GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 2 विना वृक्षं गृहं शून्यम्

Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 2 विना वृक्षं गृहं शून्यम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.

Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 2 विना वृक्षं गृहं शून्यम्

GSEB Solutions Class 11 Sanskrit विना वृक्षं गृहं शून्यम् Textbook Questions and Answers

विना वृक्षं गृहं शून्यम् Exercise

1. अधोलिखितानां प्रश्नानां संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत।

પ્રશ્ન 1.
का वृक्षं वेष्टयते?
उत्तर :
वल्ली वृक्षं वेष्टयते।

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પ્રશ્ન 2.
आहार – परिणामात् किं जायते?
उत्तर :
आहार – परिणामात् वृक्षेषु स्नेहः वृद्धिः च जायते।

પ્રશ્ન 3.
कस्मिन् कार्ये अतन्द्रित: प्रयतेत?
उत्तर :
वृक्षाणां संवर्धने अतन्द्रित: प्रयतेत।

પ્રશ્ન 4.
कौ श्रेयस्करौ स्त:?
उत्तर :
वृक्षः च पुत्रः च उभौ श्रेयस्करौ स्तः।

પ્રશ્ન 5.
कीदृशं गृहं शून्यम्?
उत्तर :
वृक्षहीनं गृहं शून्यम्।

2. यथास्वं विकल्पं चित्वा उत्तरं लिखत।

પ્રશ્ન 1.
वल्ली वृक्षं ……………………………….. गच्छति।
(क) एकतः
(ख) सर्वतः
(ग) उभयतः
(घ) अन्यतः
उत्तर :
(ब) सर्वतः

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પ્રશ્ન 2.
सलिलपानात् इति पदस्य कः अर्थः?
(क) जलस्य पानात्
(ख) जलेन पानात्
(ग) जले पानात्
(घ) जलं पानात्
उत्तर :
(अ) जलस्य पानात्

પ્રશ્ન 3.
पादप: पादैः किं करोति?
(क) खादति
(ख) पिबति
(ग) चलति
(घ) गच्छति
उत्तर :
(ब) पिबति

પ્રશ્ન 4.
वृक्षाणाम् ……………………………….. न विद्यते।
(क) सत्ता
(ख) रूपम्।
(ग) अचैतन्यम्
(घ) चैतन्यम्
उत्तर :
(स) अचैतन्यम्

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પ્રશ્ન 5.
वृक्षाणाम् ……………………………….. न कारयेत्।
(क) पालनम्
(ख) छादनम्
(ग) उच्छेदम्
(घ) पोषणम्
उत्तर :
(स) उच्छेदम्

પ્રશ્ન 6.
यथा वृक्षः तथा ………………………………..।
(क) वनम्
(ख) पुत्रः
(ग) जलम्
(घ) धनम्
उत्तर :
(ब) पुत्रः

3. Give answer in detail in mother-tongue:

પ્રશ્ન 1.
How can one say that a tree sees?
उत्तर :
लता वृक्ष से लिपट जाती है तथा उसके चारों ओर लिपट कर आगे फैलती जाती है। इस प्रकार लता के द्वारा वृक्ष से लिपटकर आगे बढ़ते रहने की प्रक्रिया से यह बोध होता है कि वृक्ष देखते हैं। क्यों कि आगे बढ़ने के लिए मार्ग को देखना आवश्यक होता है। मार्ग को देख्ने बिना आगे बढ़ना संभव नहीं होता है। अत: बेल के द्वारा वृक्ष को लिपटने एवं आगे बढ़ने की प्रक्रिया से यह स्पष्ट होता है कि वृक्ष देखते हैं।

પ્રશ્ન 2.
How is it proved that a tree has taste?
उत्तर :
वृक्ष पानी पीते हैं। कई बार वृक्षों में विभिन्न प्रकार के रोग भी पाए जाते हैं। वृक्षों में भी व्याधियों की प्रतिक्रिया भी होती है। इस प्रकार वृक्षों के द्वारा जल-पान की प्रक्रिया, विभिन्न प्रकार की व्याधियों के दिखाई देने के कारण तथा वृक्षों के द्वारा व्याधियों की प्रतिक्रिया के कारण यह सिद्ध होता है कि वृक्षों में रसनेन्द्रिय होती है।

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પ્રશ્ન 3.
What reasons are given to prove that there is a life spirit in a tree?
उत्तर :
भरद्वाज एवं भृगु ऋषि के संवाद से मानवीय देह की प्रक्रियाओं के अनुसार ही वृक्ष में चैतन्य के अस्तित्व को सिद्ध किया है।

जिस प्रकार मानव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पंच-विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है ठीक उसी प्रकार वृक्ष में विभिन्न प्रक्रियाएँ दिखाई देती हैं। जिस प्रकार लता वृक्ष का आलिंगन करती है तथा उससे लिपटकर चारों ओर आगे बढ़ती है। इस प्रक्रिया से वृक्षों के देखने की प्रक्रिया सिद्ध होती है।

गन्ध-धूप आदि के द्वारा वृक्ष सूंघते है एवं रोग-हीन होते हैं यह स्पष्ट होता है उसी प्रकार वृक्षों के द्वारा जलपान करने, रोगी होने एवं रोगों के प्रति प्रतिक्रिया करने से उनमें रसनेन्द्रिय होने का ज्ञान होता है।

उसी भाँति सुख-दुःख की अनुभूति एवं कटने पर पुनः अभिवृद्धि करने के कारण यह स्पष्ट होता है कि वृक्षों में भी जीव होता है।

वृक्ष सजीव होते है तथा उनमें अचैतन्य नहीं होता है।

પ્રશ્ન 4.
What happens to the water that tree drinks?
उत्तर :
वृक्ष के द्वारा पान किए गए जल को अग्नि एवं पवन पचाते हैं। तथा वृक्ष के द्वारा स्वीकार किए गए उस आहार के परिणामस्वरुप उनमें स्निग्धता उत्पन्न होती है एवं उनमें अभिवृद्धि होती है।

પ્રશ્ન 5.
How should we behave with trees?
उत्तर :
वृक्षों का सम्पूर्ण जीवन मानव के ही नहीं प्रत्युत भूमण्डल के कल्याणार्थ होता है। अत: मानव का यह परं कर्तव्य है कि वह वृक्षों का उच्छेदन कदापि न करे तथा निद्रा या प्रमाद का परित्याग करके जागृत रहते हुए मानव को वृक्षों के संवर्धन हेतु निरन्तर प्रयत्न-रत रहना चाहिए।

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4. Write a critical note on:

પ્રશ્ન 1.
Proofs of trees having life-spirit
उत्तर :
वृक्ष में चैतन्य-सिद्धि के कारण :

महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने शान्तिपर्व के अठारहवें अध्याय में भरद्वाज एवं भृगु ऋषि के संवाद के माध्यम से कई प्रकार के तर्कों को प्रस्तुत करते हुए वृक्षस्थ चैतन्य तत्त्व को स्पष्ट किया है। जिस भाँति मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से दर्शन श्रवण, स्पर्श आदि की अनुभूति करता है ठीक उसी भाँति वृक्ष में समस्त प्रक्रियाएँ विद्यमान होती हैं, इस विषय को प्रस्थापित करते हुए भारत वर्ष के वैज्ञानिक ऋषि के द्वारा प्रदत्त तर्क अत्यन्त सहज एवं मननीय हैं।

लता के द्वारा वृक्ष का आलिंगन करना तथा उसके पश्चात् आगे बढ़ना, फैलना इस विषय का द्योतक है कि वृक्षों में दर्शनेन्द्रिय विद्यमान होती है। अर्थात् वृक्ष देखते हैं। क्योंकि दृष्टि के अभाव में वृक्ष तक जाना, उसका आलिंगन करना तथा आगे बढ़ने या फैलने की प्रक्रिया लता के द्वारा संभव नहीं हो सकती है।

उसी प्रकार विविध प्रकार की गंध-धूप आदि को ग्रहण करने (सूंघने) के कारण, रोगरहित तथा सुवासित पुष्पों से युक्त रहने के कारण वृक्षों में घ्राणेन्द्रिय की उपस्थिति का अभिज्ञान होता है। वृक्षों के द्वारा पैरों से अर्थात् जड़ों के द्वारा जल-पान करने की प्रक्रिया के कारण तथा उनमें विविध प्रकार के रोगों के दिखाई देने के कारण एवं व्याधियों के प्रति प्रतिक्रिया करने के कारण यह ज्ञात होता है कि वृक्षों में रसनेन्द्रिय भी विद्यमान होती है।

सुख एवं दुःख का अनुभव करने के कारण तथा वृक्षों के पुनः पुनः करने पर नई शाखाएँ, पत्ते, फूल-फल आदि से वे पुनः पल्लवित होते हैं, अभिवर्धित होते हैं। अत: यह स्पष्ट होता है कि वृक्ष सजीव होते हैं।

वृक्षों के द्वारा उपभुक्त जल को अग्नि एवं पवन पचाते हैं तथा उनके द्वारा ग्रहण किए गए आहार के द्वारा उनमें स्निग्धता दिखाई देती है। इस प्रकार बार-बार बढ़ते रहने के कारण तथा उपर्युक्त प्रदत्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि वृक्षों में चैतन्य होता है। वृक्ष भी सजीव होते हैं अतः उनका संवर्धन।

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પ્રશ્ન 2.
Glory of trees
उत्तर :
वृक्ष की महिमा :
संपूर्ण संसार को जीवनदायिनी प्राण-वायु प्रदान करनेवाले वृक्ष परं कल्याणकारी हैं। संपूर्ण संसार का सम्यक् संचालन करने हेतु, पर्यावरण को पूर्णतया व्यवस्थित करने हेतु तथा मानवीय जीवन को सर्व-विध सौख्य-पूर्ण करने हेतु वृक्ष परम आवश्यक हैं।

मानवीय विकास के चरत्मोत्कर्ष का आधार हैं वृक्ष। वृक्षों के सुवासित सुमन से समग्रारण्य सुवासित होता है। पर्यावरण शुद्ध होता है तथा जन-गण-मन न मात्र हर्षित होता है प्रत्युत समस्त सौख्य को प्राप्त करता है।

वर्तमान-काल में जहाँ वायु प्रदूषण से जन-मानस विभिन्न रोगों से ग्रस्त हैं, वहीं जहाँ वायु-विषाक्त हो रही है उस परिस्थिति में काँकरीट के जंगल में विकासोन्माद से मदमस्त मानव वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण से जल-थल-नभ को प्रदूषित कर स्वयं का ही जीवन दूभर कर रहा है मानो स्वयं के पाँव पर स्वयं ही कुल्हाडी मार रहा है।

इस विकट काल में परं हितैषी, परं कल्याणकारी वृक्ष एक संत की भाँति स्वयं संकट-ग्रस्त होते हुए भी पशु-पक्षी, मानव आदि समस्त प्राणियों के संरक्षण एवं संवर्धन का मूलाधार – स्तंभ होते हैं – मानव कल्याणार्थ औषधि प्रदान कराते हैं।

कहा गया है ‘नास्ति मूलमनौषधम्’ अर्थात् ऐसी एक भी जड या वनस्पति नहीं है जिसका प्रयोग औषधि के रूप में न हो। उसी प्रकार फल-फूल फर्नीचर, खाद्य-पदार्थ आदि अनेकविध सेवाएँ वृक्ष हमें प्रदान करते हैं।

अतः कहा जाता है – वृक्षो रक्षति रक्षित: अर्थात् यदि वृक्ष की रक्षा की जाए तो वृक्ष हमारी रक्षा करते है।

अत: वृक्ष का निवेदन यह है –
मेरी ही नित सुमन गन्ध से आनन्दित होता संसार
मेरी शाखाएँ नित देती रस-युक्त फलों का आहार
मेरी ही शीतल छाया में बैठ पथिक करते विश्राम
पर्यावरण का रक्षण कर मैं जग करता हूँ अभिराम।।

5. Explain with reference to context :

(1) तस्माजिघ्रन्ति पादपाः।
(2) पादैः पिबति पादपः।
(3) एतेषां सर्ववृक्षाणाम् उच्छेदं न तु कारयेत्।
(4) वृक्षहीनं गृहं शून्यं पुत्रहीनं कुलं तथा।

Sanskrit Digest Std 11 GSEB विना वृक्षं गृहं शून्यम् Additional Questions and Answers

विना वृक्षं गृहं शून्यम्स्वा ध्याय

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए।

પ્રશ્ન 1.
कीदृशं कुलं शून्यम्?
उत्तर :
पुत्रहीनं कुलं शून्यम्।

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પ્રશ્ન 2.
केन वनं वासितम्?
उत्तर :
एकेन पुष्पितेन सुवृक्षेण वनं वासितम्।

પ્રશ્ન 3.
पादप: जलं कथं पिबति?
उत्तर :
पादपः पादैः जलं पिबति।

2. यथास्वं विकल्पं चित्वा उत्तरं लिखत :

પ્રશ્ન 1.
वल्ली वेष्टयते ………………………………………. .
(अ) वृक्षम्
(ब) पुष्पम्
(स) वनं
(द) पुत्रम्
उत्तर :
(अ) वृक्षम्

પ્રશ્ન 2.
पादैः पिबति ………………………………………. .
(अ) पादपः
(ब) जनः
(स) खगः
(द) सर्पः
उत्तर :
(अ) पादपः

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પ્રશ્ન 3.
गृहं ………………………………………. विना शून्यम्।
(अ) कुलम्
(ब) जीवनम्
(स) पुत्रम्
(द) वृक्षम्
उत्तर :
(द) वृक्षम्

પ્રશ્ન 4.
………………………………………. पुत्रं विना शून्यम्।
(अ) वृक्षम्
(ब) पुष्पम्
(स) कुलम्
(द) जलम्
उत्तर :
(स) कुलम्

પ્રશ્ન 5.
यथा वृक्षः ………………………………………. पुत्रः।
(अ) यदि
(ब) तथा
(स) सर्वथा
(द) सदा
उत्तर :
(ब) तथा

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3. मातृभाषा में विस्तारपूर्वक उत्तर लिखिए।

પ્રશ્ન 1.
वृक्ष एवं पुत्र की साम्यता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जिस प्रकार एक सुपुत्र के कारण सम्पूर्ण कुल यशस्वी होता है, कुल के यश की अभिवृद्धि होती है, जिस प्रकार एक सुपुत्र से संपूर्ण कुल गौरवान्वित होता है उसी प्रकार पुष्पों से युक्त एक सुवृक्ष से सुगन्ध के द्वारा सम्पूर्ण वन ही सुवासित हो जाता है।

इस प्रकार वन एवं पुत्र दोनों ही भूमण्डल के लिए श्रेयस्कर होते है।

विना वृक्षं गृहं शून्यम् Summary in Hindi

सन्दर्भ : भारतवर्ष का गौरव, संस्कृति एवं आदर्शों का परिचायक महाभारत राष्ट्रीय महाकाव्य है। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। महाभारत का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि धर्म, नीति, तत्त्वज्ञान, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानसशास्त्र, नृत्य, गीत, वाद्य, शिल्प, धनुर्वेद, कामशास्त्र, इत्यादि अनेक शास्त्रों के विषय की चर्चा से यह समृद्ध है। महाभारत लगभग एक लाख श्लोकों से युक्त एक विशाल ग्रन्थ है। अतएव इसे दशसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है।

महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने की है। उनका मूल नाम कृष्ण द्वैपायन था। उनके श्याम वर्ण के कारण कृष्ण और एक द्वीप में जन्म होने के कारण द्वैपायन कहा गया है। उन्होंने वेदों को व्यवस्थित किया अतः उन्हें वेदव्यास कहा गया। वेदव्यास के द्वारा अठारह पुराणों की रचना की गई है।

महाभारत की कथा अठारह पर्यों में वर्णित हैं :

  • आदि पर्व
  • सभापर्व
  • वनपर्व (आरण्यक पर्व)
  • विराट पर्व
  • उद्योगपर्व
  • भीष्मपर्व
  • द्रोणपर्व
  • कर्णपर्व
  • शल्यपर्व
  • सौप्तिक पर्व
  • स्त्रीपर्व
  • शान्तिपर्व
  • अनुशासन पर्व
  • अश्वमेघ पर्व
  • आश्रमवासी पर्व
  • मौसलपर्व
  • महाप्रस्थानिक पर्व
  • स्वर्गारोहण पर्व।

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इसके अतिरिक्त महाभारत का हरिवंश नामक एक विभाग भी है, जिसमें 16,000 श्लोक है।

रामायण पारिवारिक स्नेहभावना के आदर्श को व्यक्त करता है। जबकि महाभारत पारिवारिक कलह से उत्पन्न महानाश को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाय तो जीवन में करणीय एवं अनुकरणीय विषयों का दर्शन रामायण में होता है तथा जीवन में जो कार्य नहीं किए जाने चाहिए उन कार्यों का दर्शन महाभारत में होता है। महाभारत के धृतराष्ट्र, दुर्योधन, शकुनि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, द्रौपदी आदि पात्र आज भी प्रत्येक परिवार में दिखाई देते है।

जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने हेतु महाभारत का अध्ययन आज भी अपेक्षित है। क्योंकि महाभारत एक ज्ञान-कोष है। महाभारत में भिन्न-भिन्न संदर्भो में विभिन्न विषयों का समावेश किया गया है।

यह पाठ महाभारत के शांतिपर्व के 184 वे अध्याय से उद्धृत किया गया है तथा यहाँ भरद्वाज एवं भृगु ऋषि के संवाद का वर्णन है। भरद्वाज एवं भृगु ऋषि के संवाद के कुछ पद्यों का यहाँ चयन किया गया है। इन पद्यों में प्रस्तुत विषय-वस्तु का उपसंहार करने हेतु अन्त में सम्पादित पद्यों का संकलन भी किया गया है। पाठ के अन्त में सुभाषित के रूप में प्रसिद्ध एक श्लोक भी उद्धृत किया गया है।

महाभारत के शांतिपर्व में भरद्वाज एवं भृगु ऋषि के संवाद में मुख्यतया पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया पंचमहाभूतों के वर्णन के काम में भरद्वाज ऋषि भृगु ऋषि से पूछते हैं कि वृक्ष में जीव है या नहीं। इस प्रश्न के उत्तर में भृगु ने वृक्ष में स्पष्ट रूप से जीव होने के महनीय विषय को सतर्क प्रस्थापित किया है। भृगु ऋषि द्वारा प्रदत्त विषय का परीक्षण किसी भी प्रकार की भौतिक प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है।

भृगु ऋषि द्वारा प्रदत्त तर्क मानवीय-देह में विद्यमान प्रक्रिया (विशेषतः ज्ञानेन्द्रियों) के समान ही प्रतिबिम्बित होते हैं। जिस प्रकार मानव भिन्न-भिन्न इन्द्रियों से भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है ठीक उसी भाँति वृक्ष भी अनुभव करते हैं। भृगु ऋषि ने अपने तर्कों से वृक्ष में अनुभव चैतन्य जीव के विद्यमान होने के विषय को स्थापित किया है।।

पाठ में प्रदत्त सभी नव श्लोक अनुष्टुप छन्द में है। इन श्लोकों से ऋषियों के वनस्पति विज्ञान का गहन ज्ञान तथा उसे सरलतया प्रस्तुत करने की कला का भी परिचय होता है।

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अन्वय, शब्दार्थ एवं अनुवाद

1. अन्वय : – वल्ली वृक्षं वेष्टयते, (वृक्ष) सर्वतः एव च गच्छति। अदृष्टेः मार्ग: हि न अस्ति, तस्मात् पादपा: पश्यन्ति।

शब्दार्थ : वल्ली = बेल या लता। वेष्टयते = वेष्टित अर्थात् लिपट जाती है, आलिंगन करती है। वेस्ट धातु (आ.प.) का वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। वृक्षं = वृक्षको। सर्वत: = चारों ओर से। सर्व + तस् तद्धित प्रत्यय, अव्यय पद। च = और। एव = ही। गच्छति = जाता है। गम् धातु (प.प.) वर्तमानकाल, अन्य पुरुष, एकवचन। अदृष्टेः = दृष्टिहीन होने से दृष्टि रहित होने से, दृष्टि के अभाव से। मार्ग: = पथ। तस्मात् = उससे (उस कारण से)। पादपा: = वृक्ष।

अनुवाद : लता वृक्ष से लिपट जाती है और उसके चारों ओर आगे फैलती जाती है। दृष्टि के अभाव से मार्ग दिखाई नहीं देता है अत: (सिद्ध होता है कि) वृक्ष देखते हैं।

2. अन्वय : – पादपा: पुण्यापुण्यैः तथा विविधैः गन्धैः धूपैः अपि च अरोगा:, पुष्पिता: सन्ति। तस्मात् (पादपा:) जिघृन्ति।

शब्दार्थ : पुण्यापुण्यैः (पुण्य + अपुण्यैः) = पुण्यों एवं पापों के द्वारा, गन्धैः = गन्ध के द्वारा, धूपैः = धूप के द्वारा (अग्नि के द्वारा प्रसृत सुगन्धित वायु के द्वारा), अरोगा: = निरोगी, रोगरहित, पुष्पिता: = पुष्पों से युक्तं, जिघ्रन्ति = सूंघते हैं। घ्रा (जिघ्र) धातु वर्तमान-काल, अन्यपुरुष, बहुवचन।

अनुवाद : वृक्ष पुण्य एवं पाप के द्वारा, विविध प्रकार के धूप एवं गन्ध के द्वारा रोगरहित (स्वस्थ) एवं पुष्पों से युक्त होते हैं अतः (यह स्पष्ट होता है कि) वृक्ष सूंघते है।

3. अन्वय : – पादैः सलिलपानात् च व्याधीनां दर्शनात् च व्याधिप्रतिक्रियत्वात् च अपि द्रुमे रसनं विद्यते। (इति स्पष्टं भवति।)

शब्दार्थ : पादैः = पैरों से, सलिल – पानात् = पानी पीने (से) के कारण। व्याधीनाम् = रोगों के। दर्शनात् = दिखाई देने से, व्याधिप्रतिक्रियत्वात् = रोगों की प्रतिक्रिया अर्थात् रोगों के प्रतिकार करने के कारण से, द्रुमे = वृक्ष में, रसनम् = रसनेन्द्रिय, जिह्वा, जीभ।

अनुवाद : पैरों से पानी पीने के कारण तथा व्याधियों के दिखाई देने से एवं रोगों के प्रतिकार करने के कारण (यह स्पष्ट होता है कि) वृक्ष में रसनेन्द्रिय विद्यमान होती है।

4. अन्वय : – यथा (उत्पलम्) वक्त्रेण उत्पलनालेन ऊर्ध्वं जलम् आददेत् तथा पादप: पवन-संयुक्तः पादैः पिबति।

शब्दार्थ : यथा – तथा = जिस प्रकार से – उस प्रकार से (जैसा – वैसा), यह एक अव्यय-पद है। वक्त्रेण = मुख से। उत्पलनालेन = कमल-नाल से। ऊर्ध्वं = ऊपर। जलम् = पानी, वारि, नीरम्, सलिलम्, पयः, अम्भः, अप्, कम्, तोयम्, अम्बुः।। आददेत् = लेता है (यहाँ खींच लेता है यह अर्थ स्वीकार्य है।) आ (उपसर्ग) + दा धातु, विधिलिङ्, अन्य पुरुष, एकवचन। पादपः = पैरों से पानी पीने के कारण ही वृक्षों को पादप कहा जाता है। पर्याय शब्द – वृक्षः, तरूः, द्रुमः। पवन-संयुक्तः = प्राणवायु से युक्त

अनुवाद : जिस प्रकार (कमल अपने) कमलनाल रूपी मुख से जल ऊपर खींच लेता है ठीक उसी प्रकार प्राणवायु से युक्त यह वृक्ष पैरों से पानी पीता हैं।

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5. अन्वय : – सुख-दुखयोः ग्रहणात् च छिन्नस्य विरोहणात् च जीवं पश्यामि। वृक्षाणाम् अचैतन्यं न विद्यते।।

शब्दार्थ : ग्रहणात् = ग्रहण करने के कारण, छिन्नस्य = कटे हुए का, विरोहणात् = वृद्धि होने के कारण, बढ़ते रहने के कारण, जीवम् = चैतन्य।

अनुवाद : सुख-दुःख का अनुभव करने के कारण, तथा कटने के पश्चात् बढ़ते रहने के कारण मैं – (भृगु ऋषि के लिए प्रयुक्त) वृक्षों में चैतन्य का दर्शन करता हूँ। वृक्ष निर्जीव या चैतन्य-हीन नहीं होते हैं।

6. अन्वय : – तेन तत् आदत्तं जलं अग्निमारुतौ जरयति, आहार-परिणामात् च स्नेहः, वृद्धिः च जायते।

शब्दार्थ : आदत्तं = ले लिया हुआ, खींच लिया हुआ। अग्निमारुतौ = अग्नि एवं पवन। जरयति = पचाते हैं, जृ धातु, वर्तमानकाल, परस्मैपद, अन्य पुरुष – एकवचन। आहार – परिणामात = आहार के परिणाम – स्वरूप। स्नेह = स्निग्धता। वृद्धि = अभिवृद्धि या अभिवर्धन। जायते = उत्पन्न होता है। जन् धातु, वर्तमानकाल, अन्य पुरुष – एकवचन।

अनुवाद : वृक्ष सजीव होने के कारण उनके द्वारा ऊपर खींचे हुए जल को अग्नि और पवन पचाते हैं एवं (स्वीकृत) आहार के परिणामस्वरूप उनमें स्निग्धता एवं अभिवृद्धि होती रहती है।

7. अन्वय : (जन:) एतेषां वृक्षाणाम् उच्छेदं तु न कारयेत् (स:, तेषाम्) संवर्धने हि अतन्द्रित: विशेषेण प्रयतेत।

शब्दार्थ : उच्छेदम् = विनाश। कारयेत् = कृ धातु प्रेरणार्थक, णिच् प्रत्यय, विधि लिङ्, अन्यपुरुष, एकवचन किया जाना चाहिए, करे। अतन्द्रित: = आलस्य रहित होकर, प्रमाद छोड़कर, जागृत रहते हुए।

अनुवाद : (व्यक्ति को) इन सभी वृक्षों का कर्तन या विनाश नहीं करना चाहिए तथा (व्यक्ति को) आलस्य रहित होकर वृक्षों के संवर्धन करने हेतु विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिए।

8. अन्वय : यथा वृक्षः तथा पुत्र: उभौ सदा श्रेयस्करौ। यथा विना वृक्षं गृहं शून्यम् तथा पुत्रहीनं कुलं (शून्यम् अस्ति)।

शब्दार्थ : उभौ = दोनों। श्रेयस्करौ = कल्याणकारी। शून्यम् = शून्य, सारहीन, व्यर्थ।

अनुवाद : जिस प्रकार वृक्ष कल्याणकारी है उसी प्रकार पुत्र (भी) कल्याणकारी है। जिस प्रकार वृक्ष-हीन घर शून्य होता है उसी प्रकार पुत्र-हीन कुल(भी) व्यर्थ या शून्य होता है।

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9. अन्वय : – यथा सुपुत्रेण (सर्व) कुलं वासितं तथा एकेन पुष्पितेन सुवृक्षण सुगन्धिना सर्वं वै वनं (वासितम्)।

शब्दार्थ : वासितम् = सुवासित। पुष्पितेन = खिला हुआ, जिस पर फूल खिले हों वह वृक्ष (उस वृक्ष से) वै – यह एक अव्ययपद है। यह वाक्य की शोभाभिवृद्धि हेतु प्रयुक्त होता है। यह अनर्थक है।

अनुवाद : जिस भाँति एक सुपुत्र के कारण सम्पूर्ण कुल सुवासित अर्थात् यशस्वी होता है उसी भाँति एक ही पुष्पित (पुष्पों से युक्त) सुवृक्ष के द्वारा सुगन्ध से सम्पूर्ण वन सुवासित होता है।

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