Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 17 शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 17 शकुन्तलाप्रत्याख्यानम्
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् Textbook Questions and Answers
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् Exercise
1. योग्यं विकल्पं चित्वा उत्तरं लिखत :
પ્રશ્ન 1.
नापेक्षितो गुरुजनः इति कः वदति?
(क) शकुन्तला
(ख) गौतमी
(ग) राजा
(घ) शारद्वतः
उत्तर :
(ख) गौतमी
પ્રશ્ન 2.
प्रायेण कुत्र विकाराः मूर्छन्ति?
(क) ऐश्वर्यमत्तेषु
(ख) पदोन्मत्तेषु
(ग) मदोन्मत्तेषु
(घ) क्रुद्धेषु
उत्तर :
(क) ऐश्वर्यमत्तेषु
પ્રશ્ન 3.
जाते ! मा लज्जस्व – इत्यत्र जाता शब्दस्य क; अर्घः?
(क) भगिनी
(ख) जननी
(ग) पुत्री
(घ) वधूः
उत्तर :
(ग) पुत्री
પ્રશ્ન 4.
शक्रावताराभ्यन्तरे शकुन्तलायाः किं प्रभ्रष्टम्?
(क) नूपुरम्
(ख) पुष्पमाला
(ग) अङ्गुलीयकम्
(घ) भुजबन्धः
उत्तर :
(ग) अङ्गुलीयकम्
પ્રશ્ન 5.
दीर्घापाङ्गः कः वर्तते?
(क) मृगः
(ख) खगः
(ग) गजः
(घ) मयूरः
उत्तर :
(क) मृगः
2. निम्नलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तरं संस्कृतभाषायां लिखत :
પ્રશ્ન 1.
शकुन्तलाया: अवगुण्ठनं का अपनयति?
उत्तर :
शकुन्तलायाः अवगुण्ठनं गौतमी अपनयति।
પ્રશ્ન 2.
दुष्यन्तः चिन्तयन्नपि किं न स्मरति?
उत्तर :
दुष्यन्तः चिन्तयन्नपि शकुन्तलाया स्वीकरणं न स्मरति।
પ્રશ્ન 3.
शकुन्तलाया: अङ्गुलिः कीदृशी आसीत्?
उत्तर :
शकुन्तलायाः अङ्गुलिः अङ्गुलीयकशून्या आसीत्।
પ્રશ્ન 4.
सर्व: कुत्र विश्वसिति?
उत्तर :
सर्वः सगन्धेषु विश्वसिति।
પ્રશ્ન 5.
परभृताः स्वम् अपत्यजातम् कथं पोषयन्ति?
उत्तर :
परभृताः अन्यैर्द्विजैः स्वम् अपत्यजातं पोषयन्ति।
3. Find out the names of the speakers of the following sentences and write into brackets: (गौतमी, शकुन्तला, राजा, शागिरवः)
- किम् अत्र भवती मया परिणीतपूर्वा।
- मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वर्यमत्तेषु।
- तपोवनसंवर्धितोऽनभिज्ञोऽयं जनः कैतवस्य।
- पावकः खलु वचनोपन्यास:।
- श्रोतव्यम् इदानी संवृत्तम्।
- अनार्य आत्मनोहृदयानुमानेन पश्यसि।
- इदं तत्प्रत्युत्पन्नमति: स्त्रैणम्।
- उदारः कल्पः।
- हा धिक्। अङ्गुलीयकशून्या मेऽगुलिः।
- अनृतमयवाङ्मधुभिराकृष्यन्ते विषयिण:।
- शान्तं पापम्। किं मां पातयितुमीहसे।
उत्तर :
- किम् अत्र भवती मया परिणीतपूर्वा। (राजा)
- मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वर्यमत्तेषु। (शार्डरारव:)
- तपोवनसंवर्धितोऽनभिज्ञोऽयं जनः कैतवस्य। (गौतमी)
- पावकः खलु वचनोपन्यास:। (शकुन्तला)
- श्रोतव्यम् इदानी संवृत्तम्। (राजा)
- अनार्य आत्मनोहृदयानुमानेन पश्यसि। (शकुन्तला)
- इदं तत्प्रत्युत्पन्नमति: स्त्रैणम्। (राजा)
- उदारः कल्पः। (राजा)
- हा धिक्। अङ्गुलीयकशून्या मेऽगुलिः। (शकुन्तला)
- अनृतमयवाङ्मधुभिराकृष्यन्ते विषयिण:। (राजा)
- शान्तं पापम्। किं मां पातयितुमीहसे। (राजा)
4. पर्यायपदानि लिखत :
- अनुरागः
- पावकः
- उदकम्
- परभृतः
उत्तर :
- अनुरागः – प्रणवः, स्नेहः, प्रीतिः
- पावकः – अग्निः, अनलः, वह्निः, कृशानुः
- उदकम् – जलम्, नीरम्, सलिलम्, अम्बु, अम्भः, वारि, तोयम्, अप, कम् (आपः)
- परभृतः – कोकिलः, पिकः
5. Explain with reference to context:
1. मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वमत्तेषु :
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् नामक पाठ से ली गयी है। इस पाठ की विषयवस्तु कालिदासकृत – अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। पाठ के इस अंश में सगर्भा शकुन्तला को दो ऋषि कुमार एवं तापसवृद्धा गौतमी राजा दुष्यन्त के पास पहुँचाने के लिए आते हैं, किन्तु ऋषि के शाप-वश राजा शकुन्तला के साथ किए गए विवाह को विस्मृत कर देते हैं तथा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं।
अनुवाद : ऐश्वर्य से मत्त जनों के ये विकार अभिवर्धित हो जाते हैं। यह कथन है ऋषि कण्व के आश्रम से शकुन्तला को विदा करने हेतु आए ऋषिकुमार शार्डगरव का। ऋषिकुमारों एवं तापसवृद्धा गौतमी शकुन्तला को लेकर राजा दुष्यन्त के पास आते हैं।
शाङ्गुरव राजा दुष्यन्त से शकुन्तला को स्वीकार करने हेतु कहते हैं कि हे राजन्, आप साथ में धर्माचरण करने हेतु शकुन्तला को स्वीकार करें। इस प्रकार अचानक राजा दुष्यन्त राज-प्रासाद में उपस्थित ऋषिकुमारों, शकुन्तला एवं तापस-वृद्धा गौतमी को देखकर एवं उनकी बातें सुनकर आश्चर्य करते हैं। ऋषि के शाप-वश वे शकुन्तला से किए गए विवाह को भूल जाते हैं।
राजा शकुन्तला से पूछते हैं कि क्या आप मेरे साथ पूर्व में परिणित हैं? पूर्व में प्रणयासक्त होकर किए गए विवाह के पश्चात् राजा के द्वारा वर्तमान में किये जा रहे परिवर्तित व्यवहार को देखकर शकुन्तला के साथ तापस-वृद्धा गौतमी आदि सभी विचलित हो जाते हैं।
राजा दुष्यन्त के द्वारा किए गए उद्धृत व्यवहार को देखकर ऋषिकुमार शार्गरव राजा से कहते हैं कि ये विकार प्रायः ऐश्वर्यमत्तों में बढ़ जाते हैं। ऐश्वर्य से मत्त-जन अपने द्वारा किए गए वचनों पर स्थिर नहीं रहते तथा वे अपने वचनों का निर्वहन नहीं करते हैं।
इस सामान्य व्यवहार को जानकर तथा ऋषि के द्वारा प्रदत्त शाप में अनभिज्ञ होने के कारण शाजैरव इस प्रकार अपने विचार व्यक्त करते हैं तथा वे राजा से अपेक्षा करते हैं कि वे शकुन्तला को स्वीकार करें।
2. सर्व: सगन्धेषु विश्वसिति।
अर्थ : सभी स्वयं के समान जाति वालों में विश्वास करते हैं।
यह कथन शकुन्तला के द्वारा कहा गया है।
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् नामक पाठ से ली गयी है। इस पाठ की विषयवस्तु कालिदासकृत – अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। पाठ के इस अंश में सगर्भा शकुन्तला को दो ऋषि कुमार एवं तापसवृद्धा गौतमी राजा दुष्यन्त के पास पहुँचाने के लिए आते हैं, किन्तु ऋषि के शाप-वश राजा शकुन्तला के साथ किए गए विवाह को विस्मृत कर देते हैं तथा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं।
राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला को नहीं स्वीकारते हैं तथा वे उसके साथ किए गए विवाह को स्मरण नहीं कर पाते हैं तब शकुन्तला राजा के द्वारा प्रदत्त स्मृति-चिह्न अँगूठी दिखाने के लिए अंगूलियों में ढूँढ़ती है। किन्तु शक्रावतार में शचीतीर्थ को वन्दन करते समय शकुन्तला की अंगुलि में से अंगूठी निकल जाती है। इस प्रकार शकुन्तला स्मृतिचिह्न मुद्रिका दिखाने में असफल होती है।
इस अवस्था में शकुन्तला आश्रम में घटित एक घटना का स्मरण कराती है। शकुन्तला के अनुसार एक दिन नवमालिका के मण्डप में राजा के हाथ में कमल-पत्र के पात्र में जल था। तब दीर्घापाङ्ग नामक एक बाल-हिरण वहाँ उपस्थित हुआ था। वह प्रथम आपके हाथ से जलपान करे इसलिए बुलवाया गया था, किन्तु आपके अपरिचित होने के कारण उसने आपके हाथ से जल-ग्रहण नहीं किया।
तत्पश्चात् उसने मेरे हाथ से जलपान करके मेरे प्रति स्नेह प्रदर्शित किया था। तब आपने कहा था सभी स्वयं की जाति पर विश्वास करते हैं। तुम दोनों वनवासी हों।’ यहाँ राजा के कथन का आशय यह था कि हिरण एवं शकुन्तला दोनों ही अरण्य में निवास करते है। अतः आरण्यक होने के कारण हिरण को शकुन्तला में अत्यधिक विश्वास था। इस प्रकार आश्रम में घटित इस घटना के वर्णन से वह राजा को अपने साथ किए गए प्रणय एवं परिणय का स्मरण कराने का प्रयत्न करती है।
3. अनृतमयवाङ्मधुभिराष्कृष्यन्ते विषयिणः।
अनुवाद : विषयीजन असत्यमय वाणीरूपी मधु से आकर्षित होते हैं। इस कथन के वक्ता राजा दुष्यन्त हैं।
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् नामक पाठ से ली गयी है। इस पाठ की विषयवस्तु कालिदासकृत – अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। पाठ के इस अंश में सगर्भा शकुन्तला को दो ऋषि कुमार एवं तापसवृद्धा गौतमी राजा दुष्यन्त के पास पहुँचाने के लिए आते हैं, किन्तु ऋषि के शाप-वश राजा शकुन्तला के साथ किए गए विवाह को विस्मृत कर देते हैं तथा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं।
तापसवृद्धा गौतमी एवं शाङ्गुरव के कहने पर तथा शकुन्तला को देखकर भी राजा शकुन्तला के साथ किए गए परिणय को स्मरण नहीं कर पा रहे हैं। राजा दुष्यन्त को पूर्वकृत विवाह-प्रसंग का स्मरण कराने के लिए शकुन्तला राजा के द्वारा दी गई मुद्रिका दिखाना चाहती है किन्तु दैववशात् वह मुद्रिका भी शकुन्तला के पास नहीं है। अत: राजा को आश्रम में घटित संस्मरणों का वर्णन करके शकुन्तला पूर्वकृत प्रणय का स्मरण कराना चाहती है।
किन्तु शकुन्तला अपने इस प्रयास में भी विफल हो जाती है। बालमृग के द्वारा राजा दुष्यन्त के हाथों से जलग्रहण न कर शकुन्तला के हाथों से ग्रहण करने पर वे कहते हैं कि सभी को स्व-जाति में विश्वास होता है। शकुन्तला एवं हिरण दोनों के आरण्यक होने के कारण हिरण को शकुन्तला में अधिक विश्वास शकुन्तला के द्वारा इस घटना का वर्णन करने पर राजा जन-सामान्य में प्रचलित व्यवहार को जानते हुए कहते हैं कि विषयी लोग इस प्रकार के असत्यपूर्ण मधुर वाणी से आकृष्ट होते हैं।
समाज में अधिकांश रूप से सामान्य विषयीजन इस प्रकार मधुर वाणी से आकृष्ट होते हैं। लेकिन इस कथन के द्वारा राजा का संयम, न्यायप्रियता एवं चारित्रिक उत्कृष्टता प्रतीत होती है। इस कथन से यह ज्ञात होता है कि राजा विषयी-जनों की भाँति किसी के मधुर शब्द-जाल में या रूप में आकृष्ट हो कर धर्मपथ से विचलित नहीं हो सकते हैं।
6. Write a critical note on:
Question 1.
Mental state of Shakuntala
उत्तर :
शकुन्तला की मन:स्थिति :
अभिज्ञान-शाकुन्तलम् नामक नाटक में कालिदास ने शकुन्तला के रूप में भारतीय नारी के उत्कृष्टतम् आदर्श को अभिव्यक्त किया है। राजा दुष्यन्त के द्वारा उसे सहधर्मचारिणी के रूप में स्वीकार न किए जाने पर मानो उस पर वज्रपात हो गया हो ऐसा प्रतीत होता है। मानो राजा दुष्यन्त के मुख से निःसृत वचन साक्षात् अग्नि हो, इस भाँति उसे अनुभव हो रहा था। राजा के द्वारा न पहचानने पर शकुन्तला विषाद-ग्रस्त हो जाती है।
वह विषादपूर्वक कहती है ‘हृदय ! साम्प्रतं ते आशङ्का।’ इस विषाद एवं दुःख की अवस्था में भी शकुन्तला ने धैर्य धारण कर रखा है। धैर्यपूर्वक शकुन्तला राजा को उसके द्वारा किए गए परिणय को स्मरण कराने के लिए नृप-प्रदत्त-मुद्रिका न मिलने पर तत्कालीन घटित एक घटना का मधुर संस्मरण सुनाती है। लेकिन राजा यह कहते हैं कि, विषयी जन इस प्रकार के मधुरालाप से आकृष्ट होते हैं तथा वे शकुन्तला के तर्क को स्वीकार नहीं करते हैं।
पाठ में प्रदत्त अंशानुसार अन्त में शकुन्तला को कहना पड़ता है कि उसे स्वच्छन्दचारिणी माना जा रहा है तथा इस प्रकार कहकर वह रूदन करने लगती है।।
Question 2.
Arguments of Rishikumars – Sharnagarava and Shardwata
उत्तर :
ऋषिकुमार शाख़रव और शारदत के तर्क :
महर्षि कण्व के आश्रम से शकुन्तला को पति गृह पहुँचाने के लिए उसके साथ दो ऋषिकुमार एवं तापस वृद्धा गौतमी, राजा दुष्यन्त के राज-प्रासाद में उपस्थित होते हैं। दोनों ऋषिकुमार शाङ्गुरव एवं शारद्वत धर्मज्ञ, धीर, विनयी, स्पष्टवक्ता व व्यवहार कुशल हैं।
राजा दुष्यन्त के पूछने पर कि ‘भगवान् कण्व क्या आज्ञा प्रदान कर रहे हैं?’ शाङ्गुरव अत्यन्त कुशलता से राजा से निवेदन करते हैं कि उनकी पुत्री शकुन्तला के साथ आपके द्वारा किए गए परिणय को वे स्वीकार करते हैं अतः आप सगर्भा शकुन्तला को साथ में धर्माचरण हेतु स्वीकार करें यह महर्षि कण्व की आज्ञा है। राजा के द्वारा शकुन्तला को न पहचान पाने की अवस्था में शाङ्गुरव कहते हैं यह कैसे हो सकता है?
‘भवन्तः एव सुतरां लोकवृत्तान्त निष्णाता:।’ अर्थात् ‘आप ही नितान्त लोक व्यवहार में कुशल हैं। शाङ्गुरव यह समझाना चाहते हैं कि राजा के समान लोकवृत्तान्त में कुशल व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार का अनुचित व्यवहार शोभा नहीं देता है। तत्पश्चात् राजा के द्वारा किए विवाह के प्रति उसकी आशंका देखकर शाख़रव कहते हैं, क्या किए गए कार्य के प्रति द्वेष, धर्म के प्रति अवज्ञा या विमुखता नहीं हैं?
शाङ्गुरव के इस प्रकार समझाने पर भी जब राजा दुष्यन्त कहते हैं – ‘कुतोऽयम् असत्कल्पनाप्रश्न:।’ (यह असत्य पूर्ण काल्पनिक प्रश्न कहाँ से?) तब शाजैरव निर्भीकतया कहते हैं – ‘मूर्च्छन्त्यमी विकारा प्रायेणैश्वर्यमन्तेषु’ (ऐश्वर्यमत्त जनों में ये विकार अभिवर्धित होते हैं।)
इस प्रकार निस्संकोच राजा से अपने विचार व्यक्त करते हुए शकुन्तला को देखने पर भी जब राजा विचारमग्न होते हैं तो शाख़रव राजा से पूछते हैं – ‘भो राजन्किम् इति जोषम् आस्यते? (हे राजन् ! मौन क्यों हो?) शाङ्गुरव के द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर प्रत्युत्तर में राजा के कहने पर कि वे शकुन्तला के साथ अपने परिणय को स्मरण नहीं कर पा रहे हैं तब एक अन्य ऋषिकुमार शारद्वत शकुन्तला से कहते हैं वह उन्हें विश्वासोत्पादक प्रत्युत्तर प्रदान करे।
इस प्रकार कालिदास की लेखनी के द्वारा दोनों ऋषिकुमारों के चरित्र में उदात्तता, कर्मनिष्ठता सत्य एवं धर्मपरायणता होने के साथ अभयत्व का दर्शन होता है जो अपने तर्कों से राजा को भी सत्य-दर्शन कराने में समर्थ हैं।
Question 3.
Confusion of Dushyanta in recognising Shakuntala
उत्तर :
शकुन्तला के अभिज्ञान में दुष्यंत की दुविधा :
राजा दुष्यन्त धर्म-परायण, लोकव्यवहार में निष्णात, प्रजा-प्रिय थे। महर्षि कण्व के आश्रम में शकुन्तला के प्रति प्रणयाकृष्ट होकर उसका पाणिग्रहण करते हैं, किन्तु दुर्वासा ऋषि के शापवश वे उसे भूल जाते हैं। दोनों ऋषिकुमारों एवं तापस वृद्धा गौतमी के कहने पर भी शकुन्तला के साथ अपने परिणय का स्मरण कर पाने में असमर्थ हैं। गौतमी के द्वारा शकुन्तला का घूघट उठाने पर भी उसे देखने के पश्चात् भी उसे पहचान नहीं पाते हैं।
अब शकुन्तला के पास से राजा के द्वारा स्मृति-चिह्न के रूप में प्रदत्त मुद्रिका भी शचीतीर्थ के जल में गिर जाती है। अतः शकुन्तला के पास स्मृति चिह्न के रूप में दिखाने के लिए कुछ भी शेष नहीं हैं। परिणामस्वरूप अब वह केवल आश्रम में घटित संस्मरणों के माध्यम से पूर्व कृत परिणय का स्मरण कराने हेतु प्रयत्न करती है किन्तु सब कुछ व्यर्थ होता है।
यहाँ राजा दुष्यन्त की दुविधा यह है कि वे शकुन्तला को अपरिचित होने के कारण स्वीकार नहीं कर सकते हैं। किसी अन्य अपरिचित स्त्री को अचानक पत्नी के रूप में स्वीकार करना अधर्म एवं अन्यायपूर्ण है अत: इस प्रकार का अनर्थ करना उनके लिए सर्वथा अनुचित है।।
दूसरी ओर तपोनिष्ठ धर्मपरायण ऋषिकुमारों एवं तापसवृद्धा गौतमी एवं शकुन्तला के वचनों का तिरस्कार, अपमान या उनकी अवज्ञा भी अनुचित ही हैं। इस प्रकार राजा दुष्यन्त न तो शकुन्तला को स्वीकार कर सकते हैं न ही परित्याग।
किन्तु स्मृतिचिह्न के अभाव में एक न्यायप्रिय, नैतिकतापूर्ण एवं धर्मपरायण राजा के लिए किसी स्त्री को पत्नी के रूप में स्वीकारना अयोग्य है। अत: वे उसे स्वीकार करने में असमर्थ हैं।
7. Write an analytical note on:
- आर्यपुत्रः
- आत्मगतम्
- अभिज्ञानम्
1. आर्यपुत्र :
संस्कृत साहित्य में आर्यपुत्र का अर्थ पति के रूप में प्रयुक्त होता है। आर्यपुत्र का सामान्य अर्थ तो समाज के सम्माननीय प्रतिष्ठित व्यक्ति का पुत्र होता है। आर्यस्य पुत्रः इति आर्यपुत्रः। इस प्रकार यहाँ आर्य शब्द का आशय ससुर के अर्थ में ग्राह्य होने पर आर्य अर्थात् ससुर का पुत्र अर्थात् पति।
संस्कृत नाटकों में विशेषतया पति के सम्बोधनार्थ इस शब्द का प्रयोग किया जाता है।
2. आत्मगतम् :
संस्कृत साहित्य में नाटकों में प्राय: पात्रों के अभिनय हेतु मार्गदर्शनार्थ इस शब्द का प्रयोग होता है। आत्मगतम् का आशय है मनोभाव। आत्मगतम् के दिग्दर्शन के पश्चात् प्रदत्त वाक्य नाटक का पात्र रंचमंग के अग्रभाग में आकर उच्च स्वर से श्रोतागण के श्रवणार्थ बोलता है किन्तु नाटक के अन्य पात्र उस वाक्य को न सुनने का अभिनय करते है। इस प्रकार यह स्वगतोक्ति है।
जिसमें पात्र के मन में चल रहे विचारों को श्रोता समझ सकें किन्तु नाटक के अन्य पात्र नहीं। इस प्रकार अन्य शब्दों में कहें तो आत्मगतम् एक मनोगतभाव है। आत्मगतम् के माध्यम से दर्शक नाटक के पात्र के हृदयस्थभाव या मन में चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को जान लेते हैं। लेकिन रंगमंच पर ही उपस्थित अन्य पात्र श्रवण नहीं कर पाते हैं।
3. अभिज्ञानम् :
अभिज्ञानम् अर्थात् परिचय चिह्न। जिसके माध्यम से व्यक्ति का परिचय स्वयं ही कुछ भी न कहते हुए होता है। राजा दुष्यन्त ने शकुंतला के पास से राज-प्रासाद में लौटते समय परिचय के रूप में अपनी राज-मुद्रिका प्रदान की थी। लेकिन दुर्भाग्यवश वह खो गई।
अत: पहचान-पत्र रूपी मुद्रिका के न मिलने पर शकुन्तला के साथ आए ऋषिकुमार एवं तपस्विनी गौतमी आदि विचलित हो जाते हैं। इस प्रकार शकुन्तला का अभिज्ञान न होने पर राजा दुष्यन्त शकुन्तला का स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् Additional Questions and Answers
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् स्वाध्याय
1. योग्यं विकल्पं चित्वा उत्तरं लिखत।
પ્રશ્ન 1.
अनृतमयवाङ्मधुभिः के आकृष्यन्ते?
(क) विद्वांसः
(ख) मुनयः
(ग) विषयिणः
(घ) महिलाः
उत्तर :
(ग) विषयिणः
પ્રશ્ન 2.
सर्वः कस्मिन् विश्वसिति?
(क) गन्धेषु
(ख) सगन्धेषु
(ग) सुगन्धेषु
(घ) दुर्गन्धेषु
उत्तर :
(ख) सगन्धेषु
2. निम्नलिखितानां प्रश्नानां उत्तरं संस्कृतभाषायां लिखत।
પ્રશ્ન 1.
शकुन्तला दुष्यन्तस्य शङ्कानिवारणार्थं किं दर्शयितुमिच्छति?
उत्तर :
शकुन्तला दुष्यन्तस्य शङ्कानिवारणार्थं अङ्गुलीयकं दर्शयितुम् इच्छति।
પ્રશ્ન 2.
मृगपोतकस्य नाम किम् अस्ति?
उत्तर :
मृगपोतकस्य नाम दीर्घापाङ्गः अस्ति।
પ્રશ્ન 3.
विषयिणः कथम् आकृष्यन्ते?
उत्तर :
विषयिण: अनृतमयवाङ्मधुभिराकृष्यन्ते।
પ્રશ્ન 4.
तपोवनसंवर्धितः जनः कस्य अनभिज्ञ:?
उत्तर :
तपोवनसंवर्धितः जनः कैतवस्य अनभिज्ञः।
પ્રશ્ન 5.
आपन्न सत्त्वा का?
उत्तर :
आपन्न सत्त्वा शकुन्तला अस्ति।
4. पर्यायपदानि लिखत।
- दुहिता –
- विधि: –
- कैतवम् –
उत्तर :
- दुहिता – पुत्री, आत्मजा, सुता
- विधि: – दैवम्, प्रारब्धम्, नियतिः
- कैतवम् – कपटम्, छलम्
5. ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए।
1. प्रतिगृह्यताम् सहधर्माचरणायेति :
अनुवाद : (हे राजन ! आप) साथ में धर्माचरण हेतु शकुन्तला को स्वीकार करे। उपर्युक्त कथन कण्व मुनि के आश्रम से राजा दुष्यन्त के महल में आए हुए ऋषिकुमार शाङ्गुरव अभिव्यक्त करते हैं।
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् नामक पाठ से ली गयी है। इस पाठ की विषयवस्तु कालिदासकृत – अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। पाठ के इस अंश में सगर्भा शकुन्तला को दो ऋषि कुमार एवं तापसवृद्धा गौतमी राजा दुष्यन्त के पास पहुँचाने के लिए आते हैं, किन्तु ऋषि के शाप-वश राजा शकुन्तला के साथ किए गए विवाह को विस्मृत कर देते हैं तथा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं।
गौतमी एवं दो ऋषिकुमार कण्व के आश्रम से शकुन्तला को दुष्यन्त के राज-प्रासाद में पहुँचाने के लिए पहुँचते हैं। दुष्यन्त से उनका साक्षात्कार होता है। क्षेमकुशल के समाचार पूछने के पश्चात् राजा दुष्यन्त पूछते हैं किम् आज्ञापयति भगवान्? अर्थात् भगवान् कण्व ने क्या आज्ञा प्रदान की है?
इस प्रश्न के उत्तर के शाङ्गुरव यह उपर्युक्त वाक्य कहते हैं। ऋषिकुमार शाख़रव के इस वाक्य में उनका गाम्भीर्य झलकता है तथा साथ में भारतीय संस्कृति में स्त्री का उत्कृष्ट स्थान होता है यह भी परिलक्षित होता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार सभी धार्मिक अनुष्ठान एवं पुरुषार्थ चतुष्ट्य की पूर्ति में स्त्री का पत्नी के रूप में उत्कृष्ट स्थान है। पत्नी के बिना धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो सकते हैं।
यहाँ शाङ्गुरव सम्पूर्ण बौद्धिक परिपक्वता के साथ धार्मिक क्रियाओं की सिद्धि हेतु शकुन्तला का अंगीकार करने हेतु राजा से निवेदन करते हैं। यहाँ शाङ्गुरव के मन का अन्तर्निहित भाव यह भी है कि राजा उसे ऋषिकन्या मानकर या अनाथ मानकर किसी भी प्रकार उसका अनादर न करें।
इस प्रकार विनयपूर्वक निर्भीकता के साथ अपने मनोभाव राजा से अभिव्यक्त करने के कारण शाख़रव के स्पष्ट वक्ता होने का गुण भी ज्ञात होता है।
2. पावकः खलु वचनोपन्यास:।
अनुवाद : कहा हुआ यह वचन साक्षात् रूप से पावक (अग्नि) ही है।।
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् नामक पाठ से ली गयी है। इस पाठ की विषयवस्तु कालिदासकृत – अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। पाठ के इस अंश में सगर्भा शकुन्तला को दो ऋषि कुमार एवं तापसवृद्धा गौतमी राजा दुष्यन्त के पास पहुँचाने के लिए आते हैं, किन्तु ऋषि के शाप-वश राजा शकुन्तला के साथ किए गए विवाह को विस्मृत कर देते हैं तथा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं।
ऋषिकुमार एवं गौतमी दुष्यन्त से कहते हैं कि शकुन्तला के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है, महर्षि कण्व ने यह अंगीकार किया है तथा अब आप सह धर्मचरणार्थ शकुन्तला को स्वीकार करें। इस प्रस्तावना के प्रत्युत्तर में राजा दुष्यन्त कहते हैं किम् इदम् उपन्यस्तम? यह क्या लाकर रखा है –
(या व्यवहार में यह क्या लगा रखा है?) यहाँ क्यों किसी अन्य की धरोहर लाकर रखी है। दुष्यंत के इस प्रकार के कठोर वचनों को सुनकर आहत हुई शकुन्तला उपर्युक्त वाक्य कहती है। इस वाक्य के माध्यम से शकुन्तला के आहत-हृदय की वेदना अभिव्यक्त होती है।
एक सम्पूर्ण भारतीय नारी का आदर्श शकुन्तला के चरित्र में चित्रित होता है। सम्पूर्ण रूप से दुष्यन्त के प्रति समर्पित एवं पूर्व परिणीत शकुन्तला जब दुष्यन्त के मुख से अनुचित वचन सुनती है तथा राजा के द्वारा उसे न पहचानने एवं न स्वीकारने की स्थिति में उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो दुष्यन्त के वचन, वचन नहीं हैं प्रत्युत साक्षात् अग्नि के रूप में उसकी देह-यष्टि को दहन करते जा रहे हैं।
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् Summary in Hindi
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् सन्दर्भ
महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि हैं। उनकी ख्याति देश-देशान्तर में है। महाकवि कालिदास ने तीन नाटक, दो महाकाव्य तथा दो खंडकाव्य इस प्रकार कुल सात कृतियों की रचना की है। तीन नाटकों में रचना क्रमानुसार प्रथम मालविकाग्निमित्रम्, द्वितीय विक्रमोवीयम् तथा तृतीय अभिज्ञानशाकुन्तलम् है।
यथा संयोग यह उनकी उत्कृष्टता का क्रम भी बन गया है। कालिदास की नाट्यकला में उत्तरोत्तर सौन्दर्याभिवर्धन होता रहा है। इस प्रकार अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास की सर्वाधिक सुन्दर कृति है।
इस पाठ में प्रदत्त नाट्यांश अभिज्ञानशाकुन्तलम् के पाँचवें अंक से उद्धृत किया गया है। चतुर्थांक में कण्व के आश्रम से पतिगृह गमनार्थ शकुन्तला को विदाई दी जाती है, तत्पश्चात् पंचमांक में शकुन्तला राजा दुष्यन्त के प्रासाद में पहुँचती है।
पतिगृह भेजने के लिए शकुन्तला के साथ तापस-वृद्धा गौतमी एवं गुरुकुल के अन्य दो ऋषिकुमार शारिव एवं शारद्वत गए हैं। गौतमी शकुन्तला का परिचय देकर राजा दुष्यन्त को उसे स्वीकार करने हेतु निवेदन करती है। ऋषि दुर्वासा के शाप के प्रभाव से राजा दुष्यन्त शकुन्तला के साथ किए गए विवाह का स्मरण नहीं कर पाते हैं तथा शकुन्तला को इस रूप में पहचान भी नहीं पाते हैं।
अतः राजा दुष्यन्त शकुन्तला को स्वीकार नहीं करते हैं। इस अवसर पर राजा, शकुन्तला, गौतमी तथा दो ऋषि कुमारों के मध्य घटित संवाद-विवाद – शकुन्तला प्रत्याख्यान के रूप में सम्पादित कर यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् शब्दार्थ
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम् = शकुन्तला का प्रत्याख्यान, शकुन्तला का अस्वीकार – शकुन्तलाया: प्रत्याख्यानम् – षष्ठी तत्पुरुष समास आज्ञापयति = आज्ञा देता है – आ + ज्ञा धातु – प्रेरणार्थक, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। मिथ: समयात् = परस्पर की सहमति से। मदीयाम् = मेरी। दुहितरम् = पुत्री को – दुहितृ – स्त्रीलिङ्ग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन। उपायंस्त = परिणय किया, विवाह किया – उप + यम्, अ.भू. अ. ए. व.। प्रीतिमता = प्रेमयुक्त – प्रीतिमत् – तृतीया विभक्ति एकवचन। अनुज्ञातम् = आज्ञा, अनुमति दी – अनु + ज्ञा धातु, क्त प्रत्यय – कर्मणि भूतकृदन्त।
आपन्न सत्त्वा = सगर्भा – आपन्नं – सत्त्वं यस्याः सा – बहुव्रीहि समास। प्रतिगृह्यताम् = स्वीकार करो – प्रति + ग्रह – क.प्र. आज्ञाः, अ.पु., ए.व.। सहधर्मचरणाय = सहधर्म चरणार्थ – प्राय: धार्मिक कार्यों में पति के लिए पत्नी को साथ रखना अनिवार्य होता है। इस प्रकार के धर्माचरण के लिए। वक्तुकामा = कहने की इच्छा करनेवाला, कहने का इच्छुक – वक्तुं कामः यस्याः सा – बहुव्रीहि समास। वचनावसरः = कहने का अवसर – वचनस्य अवसरः। पृष्टः = पूछा गया – पृच्छ् धातु + क्त – कर्मणि भूत कृदन्त। बन्धुजनः = सगे सम्बन्धी। चरिते = आचरण के सन्दर्भ में।
भणामि = कहता हूँ – भण् धातु, वर्तमानकाल, उत्तम पुरुष, एकवचन। एकैकम् = हर एक को। आत्मगतम् = मनमें, स्वयं से – आत्मनि गतम् – सप्तमी तत्पुरुष समास। आर्यपुत्र: = आर्यपुत्र – पति के सम्बोधनार्थ प्रयुक्त परंपरागत शब्द। उपन्यस्तम् = आया हुआ, लाकर रखा हुआ – उप + नि + अस् + क्त – कर्मणि भूत कृदन्त। पावकः = अग्नि। वचनोपन्यास: = कहे हुए वचन – वचनानाम् उपन्यासः – षष्ठी तत्पुरुष समास। सुतराम् = नितांत, अत्यधिक। लोकवृत्तान्तनिष्णाता: = लोक के वृत्तान्त-व्यवहार में निष्णात – लोकानाम् वृत्तान्तः – षष्ठी तत्पुरुष समास।
लोकवृत्तान्तेषु निष्णाता: – सप्तमी तत्पुरुष समास। अत्रभवती = आप श्रीमती। परिणीतपूर्वा = पूर्व में (पहले) परिणीत, विवाहित। सविषादम् = दुःख के साथ – विषादेन सहितम् – अव्ययीभाव समास। साम्प्रतम् = अभी, अव्यय। आशङ्का = संयम, शंका। कृतकार्यद्वेषः = किए गए कार्य के प्रति द्वेष। विमुखता = पराङ्मुखता। कृतावज्ञा = अवगणना, उपेक्षा – कृता चासौ अवज्ञा – कर्मधारय समास। असत्कल्पना प्रश्नः = मिथ्या काल्पनिक प्रश्न – न सत् इति – नञ् तत्पुरुष, असतः कल्पना – षष्ठी तत्पुरुष समास, असत्कल्पनायाः प्रश्नः – षष्ठी तत्पुरुष समास।
मूर्च्छन्ति = बढ़ जाता है – मूर्च्छ धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। अमी = ये सब, अदस् सर्वनाम शब्द प्रथमा बहुवचन। ऐश्वर्यमत्तेषु = ऐश्वर्य से मत्त जनों में, सत्ता के अहंकारियों में। विशेषेणाधिक्षिप्तः = अत्यधिक आक्षेप। जाते = जाता – स्त्रीलिंग सम्बोधन एकवचन – हे पुत्री – संस्कृत भाषा में सम्बोधन के लिए हे पुत्रि इस प्रकार ह स्व इकार होता है। मुहूर्तम् = कुछ क्षण, कुछ ही समय। मा लज्जस्व = लज्जा मत करो। अपनेष्यामि = दूर करूँगा – अप + नी धातु – सामान्य भविष्यकाल, उत्तम पुरुष – एकवचन। अवगुण्ठनम् = चूँघट।
अभिज्ञास्यति = जान लेगा, पहचान लेगा – अभि + ज्ञा धातु – भविष्यकाल, अन्य पुरुष – एकवचन। विचारयन् = विचार करते हुए – वि + चर् धातु, प्रे., शतृ प्रत्यय – वर्तमान कृदन्त। जोषम् = मौन। आस्यते = रहता है। तपोधना: = तपस्वी – तपः एव धनं येषांते – बहुव्रीहि समास। चिन्तयन् = चिन्तन – विचार करते हुए – चिन्त् धातु शत् प्रत्यय (अत्) वर्तमान कृदन्त, प्रथमा विभक्ति, एकवचन। स्वीकरणम् = स्वीकार करना – यहाँ विवाह करके पत्नी के रूप में स्वीकार करने का अर्थ ग्राह्य है। अत्रभवत्या: = आपका। अपवार्य = एक ओर मुडकर के – अप + वार् + ल्यप् – सम्बन्धक भूत कृदन्त।
परिणये = विवाह में। दूराधिरोहिण्याशा = अत्यधिक ऊपर उड़नेवाली (अत्यधिक) आशा – अधिरोहिणी चासौ आशा – कर्मधारय समास, दूरे अधिरोहिण्याशा – सप्तमी तत्पुरुष। अत्रभवान् = आप, श्रीमान्। दीयताम् = दो, दीजिए। प्रत्ययप्रतिवचनम् = विश्वासोत्पादक उत्तरप्रत्ययस्य प्रतिवचनम् – षष्ठी तत्पुरुष समास। अवस्थान्तरम् = विपरीत स्थितिको। गते = प्राप्त होने पर। तादृशे = उस प्रकार के। अनुरागे = अनुराग-प्रेम में। स्मारितेन = याद कराने से। प्रकाशम् = उच्च स्वर से – नाट्यकार के द्वारा सूचित एक सूचना, नाटक के मंचन के समय नट के द्वारा अनुसरणीय सूचना।
पौरव = हे पौरव पुरुवंश में उत्पन्न होने के कारण दुष्यन्त का एक नाम। युक्तम् नाम – योग्य है? समयपूर्वम् = पूर्व में वचन (वादा) देकर। प्रतार्य = छल करके – प्र + तृ + ल्यम् – सम्बन्धक भूतकृदन्त। ईद्दशैः अक्षरैः = इस प्रकार के वचनों से। प्रत्याख्यातुम् = प्रत्याख्यान करने हेतु, खंडन करने के लिए – विरोध करने के लिए – प्रति + आ + ख्या + तुमुन् – हेत्वर्थक कृदन्त। पिधाय = ढंक कर। शान्तं पापम् = अरे नहीं, यह पदावलि संस्कृत नाटकों में कभी आश्चर्य तो कभी अफसोस व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त होती है। पातयितुम् = पत् धातु – प्रेरणार्थक – तुमुन् – हेत्वर्थक कृदन्त – गिराने के लिए।
ईहसे = इच्छा करता है, चाहता है – ईह् धातु, वर्तमान काल, मध्यम पुरुष, एकवचन। भवतु = रहने दो, हो – भू धातु, आज्ञार्थ, अन्य पुरुष, एकवचन। अभिज्ञानेन = परिचय चिह्न से दूर करूँगा। उदार: कल्प: = उत्तम प्रस्ताव। मुद्रास्थानम् = मुद्रिका (अंगूठी) पहिनने के स्थान को। परामृश्य = परामर्श करके, जाँच करके – परा + मृश् + ल्यप् = सम्बन्धक भूतकृदन्त। अङ्गुलीयकशून्या = मुद्रिकारहित – अङ्गुलीयकेन शून्या: – तृतीया तत्पुरुष। अवेक्षते = देखता है – अव + ईक्ष् धातु, वर्तमानकाल, अन्य पुरुष, एकवचन।
शक्रावताराभ्यन्तरे = शक्रावतार (नामक एक तीर्थ-स्थल) के अन्दर – शक्रावतारस्य अभ्यन्तरे – षष्ठी तत्पुरुष समास। शचीतीर्थसलिलम = शचीतीर्थ का जल -शची चासौ तीर्थः – कर्मधारय समास। शची तीर्थस्य सलिलम् – षष्ठी तत्पुरुष समास। वन्दमानाया: = वन्दन कर रही शकुन्तला का – वन्द धातु, शानच प्रत्यय – वर्तमान कृदन्त। प्रभ्रष्टम् = गिर चुकी, गिर गई – प्र + भ्रस्ज + क्त – कर्मणि भूतकृदन्त। प्रत्युत्पन्नमति = तत्काल सही उत्तर प्रदान करनेवाला – प्रत्युत्पन्ना मतिः यस्य तत् – बहुव्रीहि समास। स्त्रैणम् = स्त्रीत्व – स्त्रियः इदम् – तद्धित प्रत्यय। विधिना – भाग्य से, भाग्य के कारण।
दर्शितम् = दिखाया – द्दश् (प्रे.) – क्त प्रत्यय, कर्मणि भूतकृदन्त। श्रोतव्यम् = सुनने योग्य श्रु धातु + तव्यत् प्रत्यय – विध्यर्थ कृदन्त। इदानीम् = अभी, अब। संवृत्तम् = हो गया। नवमालिकामण्डपे = नव-मालिका के कुंजमंडप में। नलिनीपत्रभाजनगतम् = कमल के पत्र के पात्र में स्थित। उदकम् = जल। संनिहितम् = रखा। शृणुमः = (हम) सुनते हैं – ञ्चु धातु, वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन। पुत्रकृतकः = पुत्र की भाँति पालित। दीर्घापाङ्गे: नाम = दीर्घापाङ्ग नामक। मृगपोतक: = बाल हिरण। उपस्थित: = उपस्थित हुआ – उप + स्था + क्त – कर्मणि भूतकृदन्त।
अनुकम्पिना = दयालु व्यक्ति से – अनुकम्पिन् – पुल्लिंग तृतीया विभक्ति एकवचन। उपच्छन्दित: = पुचकार कर बुलवाया हुआ, कहलाया हुआ। उपगतः = पास आया। गृहीते सलिले = पानी पीने पर – सति सप्तमी का प्रयोग किया गया है। इत्थम् = इस प्रकार। प्रणय: = स्नेह। प्रहसितः = हँसा था – प्र + हस् धातु + क्त प्रत्यय – कर्मणि भूतकृदन्त। सगन्धेषु = स्वयं की जातिवालों में। विश्वसिति = विश्वास करता है – वि + श्वस् + वर्तमान काल, अन्य पुरुष एकवचन। आरण्यकौः = वनवासी। अनृतमयवाङ्मधुभिः = असत्यमय वाणीरूप मधु से – अनृतमयं च तत् वाङ्मधु तैः कर्मधारय समास।
आकृष्यन्ते = आकर्षित होते हैं – आ + कृष् धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, बहुवचन। विषयिण: = विषयलोलुप – विषयिन् – पुल्लिंग – प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। महाभाग = महोदय – एक परंपरागत सम्बोधन। अर्हसि = (तुम) योग्य हो – अर्ह – वर्तमानकाल, अन्य पुरुष, एकवचन। मन्त्रयितुम् = कहने के लिए – मन्त्र + तुमुन् – प्रत्यय – हेत्वर्थक कृदन्त। तपोधनसंवर्धित: = तपोधन में संवधित -पालित – पोषित – तपोवने संवर्धितः – सप्तमी तत्पुरुष समास। अनभिज्ञः = अनजान, अपरिचित – न अभिज्ञः – नञ् तत्पुरुष समास। कैतवस्य = कपट से।
तापसवृद्धे = हे वृद्ध तापसी ! – तापसी चासौ वृद्धा – तापसवृद्धा – कर्मधारय समास – स्त्रीलिंग, संबोधन – एकवचन। अशिक्षितपटुत्वम् = सीखे बिना सहज चातुर्य। अमानुषी = मानवेतर में – न मानुषी – तासु – नञ् तत्पुरुष समास। संदृश्यते = दिखाई देता है – सम् + द्दश, कर्मणि प्रयोग, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। किम् उत = तो क्या। प्रतिबोधवत्यः = बुद्धि संपन्न प्रतिबोधवती – (स्त्रीलिंग) प्रथमा विभक्ति बहुवचन। अपत्यजातम् = संतानों को। परभृता: = कोयले। पोषयन्ति = पोषण करते हैं – पुष्, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। अनार्य = अनार्य, अपूज्य सम्बोधन।
आत्मज हृदयानुमानेन = स्वयं के हृदय के अनुमान से – हृदयस्य अनुमानम् तेन षष्ठी तत्पुरुष समास। धर्मकञ्चुकप्रवेशिनः = धर्म का चोला पहिननेवाले का – आपका। तृणछन्नकूपोपमस्य = तिनके से ढंके हुए कुएँ जैसे का – आपका तृणेन छन्नम् – तृतीया तत्पुरुष समास – तृणछन्नः चासौ कूपः – कर्मधारय समास। तृणछन्नकूपः उपमा यस्य सः – तस्य बहुव्रीहि समास। अनुकृतिम् = अनुकरण को। प्रतिपत्स्यते = कर सकेगा – प्रति + पट्ट + सामान्य भविष्यकाल अन्य पुरुष, एकवचन। प्रथितम् = प्रसिद्ध, फैला हुआ – प्रथ् + क्त प्रत्यय कर्मणि भूतकृदन्त।
शकुन्तलाप्रत्याख्यानम्अ नुवाद:
राजा : भगवान् कण्व क्या आज्ञा देते हैं?
शाङ्गुरव : आपने आपस की सहमति से जो मेरी पुत्री से विवाह किया उसे प्रेमपूर्वक आप दोनों को मैंने अनुमति प्रदान की है। तो अब इस सगर्भा को सहधर्माचरणार्थ स्वीकार कीजिए।
गौतमी : आर्य, मैं कुछ कहना चाहती हूँ। मेरे वचनों का अवसर नहीं है। किस प्रकार –
न इसके द्वारा गुरुजनों की अपेक्षा की गई न आपने सम्बन्धियों को पूछा हर एक के द्वारा किए गए आचरण में मैं हर एक को क्या कहूँ।
शकुन्तला : (स्वयं से) आर्यपुत्र क्या कहते हैं?
राजा : यह क्या लेकर आए हो?
शकुन्तला : (स्वयं से) निश्चित रूप से कहे गए वचन अग्नि है।
शाङ्गुरव : यह किस प्रकार? आप लोक व्यवहार में नितांत कुशल ही हैं।
राजा : क्या आप मुझसे पूर्व में विवाहित हैं?
शकुन्तला : (विषाद-पूर्वक) हृदय, आपको अब आशंका है।
शाङ्गुरव : किए गए कार्य के प्रति द्वेष होना धर्म के प्रति विमुखता एवं उपेक्षा है।
राजा : यह मिथ्या काल्पनिक प्रश्न कहाँ से? शाख़रव : ये विकार प्रायः ऐश्वर्य से मत्त जनों में बढ़ जाते हैं।
राजा : विशेष रूप से मुझ पर आक्षेप किए जा रहे हैं।
गौतमी : पुत्री ! क्षणभर के लिए लज्जा मत करो। मैं तुम्हारा पूँघट उठाती हूँ। अतः पति तुम्हें पहिचान लेंगे।
राजा : (विचार करते हुए खड़े हैं।)
शाङ्गुरव : हे राजन्। मौन क्यों है?
राजा : हे तपस्वियो। विचार करते हुए भी मुझे आपके (पत्नी के रूप में) स्वीकार करने का स्मरण नहीं हो रहा है?
शकुन्तला : आर्य का परिणय ही सन्देह है। कहाँ से अब मेरी अत्यधिक आशा?
शारद्वत : हे शकुन्तला हमारे द्वारा कहा जाने योग्य कहा गया है। यह आपने इस प्रकार कहा। (शकुन्तला) इन्हें विश्वासोत्पादक उत्तर दें।
शकुन्तला : (हटाकर) इस प्रकार विपरीत अवस्था के प्राप्त होने पर उस प्रकार के अनुराग में स्मरण कराने से क्या? (उच्च स्वर से) इस व्यक्ति को पूर्व में वचन देकर छलकर के अब इस प्रकार के अक्षरों से खंडन करने के लिए आप पौरव योग्य हैं।
राजा : (कान बन्द करके) अरे नहीं? क्या तुम मुझे गिराना चाहते हो?
शकुन्तला : ठीक है – यदि ऐसा है तो परिचय-चिह्न से तुम्हारे सन्देह को दूर करूँगी।
राजा : उत्तम विचार है।
शकुन्तला : (अँगूठी पहिनने के स्थान पर देख करके) अरे धिक्कार, मेरी अँगुली में अंगूठी नहीं है। (इस प्रकार विषाद-पूर्वक गौतमी को देखती है।)
गौतमी : निश्चय ही शक्रावतार तीर्थ में शचीतीर्थ के जल को वन्दन करते समय तुम्हारी अंगूठी गिर गई है।
राजा : (स्मितपूर्वक) प्रत्युत्पन्नमति होना यह स्त्रियों का स्वभाव है।
शकुन्तला : यहाँ भाग्य ने प्रभुत्व दिखाया है।
राजा : सुनने योग्य अब सुन लिया।
शकुन्तला : एक दिन नवमालिका के मण्डप में आपके हाथ में कमलपत्र के पात्र में जल था।
राजा : तो… सुन रहे हैं।
शकुन्तला : उस समय दीर्घापाङ्ग नामक पुत्रवत् पालित मेरा एक बाल-हिरण उपस्थित था। सर्वप्रथम आपके उदार (व्यक्ति) के द्वारा उसे प्रेम-पूर्वक आपके पास लाया गया था कि वह आप – दयालु के द्वारा सर्वप्रथम पानी पीए।
फिर अपरिचित आपके हाथों से उसने जल-पान नहीं किया। इसके पश्चात् उसी समय मेरे द्वारा जल ग्रहण करने पर इसके द्वारा प्रेम प्रकट किया गया था। तब आप इस प्रकार हँस रहे थे (हँस कर कह रहे थे।) सभी स्वयं की जाति वालों में विश्वास करते हैं। यहाँ दोनों ही वनवासी हैं।
राजा : इस प्रकार विषय-लोलुप जन मिथ्या मधुर वाणी से आकर्षित किए जाते हैं।
गौतमी : महोदय ! इस प्रकार आप नहीं कह सकते हैं। तपोवन में पली-बढ़ी यह कन्या छल-कपट से अनभिज्ञ है।
राजा : हे वृद्ध तापसी ! मानवेतरों में भी स्त्रियों का सहज चातुर्य दिखाई देता है तो फिर जो बुद्धि सम्पन्न हैं उनका क्या (कहना)। कोयलें आकाश में जाने से पूर्व संतति को अन्य पक्षियों के द्वारा पालन-पोषण करती हैं।
शकुन्तला : (क्रोधपूर्वक) हे अनार्य ! स्वयं के हृदय के अनुमान से देख रहे हो। धर्म का चोला पहनने वाले आपके घास से आच्छादित इस कूपवत् (स्वरूप) का अनुकरण कौन करेगा?
राजा : भद्रे ! दुष्यन्त का चरित्र प्रसिद्ध है। फिर भी यह दिखाई नहीं देता है।
शकुन्तला : अच्छा हो तब तो यहाँ स्वच्छन्दचारिणी कर दिया गया है। (इस प्रकार घूघट में मुख में छिपाकर रोती है।)