Gujarat Board GSEB Solutions Class 10 Hindi Vyakaran वर्ण विचार (1st Language) Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 10 Hindi Vyakaran वर्ण विचार (1st Language)
हिन्दी में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग उच्चरित ध्वनि तथा उनके लिपिचिह्न दोनों के लिए किया जाता रहा है। वर्ण भाषा के उच्चरित तथा लिखित दोनों रूपों के प्रतिक है। ‘वर्ण’ भाषा की सबसे छोटी इकाई हैं।
1. हिन्दी की ध्वनि व्यवस्था भाषा के उच्चरित स्वरूप में दो प्रकार की ध्वनिया हैं – खंड्य ध्वनिया और खंड्येतर ध्वनियाँ। जिन ध्वनियों को हम पृथक-पृथक दर्शा सकते हैं, वे ध्वनियाँ खंड्य ध्वनियाँ कहलाती है। खंड्य ध्वनियाँ के दो वर्ग हैं – स्वर तथा व्यंजन। आप जानते हैं व्यंजन वर्गों में स्वर ‘अ’ जुड़ा रहता है।
उदाहरण के लिए कोई एक शब्द लिजिए; जैसे – दाहोद। दाहोद में द् + आ + ह् + ओ + द् + अ कुल छ: ध्वनियाँ हैं, इनमें से ‘द’, ‘ह’ और ‘द’ ये तीन व्यंजन ध्वनियाँ हैं तथा ‘आ’, ‘ओ’ और ‘अ’ ये तीन स्वर ध्वनियाँ हैं। एक विद्यार्थिनी ‘मणिनगर’ में रहती है। आइए, देखें कि ‘मणिनगर’ में कितनी ध्वनियाँ हैं।
मणिनगर – म् + अ + ण् + इ + न् + अ + ग् + अ + र् + अ कुल 10 ध्वनियाँ हैं। इनमें म्, ण, न्, ग् और र् व्यंजन हैं। हमारे देश का नाम ‘भारत’ है। भारत शब्द में भ् + आ + र् + अ + त् + अ यानी कुल छः ध्वनियाँ हैं। इनमें भ, र, त व्यंजन तथा आ, (दो बार) अ, ये स्वर हैं।
हिन्दी की ध्वनि व्यवस्था में ‘स्वर’ स्वतंत्र रूप बोले जाते हैं। इनके उच्चारण के समय वायु बिना किसी अवरोध के मुखविवर से निकलती है। व्यंजन का उच्चारण किसी स्वर की मदद से होता है तथा इनके उच्चारण के समय हवा मुख में थोड़ा या ज्यादा अवरुद्ध होकर बाहर निकलती है। स्वर से मात्रा के रूप में व्यंजन जुड़े होते हैं। जिन वर्गों के साथ मात्रा नहीं होती, उनमें भी स्वर ‘अ’ तो रहता ही है।
उच्चरित रूप में शब्द के अंतिम व्यंजन में निहित ‘अ’ का उच्चारण प्रायः नहीं होता पर पूरा व्यंजन लिखा जाता है। जब स्वर रहित व्यंजन का प्रयोग करना पड़ता है तब व्यंजन के नीचे हलंत चिह्न (‘) लगता है। जैसे – ट् द् ह् इत्यादि। शब्द के अंतिम संयुक्त व्यंजन में स्वर अवश्य रहता है। जैसे – महेन्द्र = म् + अ + ह् + ए + न् + द् + र् + अ; चिंता = च् + इ + न् + त् + आ।
खंड्येतर ध्वनियाँ :
इन ध्वनियों को अलग करके दर्शाया नहीं जा सकता किन्तु इनके प्रयोग के कारण शब्द के अर्थ या कथन के आशय में अंतर आ जाता है। दीर्घता, अनुनासिकता, संगम (संहिता) अनुतान और बलाघात ये खंड्येतर ध्वनियाँ हैं।
1. दीर्घता : हुस्व और दीर्घ मात्राएँ अर्थभेद का कारण बनती हैं, जैसे – चिता-चीता, सुर-सूर, बेल-बैल, मोर-मौर।
2. अनुनासिकता : यह भी अर्थभेदक होती है; जैसे – आँधी-आधी, गोंद-गोद, पूँछ-पूछ, साँस-सास, हैं-है।
3. संगम : उच्चारण करते समय कुछ शब्दों या वर्णों को प्रवाह में एकसाथ पढ़ना है और कुछ के बीच हलका-सा विराम देना है। इसी विराम स्थान को संगम या संहिता कहते हैं। यह भी अर्थभेदक है; जैसे –
- वही नदी में तैर रहा था। – उसने कुत्ते को रोटी न दी।
- आज विद्यालय में जलसा है। – गर्मी में रेतीला मैदान जल सा दिखाई देता है।
अनुतान : बोलने में भावों के अनुसार स्वर का उतार-चढ़ाव होता है उसे अनुतान या सुरलहर कहते हैं। हिन्दी में तीन प्रकार के अनुतान का प्रयोग होता है जैसे –
- वह विद्यालय जा रहा है। – (सामान्य कथन)
- वह विद्यालय जा रहा है? – (प्रश्न)
- वह विद्यालय जा रहा है! – (आश्चर्य)
5. बलाघात : हिन्दी में बोलते समय किसी शब्द विशेष पर श्वास के दबाव से जो अब आ जाता है, उसे बलाघात कहते हैं। जैसे –
- मैंने विज्ञान की पुस्तक पढ़ी। – (किसी और विषय की नहीं, विज्ञान की)
- मैंने विज्ञान की पुस्तक पढ़ी। – (कुछ और नहीं (पत्रिका आदि), पुस्तक ही)
ऊपर के वाक्यों में रेखांकित मोटे टाइप में छपे शब्दों पर बलाघात है। हिन्दी में वर्गों पर लगनेवाले बलाघात अर्थभेदक नहीं है। जैसे – पिताजी में (‘ता’ पर बलाघात), सात में (‘सा’ पर बलाघात), उसे में (‘से’ पर बलाघात)
2. हिन्दी वर्णमाला
हिन्दी वर्गों के समूह को वर्णमाला कहा जाता है। हिन्दी के वर्ण देवनागरी लिपि में लिखे जाते हैं। ये हमें परंपरागत रूप से संस्कृत से प्राप्त हुई हैं। भाषा की विकासयात्रा के क्रम में हिन्दी ने अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी के कुछ वर्ण स्वीकार किए हैं। हिन्दी वर्गों की संख्या का निर्धारण एक समस्या है। भारतीय संघ तथा कुछ राज्यों की राजभाषा घोषित हो जाने के फलस्वरूप हिन्दी वर्गों का मानकीकरण बहुत जरूरी हो गया था। केन्द्रीय हिंदी निर्देशालय ने शीर्षस्थ विद्वानों के साथ विचार-विमर्श के पश्चात् जो मानक हिन्दी वर्णमाला निर्धारित की है, वह नीचे दी जा रही है।
मानक हिन्दी वर्णमाला :
वर्णमाला में अं, अः तथा ऋ को स्वरों के साथ रखा गया है क्योंकि ये स्वरों के योग से ही बोले जाते हैं। ‘ऋ’ स्वर की मात्रा का प्रयोग केवल संस्कृत के तत्सम शब्दों में ही होता है, जैसे – कृष्ण, धृत, दृश्य, ऋतु आदि।
फिलहाल ‘ऋ’ का उच्चारण उत्तर भारत में प्रायः ‘रि’ की तरह होता है, जब कि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण के राज्यों में ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रु’ की तरह होता है। त्र की मात्रा (‘) होती है, इस कारण इसे स्वर के साथ रखा गया है। अं, अ:, ये क्रमशः अनुस्वार (‘) और विसर्ग (:) के रूप में वर्ण से जुड़ते है। इनका उच्चारण भी व्यंजन की भाति होता है। अनुस्वार () जिस व्यंजन से पहले आता है, उसी वर्ग के अंतिम वर्ण (नासिक्य) के रूप में उच्चरित होता है। जैसे – गंगा (गङ्गा) : मंजिल (मञ्जिल), दंड (दण्ड), बंद (बन्द), चंपा (चम्पा)।
य, र, ल व, श, ष, स और ह के साथ अनुस्वार का उच्चारण किसी भी नासिक्य व्यंजन (ङ् ज्, ण, न्, म्) की तरह हो सकता है।
विसर्ग (:) का उच्चारण ‘ह’ की तरह होता है।
वों के भेद : वर्णमाला में वर्गों के दो भेद किये गए हैं – स्वर तथा व्यंजन।।
स्वरों की संख्या अब 12 हो गई है। (अ, आ, इ, इ, उ, उ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, ऑ) (ऑ-गृहीत स्वर)
मानक व्यंजनों की संख्या अब कुल 35 है। इनमें (ख़ , ज़, फ़ शामिल हैं।) ख़ , ज़, फ़ ये अलग से व्यंजन नहीं गिने जा सकते। क्योंकि क्ष, त्र, ज्ञ तथा श्र संयुक्त व्यंजन है। इन्हें स्वतंत्र रूप से लिखते अवश्य हैं, पर ये स्वतंत्र वर्ण नहीं हैं। वर्णमाला के ‘ळ’ वर्ण का उच्चारण ‘ल’ और ‘ढ’ के बीच होता है, जो हिंदी में लुप्तप्राय है।
स्वर्ण वर्णों के भेद : हिन्दी स्वर वर्णों के मूलत: दो भेद हैं –
- अनुनासिक,
- निरनुनासिक
अनुनासिक स्वर : इनके उच्चारण में वायु की कुछ मात्रा नाक से बाहर निकलती है। जैसे अँ, आँ, इ, ई, उँ, ॐ, एँ, ऐं, ओं, औं। यानी सभी स्वरों के अनुनासिक उच्चारण हो सकते हैं।
निरनुनासिक स्वर : इनके उच्चारण में हवा मुख विवर से सीधे बाहर निकल जाती है। उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर (मात्रा की दृष्टि से) स्वरों को दो भागों में बाँटा जाता है – हुस्व स्वर तथा दीर्घ स्वर।
हुस्व स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय (एक मात्रा) लगता है, वे ह्रस्व स्वर कहलाते हैं। जैसे – अ, इ, उ और ऋ।
दीर्घ स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में हस्व की तुलना में लगभग दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं : जैसे आ, ई, उ, ए, ऐ, ओ, औ तथा ऑ। ‘ऋ’ के दीर्घ स्वर का प्रयोग केवल संस्कृत में होता है, हिन्दी में नहीं। दीर्घ स्वर स्वतंत्र स्वर हैं, इस्व स्वरों के दीर्घ रूप नहीं। ‘ऐ’ तथा ‘औ’ संस्कृत में संयुक्त स्वर हैं।
पारंपरिक रूप से ‘य’ के पहले आनेवाले ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अइ’ तथा ‘व’ के पहले आनेवाले ‘औ’ का उच्चारण ‘अउ’ हो जाता है। जैसे – गैया – गइया, भैया – भइया, कौवा – कउवा, हौवा – हउवा। आ, ई, ऊ, ऐ और औ संधि (संयुक्त) स्वर भी हैं।
व्यंजन : हिन्दी में क वर्ग (5), च वर्ग (5), ट वर्ग (5), त वर्ग (5), प वर्ग (5), अंतस्थ य, र, ल, व और ऊष्म श, ष, स, ह अनुस्वार विसम को मिलाकर कुल 35 व्यंजनों में। व्यंजनों में ‘अ’ जुड़ा है। क् + अ = क, प् + अ = प, य् + अ = य, यानी क = क् + अ, प = प् + अ, य = य् + अ इत्यादि।
व्यंजनों का वर्गीकरण – व्यंजनों का वर्गीकरण उनके उच्चारण तथा प्रयत्न (श्वास की मात्रा, स्वरतंत्री का कंपन, जीभ या अन्य अवयवों द्वारा वायु में अवरोध) के आधार पर किया जाता है।
(क) उच्चारण स्थान के आधार पर :
व्यंजनों का उच्चारण करते समय हमारी जीभ मुख्य विवर के विभिन्न स्थानों; जैसे- कंठ, तालु, दात आदि को छूती है। इस आधार पर स्पर्शी वर्गों – का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार होता है –
- कंठ्य (गले से) – क, ख, ग, घ, ङ ह और ख़
- तालव्य (तालु से) – च, छ, ज, झ, ञ, य और श.
- मूर्धन्य (तालु के मूर्धा भाग से) ट, ठ, ड, ढ, ण, ड, ढ़ तथा ष
- दंत्य (दाँतों से) त, थ, द, ध, न
- ओष्ठ्य (दोनों ओठों से) प, फ, ब, भ, म।
- दंत्योष्ठ्य (निचले ओठ, ऊपरी दाँत से) व, फ़ –
(ख) उच्चारण प्रयत्न के आधार पर :
(1) श्वास की मात्रा के आधार पर
अल्प प्राण- इनके उच्चारण में मुख से कम हवा निकलती है; जैसे- क, ग, ङ च, ज, ञ, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म (प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा तथा पाँचवाँ वर्ण) तथा य, र, ल, व।
महाप्राण – इनके उच्चारण में मुख से निकलती हवा की यात्रा अधिक होती है; जैसे – ख, ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, द, घ, ध, फ, फ़ (प्रत्येक वर्ग का दूसरा, चौथा वर्ग) तथा श, ष, स और ह।
(2) स्वरतंत्री के कंपन के आधार पर –
जिन ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वर तंत्री में कंपन होता है, उन्हें सघोष ध्वनियाँ कहते हैं और जब कंपन नहीं होता तब अघोष ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे-
सघोष – सभी स्वर, प्रत्येक वर्ग के अंतिम तीन वर्ण (तीसरा, चौथा, पाँचवाँ) तथा ड, ढ, ज़, य, र, ल, व, स और ह।
अघोष – प्रत्येक वर्ग के पहले दो व्यंजन तथा फ, श, ष, स और ख़।
(3) उच्चारण अवयवों द्वारा श्वास में अवरोध के आधार पर –
व्यंजनों का उच्चारण करते समय उच्चारण अवयव मुखविवर में किसी स्थान विशेष को स्पर्श करते हैं, ऐसे व्यंजनों को स्पर्श व्यंजन कहते हैं। जैसे – क ख ग घ ङ; च छ ज झ ञ ; ट, ठ, ड, ढ, ण; त थ द ध न; प फ ब भ म।
इसी तरह जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय वायु स्थान विशेष पर घर्षण करते हुए निकलती है, उसे संघर्षी व्यंजन कहते है। जैसे – ख़, ज़, फ़, श, ष, स, ह।
अंतस्थ व्यंजन : इनके उच्चारण में वायु में कम अवरोध होता है; जैसे – य र ल व। य और व को अर्ध स्वर भी कहा जाता है। इनके अतिरिक्त बाकी बचे व्यंजनों की स्थिति इस प्रकार है-
‘र’ जीभ की नोक वर्म्य (मसूढे) से टकराती है, इसे ‘लुंठित’ कहते है।
‘ल’ हवा जीभ के दोनों किनारों को छूकर-बाहर निकलती है, इसे ‘पार्श्विक’ कहते हैं। ळ, ड़ तथा ढ़ – जीभ ऊपर उठकर झटके के साथ नीचे आती है; इन्हें ‘उत्क्षिप्त’ व्यंजन कहते हैं।
कुछ विद्वान च छ ज झ को संघर्षी व्यंजन मानते हैं।
विशेष : प्रत्येक वर्ग का पाँचवाँ वर्ण नासिक्य है। इसके उच्चारण में थोड़ी हवा नाक से निकलती है; जैसे- ङ् ज्, ण, न्, म्।
3. हिन्दी की लिपि और वर्तनी
आप जानते ही है कि हिन्दी की लिपि देवनागरी है। वर्णमाला के संदर्भ में यह लिपि इससे पहले के प्रकरण में दी गई है। मानक हिन्दी में पुराने श्र (अ) झ (झ) ध और भ (भ) ल (ल) वर्णों का रूप बदला गया है। यद्यपि प्राचीन पुस्तकों में ये वर्ण अभी भी दिखाई देंगे। देवनागरी लिपि में दीर्घ ऋ (ऋ) लु तथा (ब) भी सम्मिलित हैं। किन्तु इनका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता, अतः इन्हें मानक हिन्दी में शामिल नहीं किया गया है।
वर्तनी : शब्दों में प्रयोग होनेवाले वर्षों की क्रमिकता को वर्तनी कहा जाता है। यह अंग्रेजी शब्द स्पेलिंग का पर्याय है। हिज्जे वर्तनी का ही दूसरा नाम है। वर्तनी प्रयोग की शुद्धता केवल शब्द स्तर पर ही नहीं अपितु वाक्य और अनुच्छेद स्तर पर समझना होता है। विराम चिह्न वर्तनी व्यवस्था के ही अंग हैं। मानक हिन्दी वर्तनी संबंधी अद्यतन नियम इस प्रकार हैं :
(1) संयुक्त वर्णन :
(क) खड़ी पाईवाले व्यंजन :
खड़ी पाईवाले व्यंजनों का, संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटाकर ही बनाना चाहिए; जैसे – ख्याति, लग्न, विघ्न, स्वच्छ, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्याय, प्यास, धब्बा, अलभ्य, सुरम्य, शय्या, उल्लू, व्यास, शस्य, पुष्प।
(ख) अन्य व्यंजन :
(अ) क और फ के संयुक्ताक्षर :
संयुक्त, पक्का और दफ्तर की तरह बनाए जाएँ न कि संयुक्त पक्का दफ्तर की तरह।
(आ) ड़, छ, ट, ठ, ड, ढ, द और ह के संयुक्ताक्षर हल चिह्न लगाकर बनाए जाएँ, जैसे – वाङ्मय पट्टी, बुड्ढा, विद्या, ब्राह्मण आदि। (वाडमय, पट्टी, बुड्ढां, विद्या, ब्राह्मण नहीं)
(इ) संयुक्त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे; जैसे – प्रकाश, धर्म, राष्ट्र।
(ई) ‘अ’ का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। त् + र के दोनों संयुक्त रूप त्र तथा त्र मान्य रहेंगे।
(उ) हलंत चिह्न से बननेवाले संयुक्ताक्षर के द्वितीय व्यंजन के साथ ‘इ’ के मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व किया जाए न कि पूरे युग्म के पूर्व; जैसे – कुट्टिम, द्वितीय, बुद्धिमान, चिह्नित आदि। (कुट्टिम, द्वितीय, बुद्धिमान, चिह्नि नहीं।) साथ ही संस्कृत के संयुक्ताक्षरों को पुरानी शैली में लिखा जा सकेगा; जैसे – चिह्न, विद्या, चञ्चल, विद्वान, द्वितीय, बुद्धि, अङ्क आदि।
(2) विभक्ति – चिह्नः
(क) हिन्दी के विभक्ति चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में शब्द से अलग लिखे जाएँ, जैसे – बालक ने, बालिका को, माता से आदि। सर्वनाम शब्दों में विभक्ति-चिह्न प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ; जैसे – मैंने, उसने, उसको आदि।
(ख) सर्वनामों के साथ यदि दो विभक्ति-चिह्न हों तो उनमें से पहला सर्वनाम के साथ और दूसरा पृथक लिखा जाए; जैसे- उसके लिए, इनमें से आदि।
(ग) यदि सर्वनाम और विभक्ति के बीच ‘ही’ या ‘तक’ का निवास हो तो विभक्ति चिह्न पृथक लिखा जाएगा; जैसे आप ही के लिए, मुझ तक को आदि।
(3) क्रियापद :
संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगभूत क्रियाएँ पृथक-पृथक लिखी जाएँ : जैसे – पढ़ा करता है, जा रहा था, आ सकता है आदि।
(4) हाइफन :
हाइफन का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
(क) द्वंद्व (द्वंद्व) समास के पदों के बीच हाइफन रखा जाए; जैसे – राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती-संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, लेन-देन आदि।
(ख) सा, जैसा आदि के पूर्व हाइफन रखा जाए : जैसे – तुम-सा, राम-जैसे, चाकू-से तीखे आदि।
(ग) कठिन संधियों से बचने के लिए हाइफन का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे – द्वि अक्षर, द्वि – अर्थक आदि।
(घ) सामान्यतः तत्पुरुष में हाइफन लगाने की आवश्यकता नहीं है, जैसे रामराज्य, राजकुमार, ग्रामवासी, गंगाजल आदि। तत्पुरुष समास में हाइफन का प्रयोग केवल वहीं किया जाए, जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं; जैसे – भू-तत्त्व।
इसी तरह यदि अ-नख (बिना नख का) जैसे समस्त पद में हाइफन न लगाया जाए तो उसे ‘अनख’ पढ़े जाने से ‘क्रोध’ का अर्थ निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का भाव), अनति (थोड़ा) : अ-परस (जिसे किसी ने छुआ न हो, अपरस (एक चर्म रोग) : भू-तत्त्व (पृथ्वी-तत्त्व), भूतत्त्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की यही स्थिति है।
(5) अव्यय : ‘तक’ और ‘साथ’ अव्यय हमेशा पृथक् लिखे जाएँ : जैसे यहाँ तक, आपके साथ। हिंदी में आह, ओह, अहा, सो, भी, न, जब, तब, कब, वहाँ, कहाँ सदा इत्यादि अव्यय तथा जिन अव्ययों के साथ विभक्ति चिह्न आते हैं : जैसे – यहाँ से, वहाँ से, कब से, आदि में अव्यय पृथक ही लिखे जाएँ। सम्मानार्थक श्री और जी अव्यय भी पृथक लिखे जाएँ : जैसे श्री श्रीराम, श्री महात्मा जी, कन्हैयालालजी आदि।
(6) श्रुतिमूलक ‘य’, व : जहाँ विकल्प के रूप में श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग होता है, वहाँ उसे न किया जाए : यानी किए-किये, नई-नयी, हुआ हुवा आदि में पहले स्वरात्मक रूपों का ही प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण तथा अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए जैसे – दिखाए गए नई दिल्ली, पुस्तक लिए हुए आदि। किन्तु जहाँ ‘ये’ शब्द का ही तत्व हो वहाँ परिवर्तित नहीं होगा। जैसे स्थायी : दायित्व, स्थायीभाव आदि।
(7) अनुस्नवार : ( ) तथा अनुनासिकता चिह्न (*) दोनों प्रचलित रहेंगे।
(क) संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ वर्ग के पाँचवें अक्षर के बाद उसी वर्ग के शेष चार वर्षों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण, लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए : जैसे गंगा, चंचल, घंटा, संपादक आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आता है; अतः। यहाँ अनुस्वार का प्रयोग होगा। (गङ्गा, चञ्चल, घण्टा, सम्पादक नहीं)। यदि पाँचवें अक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए अथवा वहीं पंचमाक्षर दुबारा आये, तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा, जैसे वाङ्मय, अन्य, अन्न, सम्मान, चिन्मय आदि।।
(ख) चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है, हंस-हँस, अंगना-अंगना आदि में। अतः ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चन्द्रबिंदु का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। किन्तु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़नेवाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से मुद्रण आदि में बहुत कठिनाई हो वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिन्दु के प्रयोग की छूट दी गई है, जैसे – में, नहीं मैं आदि। कविता के संदर्भ में चंद्रबिन्दु का प्रयोग यथास्थान अवश्य किया जाना चाहिए। इसी तरह छोटे बच्चों को आरंभिक कक्षाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण सीखना अभीष्ट हो, वहाँ सर्वत्र इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे – कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना इत्यादि।
विशेष : हिन्दी में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनके दो रूप बराबर चल रहे हैं। विद्वत समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। फिलहाल इनकी एकरूपता आवश्यक नहीं समझी गई है। कुछ उदाहरण है – गरदन-गर्दन, गरमी-गर्मी, बरफ-बर्फ, बिलकुल-बिल्कुल, सरदी-सर्दी, कुरसी-कुर्सी, भरती-भर्ती, फुरसत-फुर्सत, बरदाश्त-बर्दास्त, वापस-वापिस, आखीर-आखिर, बरतन-बर्तन, दोबारा-दुबारा, दुकान-दूकान, बीमारी-बिमारी आदि।
(8) हलंत चिह्न : संस्कृत मूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में सामान्यत: संस्कृत रूप ही रखा जाना जाए, किन्तु जिन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी में हलंत चिह्न लुप्त हो चुका है, उसमें उसको फिर से लगाने का प्रयत्न न किया जाए, जैसे – महान, विद्वान आदि।
(9) पूर्वकालिक प्रत्यय : पूर्वकालिक प्रत्यय ‘कर’ को क्रिया से मिलाकर लिखा जाए,जैसे – मेकर, देखकर, पढ़कर आदि।
(10) विसर्ग : संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है और यदि वे तत्सम रूप में प्रयुक्त हो रहे हों तब उनमें विसर्ग लगाना जरूरी है, जैसे- दुःखानुभूति। किन्तु यदि शब्द के तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका है तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा, जैसे- ‘सुख दुःख के साथी’।
(11) ध्वनि परिवर्तन : संस्कृत मूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों का त्यों ग्रहण किया जाए। ब्रह्मा, चिह्न, उऋण को ब्रह्मा, चिन्ह, उरिण में बदलना उचित नहीं है। इसी तरह ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार जैसे अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इन्हें क्रमशः गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए। तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है, उसे न लिखने की छूट है, जैसे – अर्ध/अर्ध, उज्ज्वल/उज्वल, तत्त्व/तत्व आदि।
(12) ‘ऐ’, ‘औ’ का प्रयोग : हिन्दी में ‘ऐ’ और ‘औ’ का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है। ‘है’ तथा ‘और’ में पहला रूप है जब कि गवैया और ‘कौवा’ आदि में दूसरा रूप ‘ऐ’ और ‘औ’ का ही प्रयोग दोनों के लिए किया जाए, गवय्या या कव्वा नहीं।
(13) विदेशी ध्वनियाँ : अरबी-फारसी या अंग्रेजी मूलक के शब्द जो हिन्दी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिन्दी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिन्दी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं; जैसे कलम, किलो, दाग आदि। (कलम, किला, दाग नहीं) पर जहाँ शुद्ध विदेशी रूप का उच्चारणगन अंतर बताना जरूरी हो वहाँ हिन्दी के प्रचलित रूपों यथास्थान नुक्ते लगाए जाए; जैसे – खाना-खाना, राज-राज, फनफ़न। सारांशत: पाँच मुख्य विदेशी ध्वनियाँ (क, ग, ख, ज़ और फ़) हिन्दी में आई हैं। जिनमें से दो (क़ और ग) तो हिन्दी उच्चारण (क, ग) में बदल गई हैं; एक (ख) लगभग हिन्दी ‘ख’ में खपने की प्रक्रिया में है। शेष दो अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। अक्षर : हिन्दी का प्रत्येक वर्ण अक्षर होता है। सारे स्वर अक्षर हैं तथा सारे व्यंजनों में स्वर ‘अ’ के होने से वे भी अक्षर हैं। अर्थात् वर्ण = स्वर अथवा व्यंजन + स्वर। कहने का मतलब यह है कि अक्षर संरचना का आधार स्वर होता है, उसके आगे या पीछे एक या दो-तीन व्यंजन हो सकते हैं।
इस तरह हिन्दी की एकाक्षरी शब्द संरचना इस तरह की हो सकती है :
- केवल स्वर – आ
- स्वर + व्यंजन + स्वर – अब, आज
- व्यंजन + स्वर – जा, ला, न हाँ
- व्यंजन + स्वर + व्यंजन – राम, घर, चल
- व्यंजन + व्यंजन + स्वर – ज्यों, क्या, त्यों, क्यों
- व्यंजन + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – स्त्री, स्क्रू
- व्यंजन + व्यंजन + स्वर + व्यंजन – प्यास, प्यार, प्रेम
इस तरह जब किसी एक ध्वनि (वर्ण) या ध्वनिसमूह (वर्णसमूह) का उच्चारण एक झटके के साथ किया जाता है, तो उसे ‘अक्षर’ कहते हैं।
उपर्युक्त सभी उदाहरण एकाक्षरी शब्दों के हैं। ध्यान रहे कि हिन्दी की एक विशेषता है कि अक्षर के अंत में आनेवाला अ (हस्व स्वर) जल्दी से बोलने में लुप्त हो जाता है। जैसे राम = र् + आ + म्; घर = घ् + अ + र्, चल = च् + अ + ल्।
इतना ही, नहीं, शब्दों के मध्य के ‘अ’ स्वर भी बोलने में लुप्त हो जाते हैं; जैसे – विमला – विम्ला, कुरता – कुर्ता, चलता – चल्ता, वरना : वर्ना।
इसलिए हिन्दी शब्दों के उच्चरित तथा लिखित रूपों में कभी-कभी एकरूपता नहीं मिलती। इसी अक्षर संरचना के कारण शब्दों के उच्चरित तथा लिखित रूपों में अंतर हो जाता है। जैसे –
- आज = आज
- कल = कल
- राम = राम्
- कमला = कमला
- मानसिक = मासिक
- बातचीत = बाच्चीत (बात्चीत्)
द्विअक्षरी शब्द :
- स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – अंत
- स्वर + व्यंजन + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – अष्ट
- व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – कंत, संत
- व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – शस्त्र, मंत्र
- व्यंजन + व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर – भ्रांति, प्राप्त