Gujarat Board GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 20 आओ, मिलकर बचाएँ Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 20 आओ, मिलकर बचाएँ
GSEB Class 11 Hindi Solutions आओ, मिलकर बचाएँ Textbook Questions and Answers
अभ्यास
कविता के साथ :
प्रश्न 1.
‘माटी का रंग’ प्रयोग करते हुए किस बात की ओर संकेत किया गया है ?
उत्तर :
कवयित्री ने ‘माटी का रंग’ प्रयोग करके स्थानीय विशेषताओं को उजागर करना चाहा है। संथाल की परगना की माटी का रंग बचाने से आशय है यहाँ का खान-पान, वहाँ की वेश-भूषा, वहाँ की तीज-त्यौहार, यहाँ के रीति-रिवाज, लोगों में जुझारूपन, अक्खड़ता, नाच-गान, सरलता आदि विशेषताएँ जमीन से जुड़ी हैं। कवयित्री चाहती हैं कि आधुनिकता के चक्कर में हम अपनी संस्कृति को हीन न समझें। हमें अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए।
प्रश्न 2.
भाषा में झारखंडीपन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
इसका अभिप्राय है – झारखंड की भाषा की स्वाभाविक बोली, उनका विशिष्ट उच्चारण। भाषा में झारखण्डी-पन को बचाने की बात कवयित्री इसलिए करती हैं कि भाषा संस्कृति की वाहक होती है। भाषा बचेगी तो आदिवासी अस्मिता बचेगी। भाषा आदिवासियों के गौरव, स्वाभिमान और अस्मिता का प्रतीक है।
प्रश्न 3.
दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने की आवश्यकता पर क्यों बल दिया गया है ?
उत्तर :
दिल का भोलापन सच्चाई और ईमानदारी के लिए जरूरी है, परंतु हर समय भोलापन ठीक नहीं होता। भोलेपन का फायदा उठानेवालों के साथ अक्खड़पन दिखाना भी जरूरी है। अपनी बात को मनवाने के लिए अकड़ भी होनी चाहिए। साथ ही कर्म करने की प्रवृत्ति भी आवश्यक है। अतः कवयित्री भोलेपन, अक्खड़पन व जुझारूपन – तीनों गुणों को बचाने की आवश्यकता पर बल देती हैं।
प्रश्न 4.
प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की किन बुराइयों की ओर संकेत करती है ?
उत्तर :
इस कविता में आदिवासी समाज में जड़ता, काम से अरुचि, बाहरी संस्कृति का अंधानुकरण, शराबखोरी, अकर्मण्यता, अशिक्षा अपनी भाषा से अलगाव, परंपराओं को पूर्णतः गलत समझना आदि बुराइयाँ आ गई हैं। आदिवासी समाज स्वाभाविक जीवन को भूलता जा रहा है।
प्रश्न 5.
इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है से क्या आशय है ?
उत्तर :
कवयित्री समग्र मानव जाति को आह्वान करती है कि इस दौर में भी हमारे पास बहुत कुछ बचा है, अब भी बचाने के लिए ‘ जिसे हर कीमत पर बचाये जाये। यहाँ दो शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है – ‘इस दौर में भी’ और ‘बहुत कुछ’। इस दौर में भी वाक्यांश का कवयित्री ने सोद्देश्य प्रयोग किया है, क्योंकि वैश्वीकरण और बाजारीकरण के इस दौर में हमनें हर चीज को उत्पाद्य वस्तु और मानवीय संबंध को सौदा बना लिया है।
हर व्यक्ति को उपभोक्ता बना लिया है जिससे लाभ या मुनाफे की ही कामना की जा रही है – फिर वह माँ-बाप या अन्य करीबी संबंध ही क्यों न हो ! मगर ऐसे उपभोक्तावादी दौर में कवयित्री को ऐसा बहुत कुछ दिखता है, जिसे बचाया जा सकता है और दुनिया को जीने लायक बनाया जा सकता है। इस ‘बहुत कुछ’ में जल, जमीन और जंगल का संरक्षण, पर्यावरण का जतन, मानवीय विश्वास, उनकी टूटती उम्मीदों को जीवित करना और छोटे-छोटे सपने आदि कई चीजों का समावेश होता है। इन्हें बचाना बेहद जरूरी है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य सौंदर्य को उद्घाटित कीजिए।
क. ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
संदर्भ : प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित ‘आओ मिलकर बचाएँ’ नामक कविता से ली गई हैं। ‘ व्याख्या : प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने आज के दौर में मशीनी जीवन जीनेवाले इंसान जो कि घड़ी की सूई की तरह दौड़ा ही करते हैं – एक बंधे बँधाये दर्रे के साथ। जिनके जीवन में कोई उल्लास या ताजगी नहीं। वहीं आदिवासियों के जीवन कठोर श्रमशीलता के साथ जीवन की गर्माहट भी है। अर्थात् रात को फुरसत के समय ये लोग खुले आसमान के नीचे प्रकृति के रम्य प्रांगण में समूह नृत्य-गान वादन करते हुए जीवन का खरा आनंद भी उठाते हैं।
ख. थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोड़े-से सपने
आओ, मिलकर बचाएँ।
सन्दर्भ : प्रस्तुत काव्यपंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ नामक कविता से ली गई है। व्याख्या : कवयित्री ने समग्र मानव जाति के कल्याण और सुखकारी के लिए, धरती को रहने लायक और उसमें जीनेलायक बनाये रख्नने के लिए जो कुछ भी बचाने लायक है, उसे बचाने की बात कही है।
कवयित्री के मतानुसार अब भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे बचाया जा सकता है और बचाने की अनिवार्यता है। आज चारों ओर अविश्वास फैला हुआ है। व्यक्ति अपनी ही परछाईयों से डर रहा है। ऐसे में थोड़ा-सा विश्वास बचाये रखने की आवश्यकता है – आवश्यकता है दूसरों का विश्वास अर्जित करने की और अपना विश्वास संपादित करने की।
आज मनुष्य तमाम प्रकार की नाकामियों से, व्यवस्थातंत्र के भ्रष्ट आचरण के कारण नाउम्मीद हो गया है, उसके सपने मर गये हैं। सपनों का मर जाना सबसे खतरनाक है, अतः कवयित्री ने इस उम्मीद और छोटे-छोटे सपनों को बचाये रखने की प्रथम आवश्यकता है।
प्रश्न 7.
बस्तियों को शहर की किस आबो-हवा से बचाने की आवश्यकता है ?
उत्तर :
आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपने (आदिवासी) इलाके में हो रही अन्य लोगों की घुसपैठ पर अपनी चिन्ता व्यक्त की है। शहर की आबोहवा से बचाने का तात्पर्य है – आदिवासी सभ्यता – संस्कृति, उनकी भाषा, बोली, तीज-त्यौहार, खान-पान, वेशभूषा आदि पर हमला।
उनके भोलेपन की जगह चालाकी, सहज-सरलता की जगह आडंबर और निश्छलता की जगह कपटपूर्ण व्यवहार, बस्तियों को शहर की नग्नता व जड़ता से बचाने की जरूरत है, वनस्पति विहीन नग्नता से बचाने का प्रयास, शहरी जिंदगी में उमंग, उत्साह व अपनेपन का अभाव होता है, शहर के लोग अलगाव भरी जिंदगी व्यतित करते हैं। इन सभी से बस्तियों को बचाने की बात कवयित्री करती हैं।
कविता के आस-पास
प्रश्न 1.
आप अपने शहर या बस्ती की किन चीजों को बचाना चाहेंगे ?
उत्तर :
खेल के मैदान, बाग-बगीचे, सड़कों को चोड़ी करने के बहाने बड़े बड़े पेड़ों को काट दिये जाते हैं, जिन्हें बचाना बेहद जरूरी है। विभिन्न प्रकार की चिड़िया जो धीरे-धीरे गायब होती जा रही हैं, उन्हें बचाने की कोशिश करेंगे। शहरों के तालाब, पुरातत्वीय ईमारत, पुरानी या प्राचीन ऐतिहासिक स्थल एवं ईमारतों को बचाना चाहेंगे।
पानी के व्यर्थ दुरुपयोग को बचाना चाहेंगे। शाला, कॉलेज, मंदिर आदि के प्रांगण या परिसर में फर्श सिमेंट की बनाई जा रही है। जिस पर रोक लगाकर खुली जमीनवाला परिसर रखना चाहिए जिससे मिट्टी की सौंधी सुगंध ले सकेंगे और पेड़-पौधों की जड़ों में जल पहुँचेगा। फैशन के नाम पर पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण से बचाना चाहेंगे। शहरों में टूटते संयुक्त परिवार को बचाना चाहेंगे। वायु, जल, ध्वनि आदि पर्यावरणीय प्रदूषणों से बचाना चाहेंगे।
प्रश्न 2.
आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आजादी के बाद आदिवासियों को मिले संवैधानिक अधिकारों के बाद उनकी विभिन्न स्थितियों में काफी सुधार हुआ है। आज आदिवासी समाज से कई लोग शिक्षा, राजनीति, विविध प्रकार के सरकारी पदाधिकारी के रूप में स्थान प्राप्त कर रहे हैं। मगर यह सच्चाई आदिवासी समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित है।
आदिवासियों का एक बहुत बड़ा तबका आज भी गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, अज्ञानता और मुख्य प्रवास से कोसों दूर है। इनकी सबसे बड़ी समस्या जल-जंगल और जमीन को बचाने की है। विस्थापन की समस्या एक सबसे बड़ी समस्या है। आदिवासी महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है। आजादी के बाद भी महिलाएँ दुनिया की सुविधाओं से वंचित हैं।
दूसरी तरफ भ्रष्टाचार, विस्थापन, पलायन, डायन-प्रताड़ना, अशिक्षा का अंधेरा आदिवासी हर जगह झेल रहा है। आदिवासी अपनी संस्कृति को बचाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। सार रूप में कहें तो आदिवासी समाज की स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। विकास के नाम पर हमेशा उसे ही हाशिय पर धकेला जाता रहा है।
Hindi Digest Std 11 GSEB आओ, मिलकर बचाएँ Important Questions and Answers
प्रश्नों के उत्तर लिनिए :
प्रश्न 1.
‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता का केन्द्रीय भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस कविता में दोनों पक्षों का यथार्थ चित्रण हुआ है। बृहतर संदर्भ में यह कविता समाज में उन चीजों को बचाने की बात करती है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक परिवेश के लिए जरूरी है। प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आज आदिवासी समाज संकट में है, जो कविता का मूल स्वरूप है। कवयित्री को लगता है कि हम अपनी पारंपरिक भाषा, भावुकता, भोलेपन, ग्रामीण संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।
प्राकृतिक नदियाँ, पहाड़, मैदान, मिट्टी फसल, हवाएँ – ये राब आधुनिकता का शिकार हो रहे हैं। आज के परिवेश में विकार बढ़ रहे हैं, जिन्हें हमें मिटाना है। हमें प्राचीन संस्कारों और प्राकृतिक उपादानों को बचाना है। वह कहती हैं कि निराश होने की बात नहीं है, क्योंकि अब भी बचाने के लिए बहुत कुछ बचा है।
प्रश्न 2.
‘बचाएँ डूबने से, पूरी की पूरी बस्ती हड़िया में’ – आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शराब आदिवासियों के जीवन से जुड़ी हुई एक अभिन्न समस्या है। खुशी और गम दोनों ही प्रसंगों में आदिवासी लोग प्रायः शराब का सेवन करते हैं। इसका एक कारण उनकी जीवन-शैली, श्रमशीलता, अशिक्षा, अज्ञानता और जीवन की मस्ती भी है। कवयित्री निर्मला पुतुल ने शराब के कारण आदिवासियों की जिंदगी बरबाद होते देखा था।
इतना ही नहीं वह जिस इलाके में रहती थी वहाँ के आदिवासी हंडिया दारू बनाने और बेचने का धंधा करते थे। यह दारू पीने के बहाने कई बाहरी-शहरी लोग उस बस्ती में आते थे। हुड़दंग मचाते थे। हँसी ठट्ठा, गाली-गलौज, मारपीट आम बात थी। उनकी बहु-बेटियों की इज्जत से खेलते थे।
शराब के नशे में उन्हें लोभ-लालच बताकर महत्त्वपूर्ण कागज़ात पर हस्ताक्षर करवा लेते थे। इसीलिए निर्मला पुतुल आदिवासियों की पूरी की पूरी बस्तियों को शराब में डूबने (बरबाद होने) से बचाने का आग्रह करती है।
योग्य विकल्प पसंद करके रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
प्रश्न 1.
निर्मला पुतुल का जन्म एक …………. परिवार में हुआ था।
(A) आदिवासी
(B) ब्राह्मण
(C) वैश्य
(D) राजपूत
उत्तर :
(A) आदिवासी
प्रश्न 2.
निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च सन् …………… हुआ था।
(A) 1972
(B) 1973
(C) 1974
(D) 1975
उत्तर :
(A) 1972
प्रश्न 3.
‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ काव्य संग्रह . …………. द्वारा रचित है।
(A) महादेवी
(B) निर्मला पुतुल
(C) सुभद्रा कुमारी चौहान
(D) मीरा
उत्तर :
(B) निर्मला पुतुल
प्रश्न 4.
निर्मला पुतुल को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सन् …….. में मिला।
(A) 2011
(B) 2010
(C) 2013
(D) 2015
उत्तर :
(B) 2010
प्रश्न 5.
‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता मूलतः …………….. भाषा में लिखी गई है।
(A) खड़ी बोली
(B) मैथिली
(C) संथाली
(D) अवधी
उत्तर :
(C) संथाली
प्रश्न 6.
‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता का हिन्दी अनुवाद ………….. ने किया है।
(A) पंत
(B) निराला
(C) अशोक सिंह
(D) अज्ञेय
उत्तर :
(C) अशोक सिंह
प्रश्न 7.
शहरी आबो-हवा ……….. का प्रतीक है।
(A) भ्रष्टाचार
(B) प्रदूषण
(C) संस्कृति
(D) अपसंस्कृति
उत्तर :
(D) अपसंस्कृति
प्रश्न 8.
खुशी और गम दोनों ही प्रसंगों में आदिवासी लोग प्रायः ………….. का सेवन करते हैं।
(A) गाँजा
(B) अफीम
(C) हुक्का
(D) शराब
उत्तर :
(D) शराब
प्रश्न 9.
कवयित्री जिस इलाके में रहती थी वहाँ के आदिवासी ………….. बनाने और बेचने का धंधा करते थे।
(A) हंडिया दारू
(B) शरबत
(C) इन
(D) कपड़ा
उत्तर :
(A) हंडिया दारू
प्रश्न 10.
कवयित्री आदिवासी …………… बस्ती को शहरी अपसंस्कृति से बचाने का आहवान करती है।
(A) दुमका
(B) संथाल
(C) दोनों
(D) कोई नहीं
उत्तर :
(B) संथाल
प्रश्न 11.
कवयित्री अपनी क्षेत्रीय भाषा ………….. को बचाने की बात करती हैं।
(A) भोजपुरी
(B) राजस्थानी
(C) झारखंडी
(D) कोई नहीं
उत्तर :
(C) झारखंडी
प्रश्न 12.
भाषा ……………… की वाहक होती है।
(A) संस्कृति
(B) समाज
(C) विचार
(D) कोई नहीं
उत्तर :
(A) संस्कृति
प्रश्न 13.
कवयित्री …………. की इच्छा करती है ताकि रोकर मन की पीड़ा और वेदना को कम कर सके।
(A) एकांत
(B) उत्साह
(C) भीड़
(D) मेला
उत्तर :
(A) एकांत
प्रश्न 14.
कवयित्री का जीवन के प्रति …………….. दृष्टिकोण है।
(A) नकारात्मक
(B) सकारात्मक
(C) विद्रोहात्मक
(D) कोई नहीं
उत्तर :
(B) सकारात्मक
प्रश्न 15.
कवयित्री ने आज के युग को …………….. से युक्त बताया है।
(A) विश्वास
(B) उत्साहित
(C) अविश्वास
(D) उम्मीद
उत्तर :
(C) अविश्वास
प्रश्न 16.
कवयित्री का स्वर ……………….. है।
(A) निराशावादी
(B) आशावादी
(C) विचारात्मक
(D) कोई नहीं
उत्तर :
(B) आशावादी
प्रश्न 17.
बूढ़ों के लिए ……. की शान्ति कवयित्री चाहती है।
(A) चट्टान
(B) दीवार
(C) घर
(D) पहाड़ों
उत्तर :
(D) पहाड़ों
योग्य विकल्प चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
प्रश्न 1.
- ‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता ……….. की है। (राजी सेठ, निर्मला पुतुल, महादेवी, सुभद्रा)
- ‘फूटेगा नया विद्रोह’, ‘अपने घर की तलाश में’ काव्य संग्रह की लेखिका ………….. है। (मृणाल पाण्डे, मन्नू भंडारी, निर्मला पुतुल, दुष्यंत कुमार)
- ‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता मूलतः …………. भाषा में लिखी गई है। (गुजराती, उड़िया, बंगला, संथाली)
- कवयित्री बस्तियों को ……… की आबो-हवा से बचाना चाहती है। (फैशन, विदेश, शहर, गाँव)
- बचाएँ डूबने से पूरी की पूरी बस्ती को. …………… में। (हड़िया, बाल्टी, मटका, बोटल)
- ……….. आदिवासियों के जीवन से जुड़ी एक अभिन्न समस्या है। (नशा, नृत्य, गान, वादन)
- निर्मला पुतुल आदिवासियों की पूरी की पूरी बस्तियों को …………… में डूबने से बचाने का आग्रह करती है। (समुद्र, शराब, कर्ज, नदी)
- ………….. आदिवासियों के गौरव, स्वाभिमान और अस्मिता का प्रतीक है। (भाषा, विचार, आंदोलन, संवाद)
- ठंडी होती दिनचर्या में जीवन की …………….. कवयित्री बचाना चाहती है। (मर्माहट, हरापन, सूखापन, निरालापन)
- कवयित्री आदिवासियों के ………… के साथ का सहअस्तित्व और सहजीवन दोनों को बचाये रखने की बात करती है। (अनेकता, एकता, प्रकृति, संस्कृति)
- नाचने के लिए खुला …………….. (मैदान, आंगन, झरोखा)
- पशुओं के लिए हरी-हरी …………………..। (घास, मिर्च, मैदान)
- कवयित्री अविश्वास के दौर में थोड़ा-सा ……………, उम्मीद व सपने बचाए रखने की बात करती हैं। (विश्वास, सुख, दुःख, विचार)
- कवयित्री में …………. को बचाने की तड़प मिलती है। (लोग, परियेश, घर, पैसा)
- ………… की आबो-हया अपसंस्कृति का प्रतीक है। (बस्ती, शहर, गाँव, विदेश)
उत्तर :
- निर्मला पुतुल
- निर्मला पुतुल
- संथाली
- शहर
- हड़िया
- शराब
- शराब
- भाषा
- गर्माहट
- प्रकृति
- आंगन
- घास
- विश्वास
- परिवेश
- शहर
सही या गलत बताइए।
प्रश्न 1.
- ‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता निर्मला पुतुल की नहीं है।
- निर्मला पुतुल का जन्म एक आदिवासी परिवार में दुधनी कुरुवा, जिला दुमका संथाल परगना झारखण्ड में हुआ था।
- निर्मला पुतुल के पिता और चाचा शिक्षक थे।
- ‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता समाज में उन चीजों को बचाने की बात करती है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए जरूरी है।
- काष्यांश में निहित संदेश यह है कि हम अपनी प्राकृतिक धरोहर नदी, पर्वत, पेड़, पौधे, मैदान, हवाएँ आदि को प्रदूषित होने से बचाएँ।
- कवयित्री को अपनी संस्कृति से प्यार नहीं है।
- कवयित्री आदिवासियों के भोलेपन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की प्रवृत्ति को बचाना नहीं चाहती है।
- आदिवासियों की दिनचर्या का अंग धनुष, तीर व कुल्हाड़ियाँ होती हैं।
- कवयित्री जंगलों की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों के मौन, मिट्टी की खुशबू, स्थानीय गीतों व फसलों की लहलहाहट को नहीं बचाना चाहती है।
- भीतर की आग’ का आशय आंतरिक जोश व संघर्ष करने की क्षमता है।
उत्तर :
- गलत
- सही
- सही
- सही
- सही
- गलत
- गलत
- सही
- गलत
- सही
नीचे दी गई कविता को पढ़कर उस पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
वैसी ही मुद्रा में सूनेपन को सत्कार दिया। चंचल चरणों से चल खिड़की दरवाजों के पार झाँक जाने क्या देखा…… क्या जाना….. काग़ज पर निरुद्देश्य रेखाएँ खींच, बहुत हर्षित हो जाने किस मूरत को पहचाना…. और तभी कोई ज्यों खिलती है अकस्मात् कई दिनों बाद लगा – आज नहीं खाली हूँ। निश्चय ही मैं कुछ अच्छा लिखनेवाली हूँ।
आज आँख खुलते ही किरन एक शर्मीली सिरहाने आ डोली, थपकी-सी मलय-बात बड़े निकट अस्फुट स्वर में जैसे कुछ बोली। देखा तो जान पड़ासुबह नहीं मेरी है। किस ने यह जादू की छड़ी यहाँ फेरी है : दीवारें ! – और….. और….. अजब-अजब लगता है सभी ठौर….। धीरे से उठकर अपनी ही अंजलि में अपना मुख धर मैं ने बहुत देर अपने से प्यार किया; कमरे में जैसे हों अतिथि कहीं –
– कीर्ति चौधरी
प्रश्न 1.
मलय समीर का बहना कवयित्री को कैसा लगा ?
उत्तर :
मलय समीर का बहना कवि को ऐसा लगता है जैसे कोई अत्यंत निकट से फुसफुसा रहा हो।
प्रश्न 2.
कवयित्री के हर्षित होने का क्या कारण है ?
उत्तर :
कागज पर निरुद्देश्य रेखाएँ खींचते समय उसे लगा कि इनसे कोई अनजान आकृति उभर रही है, रेखाओं से बनी आकृति देख, भविष्य में सुंदर रचना की आशा है, कवयित्री खुश है।
प्रश्न 3.
‘आज नहीं हूँ खाली’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
कवयित्री को लगता है कि वह अवश्य है कुछ अच्छा लिखनेवाली है, इसलिए यह आज खाली नहीं है।
प्रश्न 4.
‘अस्फुट स्वर’ का अर्थ बताइए।
उत्तर :
जिन स्वरों के उच्चारण में ध्वनि अत्यंत धीमी होती है, जिसे कोई सुन न सके उसे अस्फुट (जो स्फुट नहीं है) कहते हैं। सामान्य भाषा में उसे फुसफुसाना कहते हैं।
प्रश्न 5.
‘चंचल चरणों से चल’ में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर :
‘चंचल चरणों से चल’ में अनुप्रास अलंकार है।
आओ, मिलकर बचाएँ Summary in Hindi
कवि परिचय :
निर्मला पुतुल का जन्म एक आदिवासी परिवार में 6 मार्च, सन् 1972 में गाँव दुधनी कुरुवा, जिला दुमका, संताल परगना, झारखंड में हुआ था। आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘फूटेगा नया विद्रोह’, ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’, ‘अपने घर की तलाश में’ (तीनों काव्यसंग्रह), ओनोड़हें (संताली कविता संग्रह)। निर्मला पुतुल की आरंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही संपन्न हुई।
फिर राजनीति शास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। नर्सिंग में डिप्लोमा किया। संताली हिन्दी, नागपुरी, बांग्ला, खोरटा, भोजपुरी, अंगिका एवं अंग्रेजी आदि भाषाओं पर आपका अधिकार है। विगत 15 वर्षों से भी अधिक समय से शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समा उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय रही हैं।
आदिवासी महिलाओं के विस्थापन, पलायन उत्पीड़न, स्वास्थ्य शिक्षा, लिंग भेद, संवेदनशीलता, मानवाधिकार, संपत्ति पर अधिकार जैसे मुद्दों को उठाती रही हैं। कवयित्री अपने बचपन से ही यह देखती आ रही थी कि बस्ती के लोग हंडिया में दास बेचने का धंधा करते हैं और बाहर के लोग, शहरी लोग, ठेकेदार, दलाल आदि हर शाम हुड़दंग मचाते, गाली-गलौज और मारपीट करते हैं।
आदिवासियों का नाना प्रकार के झूठे प्रलोभन देकर मुर्गा-दारू की महेफिल और बहू-बेटियों की इज्जत से भी खेलते। कुछ समय बाद जब कवयित्री के भीतर विचार – पकने लगे, समझदारी आने लगी तब भीतर एक विद्रोह पनपने लगा। फिर अपने असंतोष और विद्रोह को कविता के रूप में पिरोने लगी और अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए कलम को हथियार बनाकर लड़ने लगी।
इस प्रकार निर्मला पुतुल ने एक साधारण महिला से कवयित्री तक का सफर तय किया। आपकी रचनाओं का मूलस्वर आदिवासियों के जीवन में व्याप्त, अशिक्षा, गरीबी, शोषण, अन्याय, अत्याचार, पुरुष वर्चस्ग, जलजमीन और जंगल से अपनाया, पढ़े-लिखे आदिवासियों की स्वार्थान्धता, व्यसन, कठोर परिश्रम, सादगी, भोलापन आदि है। आपके सामाजिक और साहित्यिक योगदान के लिए कई संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है यथा
- साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा साहित्य सम्मान 2001
- झारखंड सरकार द्वारा ‘राजकीय सम्मान’ 2006
- हिमाचल प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित (2008)
- राष्ट्रीय युवा पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता (2009)
- राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (2010)
पाठ्य-रचना की विशेषताएँ :
‘आओ मिलकर बचाएँ’ कविता मूलतः संथाली भाषा में लिखी गई है, जिसका हिन्दी अनुवाद अशोक सिंह ने किया है। प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने आदिवासी जीवनशैली का रक्षण करने, उसे बाहरी आबोहवा (नगरीय संस्कृति) से बचाने, च्यसन में डूबे लोगों को व्यसन से मुक्त करने, अपनी भाषा और क्षेत्रीयता की रंगत को बचाने, आदिवासियों की निश्छलता और भोलेपन – के साथ ही।
साथ उनके जीवन संघर्ष, अस्मिता, जुझारूपन, स्वाभिमान, भीतर की आग, जल-जमीन और जंगल से उनकी आत्मीयता, उनकी आदिग संस्कृति (लोकगीत-नृत्य, परिधान, भाषा आदि) को बचाने, प्रकृति के विनाश, आदिवासियों के विस्थापन और तांबंधी समस्याओं के लिए उचित समाधान पर्यावरण का संरक्षण आदि मुद्दों को बड़ी ही संजीदगी के साथ उकेरा है।
काव्य का सारांश संथाली भाषा में लिखी गई निर्मला पुतुल की इस कविता का अशोक सिंह द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद यहाँ संकलित है। संथाली समाज के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पक्षों के यथार्थ को उजागर करते हुए कवयित्री उन मूल्यों, चीजों को बचाने की बात कर रही है जिनका एक स्वस्थ सामाजिक परिवेश तथा उज्ज्वल भविष्य के लिए अत्यंत जरूरी है। विस्थापन, प्रकृति विनाश के कारण आदिवासी समाज का संकट ही कविता का मूल स्वर है।
काव्य का भावार्थ :
अपनी बस्तियों को
नंगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
प्रस्तुत काव्यांश में प्रसिद्ध आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपने (आदिवासी) इलाके में हो रही अन्य लोगों की घुसपैठ पर अपनी चिन्ता व्यक्त की है। गैरआदिवासी लोगों के स्वार्थ, लोभ और लालच के कारण जंगल और पहाड़ों के साथ आदिवासियों की बस्तियाँ भी उजड़ रही है। यहाँ बस्तियों को नंगी होने से तात्पर्य यही है कि घने जंगलों को मिटाकर विकास के नाम पर विभिन्न प्रकार के निर्माण हो रहे हैं।
उनके एकांत निवास में खलेल पहुँच रही है। शहर की आबोहवा से बचाने का तात्पर्य है आदिवासी सभ्यता – संस्कृति (उनकी भाषा, बोली, तीज-त्यौहार, खान-पान, वेश-भूषा आदि) पर हमला। उनके भोलेपन की जगह चालाकी, सहज-सरलता की जगह आडंबर और निश्छलता की जगह कपटपूर्ण व्यवहार से बचाने की बात कवयित्री करती है।
बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
शराब आदिवासियों के जीवन से जुड़ी हुई एक अभिन्न समस्या है। खुशी और ग़म दोनों ही प्रसंगों में आदिवासी लोग प्रायः शराब का सेवन करते हैं। इसका एक कारण उनकी जीवन-शैली, श्रमशीलता, अशिक्षा, अज्ञानता और जीवन की मस्ती भी है। कवयित्री निर्मला पुतुल ने शराब के कारण आदिवासियों की जिन्दगी बरबाद होते देखा था।
इतना ही नहीं वह जिस इलाके में रहती थी वहाँ के आदिवासी हंडिया दारू बनाने और बेचने का धंधा करते थे। यह दारू पीने के बहाने कई बाहरी-शहरी लोग उस बस्ती में आते थे, हुडदंग मचाते थे। हँसी उट्ठा, गाली-गलौज, मार-पीट आग बात थी। उनकी बहू बेटियों की इज्जत से खेलते थे। शराब के नशे में उन्हें लोभ-लालच बताकर महत्त्वपूर्ण कागजात पर हस्ताक्षर करवा लेते थे। इसीलिए निर्मला पुतुल आदिवासियों की पूरी की पूरी बस्तियों को शराब में डूबने (बरबाद होने) से बचाने का आग्रह करती है।
अपने चेहरे पर
सन्थाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडीपन
प्रस्तुत काव्यांश में निर्मला पुतुल ने अपनी क्षेत्रीयता की तमाम लाक्षणिकताओं और विशेषताओं को बचाने की बात करती है और बात करती है अपनी क्षेत्रीय भाषा (झारखंडी) को बचाने की भी बात करती है।
संथाल की परगना की माटी का रंग बचाने से आशय है वहाँ का खान-पान, यहाँ की वेश-भूषा, वहाँ के तीज-त्यौहार, वहाँ के रीति-रिवाज और झारखण्ड की आबोहवा, फूल, लहर, तितली, नदी-नाले, घास-पत्ती, ओस-बूंद संक्षेप में झारखण्ड के आदिवासी अंचल की आदिम महक आदि सब-कुछ को बचाने की बात है।
भाषा में झारखंडीपन को बचाने की बात कवयित्री इसलिए करती है कि भाषा संस्कृति की वाहक होती है। भाषा बचेगी तो आदिवासी अस्मिता बचेगी। भाषा आदिवासियों के गौरव, स्वाभिमान और अस्मिता का प्रतीक है।
ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी
भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जंगल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधापन
फसलों की लहलहाहट
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने आज के दौर में मशीनी जीवन जीनेवाले इंसान जो कि घड़ी की सुई की तरह दौड़ा ही करते हैं। – एक बँधे बँधाये ढर्रे के साथ। जिनके जीवन में कोई उल्लास या ताजगी नहीं। वहीं आदिवासियों के जीवन में कठोर श्रमशीलता के साथ जीवन की गर्माहट भी है। अर्थात् रात को फुरसत के समय ये लोग खुले आसमान के नीचे प्रकृति के रम्य प्रांगण में समूह नृत्य-गान-वादन करते हुए जीवन का खरा आनंद भी उठाते हैं।
इसी सामूहिक भावना और नैसर्गिक आनंद को बचाये रखने के साथ ही कवयित्री बचाना चाहती – मन का हरापन और दिल का भोलापन अर्थात् निश्छलता, प्रेम और विश्वास। भोलेपन के साथ ही यह आदिवासियों का अपना जुझारूपन और अक्खड़ता अर्थात् स्वाभिमान और अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने की जिद को भी बयाचे रखना चाहती है।
इसके लिए बेहद जरूरी है उनके भीतर की आग, धनुष नुकीले तीर, धारदार कुल्हाड़ी। ये सारे औजार आक्रोश, प्रतिरोध, विरोध और विद्रोह के प्रतीक हैं। जल, जमीन और जंगल को बचाये रखने में और विस्थापन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए ये सबकुछ जरूरी है। इसके साथ ही ज़रूरी है जंगल की ताजा हवा, नदियों की निर्मलता, जिसके लिए आज का मनुष्य तड़प-तड़प जाता है।
गीतों की धुन जो आजकल डी. जे. और टी.वी. आदि में सुनाई देती है, वाचिक परंपरा से गानेवाले लोगों के मुँह से नहीं। चारों ओर के शोरगुल और ध्वनि-प्रदूषण के बीच पहाड़ों के जैसा मौन और मिट्टी का सौंधापन अर्थात् चारों ओर बिछा हुआ सिमेंट-कोंक्रिट के आँगन में मिट्टी का सौंधापन खो गया है
। आदिवासियों के कच्चे घर-आँगन में गोबर से लिपे आँगन और झोपड़ी. दोनों मिल जायेंगे। साथ ही मिल जायेगी फसलों की लहलहाट | आशय यह है कि कवयित्री आदिवासियों के प्रकृति साथ का सहअस्तित्व और सहजीवन दोनों को बचाये रखने की बात करती है।
नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकान्त
बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शान्ति
आदिवासी खाये बगैर रह सकता है, मगर गाये-बजाये और नाचे बगैर नहीं रह सकता। मुख्य प्रवाह से दूर एकांत, दुर्गम स्थानों में रहनेवाला यह समाज कम से कम साधनों और सीमित इच्छाओं में भी मस्ती भरा जीवन जी लेता है। ये लोग प्रकृति का उपयोग करते हैं – उपभोग नहीं। इसीलिए ये सिर्फ बच्चों के खेलने के लिए मैदान, अपने पशुओं को चराने के लिए आवश्यकताभर की हरीहरी घास और बड़े-बूढ़ों के लिए पहाड़ों सी शांति, बस।
और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोड़े-से सपने
आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है,
अब भी हमारे पास !
कविता के आखिरी पड़ाव में कवयित्री ने समग्र मानव जाति के कल्याण और सुख्खाकारी के लिए, धरती को रहने लायक और उसमें जीने लायक बनाये रखने के लिए जो कुछ भी बचाने लायक है, उसे बचाने की बात कही है। वैसे मनुष्य ने अपने व्यक्तिगत लोभ और लालच के लिए प्रकृति का मनमाने ढंग से दोहन किया है, उसकी नैसर्गिकता को खण्डित किया है, जिसके दुष्परिणाम मनुष्य अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, भूस्खलन, वायुप्रदूषण, जलप्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और तज्जनित विभिन्न रोगों के रूप में भोग रहा है।
बावजूद इसके कवयित्री के मतानुसार अब भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे बचाया जा सकता है और बचाने की अनिवार्यता है। आज चारों और अविश्वास फैला हुआ है। व्यक्ति अपनी ही परछाइयों से डर रहा है। ऐसे में थोड़ा-सा विश्वास बचाये रखने की आवश्यकता है – आवश्यकता है दूसरों का विश्वास अर्जित करने की और अपना विश्वास संपादित करने की।
आज मनुष्य तमाम प्रकार नाकामियों से, व्यवस्थातंत्र के भ्रष्ट आचरण के कारण नाउम्मीद हो गया है, उसके सपने मर गये हैं। सपनों का मर जाना सबसे खतरनाक है, अतः कवयित्री ने इस उम्मीद और छोटे-छोटे सपनों को बचाये रखने की प्रथम आवश्यकता है। अंततः कवयित्री समग्र मानवजाति को आह्वान करती है कि इस दौर में भी हमारे पास बहुत कुछ बचा है, अब भी बचाने के लिए जिसे हर कीमत पर बचाये जाये।
यहाँ दो शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं – ‘इस दौर में भी’ और ‘बहुत कुछ’। इस दौर में भी वाक्यांश का कवयित्री ने सोद्देश्य प्रयोग किया है, क्योंकि वैश्वीकरण और बाजारीकरण के इस दौर में हमने हर चीज को उत्पाद्य वस्तु और हर मानवीय संबंध को सौदा बना लिया है। हर व्यक्ति को उपभोक्ता बना लिया है जिससे लाभ या मुनाफे की ही कामना की जा रही है – फिर वह माँ-बाप या अन्य करीबी संबंध ही क्यों न हो !
मगर ऐसे उपभोक्तायादी दौर में कवयित्री को ऐसा बहुत कुछ दिखता है, जिसे बचाया जा सकता है और दुनिया को जीनेलायक बनाया जा सकता है। इस ‘बहुत कुछ’ में जल, जमीन और जंगल का संरक्षण, पर्यावरण का जतन, मानवीय विश्वास और छोटे-छोटे सपने आदि कई चीजों का समावेश होता है। इन्हें बचाना बेहद ज़रूरी है।
शब्द-छवि :
- आबो-हवा – जलवायु
- माटी – मिट्टी
- सोंधापन – सुगंध
- उम्मीद – आशा
- दौर – समय
- गर्माहट – नया उत्साह
- मन का हरापन – मन की खुशियाँ
- आग – गर्मी
- अक्खड़पन – किसी बात को लेकर रुखाई से तन जाने का भाव
- जुझारूपन – जूझने या संघर्ष करने की प्रवृत्ति
- नंगी होना – मर्यादाहीन होना
- झारखंडीपन – झारखंड का पुट
- ठंडी होती – धीमी पड़ती
- दिनचर्या – दैनिक कार्य
- निर्मलता – पवित्रता
- मौन – चुप्पी
- एकांत – अकेलापन
- हड़िया – दारू, शराब