना उनसे बहस करती, फिर यह सिलसिला हो गया। राजेन्द्र से शादी करने तक यह सिलसिला चलता रहा।

अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए पत्र : लेखिका के कॉलेज से पिताजी के नाम पत्र आया कि वे आकर मिलें और बताएं कि वे मेरी गतिविधियों के कारण अनुशासनात्मक कार्यवाही क्यों न की जाए ? पत्र पढ़ते ही पिता आग बबूला हो गए। कहने लगे यह लड़की मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी। गुस्से से भनभनाते हुए गए थे। लेखिका डर के कारण पड़ोस के घर में जाकर बैठ गई थीं। लौटकर आए तो खुश थे।

कहाँ तो पिताजी जाते समय मुंह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की आवाज है…. इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है। बैहंद गद्गद् होकर पिताजी सुनाते रहें और वे (लेखिका) अवाक् थीं। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

पिताजी के दो मित्र और चर्चा के केन्द्र में मैं लेखिका बताती हैं कि एक बाबू आज़ाद हिंद फौज के मुकदमें के सिलसिले में कॉलेजों, स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आह्वान था। छात्रों का एक समूह लोगों को हड़ताल के लिए प्रेरित कर रहा था। अजमेर के चौपड़ बाजार पर विद्यार्थी इकट्ठे होकर भाषणबाजी कर रहे थे। इसी बीच पिताजी के एक दकियानूस मित्र ने आकर उनसे मेरे बारे में कुछ बातें – ‘मन्नू की मत मारी गई हैं, हड़ताले करवा कर हुड़दंग मचा रही है…’ कहकर चले गए। वे तो आग लगाकर चले गए।

पिताजी सारे-सारे दिन क्रोधित होते रहे। इस सबसे बेखबर मैं घर लौटी तो पिताजी के बेहद अंतरंग मित्र और अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालालजी बैठे थे, उन्होंने मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया। मैं तो चौपड़ बाजार में तुम्हारा भाषण सुनते ही भण्डारीजी को बधाई देने चला आया था।’ वे धुंआधार तारीफ करते जा रहे थे, पिताजी के चेहरे पर गर्व के भाव आते जा रहे थे । भीतर जाने पर माने गुस्सेवाली बात बताई तो मैंने राहत की सांस ली।

शिला अग्रवाल के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही : कॉलेज प्रशासन ने एक ओर लड़कियों को भड़काने और कॉलेज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में शीला अग्रवाल को मह 47 में नोटिस थमा दिया तो दूसरी ओर कॉलेज में हुड़दंग न मचे इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज बंद करके दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया। फिर तो कॉलेज के बाहर रहकर उड़दंग मचाया । कॉलेजवालों ने अगस्त में थर्ड इयर खोल दिया । जीत की खुशी हुई परन्तु चिर प्रतीक्षित खुशी के सामने यह खुशी कम थी। चिर प्रतीक्षित खुशी थी- 15 अगस्त, 1947 की खुशी।

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शब्दार्थ और टिप्पण :

  • सिलसिला – क्रमानुसार
  • निहायत – एकदम
  • ओहदा – पद
  • अहंवादी – घमंडी
  • भग्नावशेष – खंडहर (टूट-फूटे हिस्से)
  • दरियादिली – दयालु, परोपकार की भावना
  • बल-बते – सामर्थ्य
  • विस्फारित – और अधिक फैलना
  • हाशिए पर – किनारे पर
  • ग्रंथि – गाठ
  • हीनभाव – अपने को छोटा समझना
  • तुक्का से – भाग्य या संयोग से
  • भन्ना जाना – क्रोधित होना
  • व्यथा – कष्ट
  • आसन्न – अति समीप
  • ज्यादती – अत्याचार
  • फरमाइश – इच्छा
  • दायरा – सीमा
  • विच्छिन्न – अलग-अलग करना
  • दमखम – पूरी ताकत
  • निषिद्ध – प्रवेश न देना
  • वर्चस्व – दबदबा
  • दकियानूसी – पुराने विचारों का समर्थक
  • अंतरंग – आत्मीय
  • चिर प्रतीक्षित – लम्बे समय से जिसका इंतजार हो
  • बिला जाना – खो जाना

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महावरों के अर्थ:

  1. आग बबूला होना – अत्यधिक गुस्सा होना।
  2. विश्वासघात करना – धोखा देना।
  3. थू-थू करना – अनुचित काम करने पर थित्कारना
  4. आग लगाकर – भड़का कर, झगड़ा लगाना

वाक्य प्रयोग :

  1. रमेश के परीक्षा में कम अंक आने पर उसके पिता आग बबूला हो उठे।
  2. नौकर मालिक के साथ विश्वासघात करके नौ लाख रुपये लेकर भाग गया।
  3. राजनरंजन की करनी पर सारा गाँव थू-थू करने लगा।
  4. जबसे बुआजी ने आग लगाई, दोनों भाइयों के बीच दरार बढ़ती जा रही है।

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