Gujarat Board GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 17 गज़ल Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Hindi Textbook Solutions Aaroh Chapter 17 गज़ल
GSEB Class 11 Hindi Solutions गज़ल Textbook Questions and Answers
अभ्यास
गज़ल के साथ
प्रश्न 1.
आखिरी शेर में गुलमोहर की चर्चा हुई है। क्या उसका आशय एक खास तरह के फूलदार वृक्ष से है या उसमें कोई सांकेतिक अर्थ निहित है ? समझाकर लिखें।
उत्तर :
आखिरी शेर में गुलमोहर की चर्चा हुई है। यहाँ गुलमोहर का आशय एक खास तरह के फूलदार वृक्ष से नहीं हैं, परन् उसमें एक सांकेतिक अर्थ निहित है। यहाँ ‘गुलमोहर’ प्रेम, बन्धुत्व, माधुर्य, स्वतंत्रता, समानता और उल्लास का प्रतीक है। इन्हीं सद्भावनाओं को साकार करने का स्वप्न प्रस्तुत शेर में व्यंजित हुआ है। कवि की एक ही तमन्ना है कि जिएँ तो अपने बाग में अर्थात् अपने देश की जमीन पर गुलमोहर (स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा आदि) के तले और गैरों की गलियों में भी अगर दम निकले तो आखिरी तमन्ना गुलमोहर की ही रहेगी।
प्रश्न 2.
पहले शेर में चिराग शब्द एक बार बहुवचन में आया है और दूसरी बार एकवचन में। अर्थ एवं काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
पहले शेर में कवि ने आजादी के बाद की मोह-भंग की स्थिति का बड़ा ही यथार्थपूर्ण एवं कलात्मक वर्णन किया है। यहाँ चिराग शब्द पहली बार बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है और दूसरी बार एकवचन में प्रयुक्त हुआ है। ऐसा कवि ने मोह भंग की तीखी व्यंजना हेतु किया है। पहले शेर में ‘चिराग’ शब्द का बहुवचन “चिरागाँ’ का प्रयोग हुआ है।
यहाँ चिरागाँ आम आदमी की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है। अर्थात् आजादी के बाद हर घर में खुशहाली होगी। सभी को रोटी, कपड़ा, मकान, मयस्सर होगा। दूसरी बार ‘चिराग’ एकवचन में प्रयुक्त हुआ है जो इस बात का बोधक है कि हमने जिन बुनियादी आवश्यकताओं के सपने देखे थे, उनमें से बहुत कम हाथ लगें हैं।
‘चिरागौँ’ (बहुवचन) का प्रयोग जनता के सपने है और ‘चिराग’ (एकवचन) आजादी के बाद की मोहभंग की हकीकत है। एक ही शब्द के प्रतीकात्मक एवं लाक्षणिक प्रयोग से अद्भुत काव्य सौंदर्य का समावेश हो गया है।
प्रश्न 3.
गज़ल के तीसरे शेर को गौर से पढ़ें। यहाँ दुष्यंत का इशारा किस तरह के लोगों की ओर है ?
उत्तर :
व्यंग्य की पैनी धार देखिए। हमारे वर्तमान राजपुरुष देश की जनता के प्रति बड़े संतुष्ट हैं; क्योंकि वह बड़ी ही सहिष्णुता, निर्विघ्न और निरापद है। जिंदगी का सफर कमीज के बगैर तय करने में सक्षम इस देश के लोग बड़े अच्छे और समुचित हैं। ये अपने निर्वस्त्र जिस्म को पाँवों से ही बँक लिया करते हैं। इस शेर में कवि ने देश की वर्तमान निर्माल्य और निर्वीर्य प्रजा पर भी, व्यंग्य का कुठाराघात किया है जो सारे जुल्म सहकर भी उफ् तक नहीं करती।
प्रश्न 4.
आशय स्पष्ट करें :
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ पान्धपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित गज़ल से उद्धृत हैं। यह गज़ल दुष्यंतकुमार द्वारा रचित है। यह उनके गज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ से ली गई है।
व्याख्या : कवि का यह अचल आत्मविश्वास उस वक्त चरमसीमा तक पहुँचा हुआ दिखाई देता है जब वह कहता है कि ऐ मेरे मुल्क के रहनुमाओं (नेताओं) ! तुम्हारी हुकूमत है, तुम चाहो तो मेरी जुबान भी सिल सकते हो, लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे जुल्मोसितम ही मेरी शायरी को इन्कलाबी रूप देंगे, उसमें आग उगलने की ताकत पैदा करेंगे। शायर अपने लक्ष्य पर अडिग है।
विशेष : उर्दू शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
गज़ल के आस-पास
प्रश्न 1.
दुष्यंत की इस गज़ल का मिज़ाज बदलाव के पक्ष में है। इस कथन पर विचार करें।
उत्तर :
निःसंदेह दुष्यंत की प्रस्तुत गज़ल का मिज़ाज बदलाव के पक्ष में है। आजादी के बाद की राजनैतिक सामाजिक, आर्थिक, शोषण, मूल्यहीनता के माहौल में जीना मुश्किल हो गया है। आम आदमी के सपने बिखर गये। प्रशासन, राजनैतिक कठमुल्ले, धार्मिक पाखण्डी एवं कथित समाजवादी आम आदमी के घर के चिराग गुल करते रहे हैं।
ऐसी विद्रूपता एवं विडम्बनायुक्त करतूतों को देखकर उसकी सहनशीलता के बाँध टूट जाते हैं। वह यथास्थिति को बदलना चाहता है। प्रस्तुत गज़ल में व्यक्त कयि आक्रोश एवं क्रांतिकारी विचार इस बात के प्रमाण हैं। वह क्रांति चाहता है, बदलाव चाहता है इसलिए वह जनता की आवाज में असर लाने के लिए बेकरार दिखाई देता है। इस प्रकार कवि की सामाजिक चेतना न केवल तीव्र है वरन् मर्मस्पर्शी भी है।
प्रश्न 2.
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है।
दुष्यंत की गज़ल का चौथा शेर पढ़ें और बताएँ कि गालिब के उपर्युक्त शेर से वह किस तरह जुड़ता है ?
उत्तर :
इस प्रश्न के सटीक उत्तर के लिए पहले तो हमें गालिब एवं दुष्यंत के शेर को प्रस्तुत करना होगा – हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है। खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही, कोई हसीन नजारा तो है नज़र के लिए। भाव साम्यता की दृष्टि से दुष्यंत कुमार का शेर गालिब के शेर से जुड़ता है।
गालिब के शेर में ‘जन्नत’ (स्वर्ग) मन बहलाने की सुंदर कल्पना है। वैसे ही दुष्यंत के शेर में खुदा (ईश्वर) मनुष्य की सर्वचिन्ताओं का समाहार है। खुदा एक ऐसी रम्य कल्पना है जो मनुष्य को तमाम प्रकार की मुसीबतों से त्राण देनेवाला (बचानेवाला) है। दोनों ही कल्पनाएँ मनुष्य को आश्वस्त करती है, आस्था जगाती है।
प्रश्न 3.
‘यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है’ यह वाक्य मुहावरे की तरह अलग-अलग परिस्थितियों में अर्थ दे सकता है मसलन, यह ऐसी अदालतों पर लागू होता है, जहाँ इंसाफ नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी परिस्थितियों की कल्पना करते हुए निम्नांकित अधूरे वाक्यों को पूरा करें।
क. यह ऐसे नाते-रिश्तों पर लागू होता है…..
उत्तर :
जिनमें आपसी विश्वास नहीं होता।
ख. यह ऐसे विद्यालयों पर लागू होता है, ……..
उत्तर :
जहाँ विद्यालय के नाम पर अंधी लूट की जाती है।
ग. यह ऐसे अस्पतालों पर लागू होता है, …….
उत्तर :
जहाँ सेवा (स्वास्थ्य) की जगह स्वार्थ हो।
घ. यह ऐसी पुलिस व्यवस्था पर लागू होता है, ……
उत्तर :
जहाँ रक्षक ही भक्षक हो।
Hindi Digest Std 11 GSEB गज़ल Important Questions and Answers
गज़ल के साथ
प्रश्न 1.
‘मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए’ – पंक्ति का मर्म स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जनता की आवाज में बड़ी ताकत होती है। जब आम लोग संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं, तब बड़े-बड़े लोगों के होश उड़ जाते हैं। लोगों के विरोध और विद्रोह से सिंहासन उलट जाते हैं। परंतु यह तभी संभव है जब लोगों में एकता, भरपूर आत्मविश्वास और बलिदान की भावना हो। इनके बिना लोगों की आवाज में आवश्यक प्रभाव नहीं आ सकता। कवि जनता की आवाज को प्रभावशाली बनाने के लिए भरसक कोशिश कर रहा है।
प्रश्न 2.
स्पष्ट कीजिए कि ‘कहाँ तो तय था’ शेर हमारी सामाजिक व्यवस्था के कटु सत्य को उजागर करती है।
उत्तर :
‘कहाँ तो तय था’ गज़ल में कवि ने हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का दुखद चित्र प्रस्तुत किया है। कवि के अनुसार देश की जनता ने आजादी से पहले जो सपने देखे थे, वे आजादी मिलने के इतने वर्षों के बाद भी पूरे नहीं हुए है। देश के लाखों घर आज भी बिजली के प्रकाश से वंचित हैं। शहरों के सभी घरों को भी पर्याप्त बिजली नहीं मिल पाई है।
देश में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनके पास अपना तन ढकने के लिए जरूरी कपड़े नहीं हैं। जो गाँव सुख-चैन के भंडार माने जाते थे, यहाँ शांति और सुरक्षा दुर्लभ हो गई है। गाँव के लोग गाँव छोड़कर शहरों में जाकर बसने के लिए विवश हो रहे हैं। कहने को देश में लोकतंत्र है, फिर भी जनता की आवाज अनसुनी कर दी जाती है। लोग भी शिकायतें करते-करते थक कर चुप बैठ जाते हैं।
अधिकारी पत्थरदिल हो गये हैं। जनसाधारण के दुःख-दर्द का उन पर कोई असर नहीं होता | कवियों तथा लेखकों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर या डरा-धमकाकर उनकी जबान बंद कर दी जाती है। समाज में सबको अपने सुख की चिंता है ! दूसरों के लिए त्याग और बलिदान का भाव स्वप्न बन गया है।
प्रश्न 3.
कवि के अनुसार जनता के साथ शासक वर्ग का व्यवहार कैसा होना चाहिए
उत्तर :
कवि दुष्यंतकुमार को शिकायत है कि लोकतंत्र में जनता को अपेक्षित महत्त्व नहीं दिया जाता। नतदान के बाद साधारण जनताओं की आशाओं और आकांक्षाओं की अवहेलना की जाती है। कयि के अनुसार लोकतंत्र में सरकारी अधिकारियों को जनता की शिकायतों को अनसुना नहीं करना चाहिए। लोगों को ऐसा न लगे कि हमारा शासनतंत्र पत्थरदिल इन्सानों से बना है।
शासकीय अधिकारियों को लोगों के प्रति सहृदयता की दृष्टि रखनी चाहिए। लेखक और कवि समाज के दुख-दर्द का गहराई से अनुभव करते हैं। उनकी आवाज जनता की आवाज होती है। उसे दबाना लोकतंत्र का गला घोंटना है। दबाने से वह भीतर-ही भीतर सुलगकर एक दिन विद्रोह का शोला बन जाती है ! इसलिए हमारे शासक वर्ग का कर्तव्य है कि जो जनता उन्हें ऊँची कुर्सियों पर बिठाती है, उसकी वह उपेक्षा न करें।
दो-तीन वाक्य में उत्तर दीजिए।
प्रश्न 1.
कवि ने हसीन नजारा किसे कहा है ? क्यों ?
उत्तर :
कवि ने खुदा को एक हसीन नजारा कहा है। खुदा है या नहीं, यह अलग बात है, पर उसकी कल्पना मूर्ति से लोगों को धीरज और शांति मिलती है ! इसलिए कवि ने खुदा की कल्पना को एक हसीन नजारा कहा है।
प्रश्न 2.
शायर की जबान बंद करने के लिए क्या प्रबंध किया जाता है ?
उत्तर :
शायर की जबान बंद करने के लिए उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिये जाते हैं। कभी-कभी उसे अपनी जबान न खोलने के लिए . डराने-धमकाने की कोशिशें भी की जाती है।
प्रश्न 3.
कवि बेकरार क्यों है ?
उत्तर :
कवि लोगों की आवाज में असर (क्रांति) पैदा करने के लिए बेकरार है।
प्रश्न 4.
शायर की जबान सिलने से क्या होगा ?
उत्तर :
शायर की जबान सिल जाएगी, तो वह जन-साधारण की पीड़ा को दुनिया के सामने नहीं ला पाएगा।
प्रश्न 5.
आजादी के पूर्व क्या तय हुआ था ?
उत्तर :
आजादी के पूर्व नेताओं ने जनता को यह आश्वासन दिया था कि हर घर में सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी।
प्रश्न 6.
‘पाँवों से पेट ढंकने’ मुहावरे का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर :
इसका अर्थ यह है कि गरीबी व शोषण के कारण लोगों में विरोध करने की क्षमता समाप्त हो चुकी है। वे न्यूनतम वस्तुएँ उपलब्ध न होने पर भी अपना गुजारा कर लेते हैं।
प्रश्न 7.
आखिरी शेर में शायर की तमन्ना क्या है ?
उत्तर :
शायर की तमन्ना है कि वह बगीचे में सदैव गुलमोहर के नीचे रहें तथा मरते समय गुलमोहर के लिए दूसरों की गलियों में मरे अर्थात् वह मानवीय मूल्यों को अपनाए रख्ने तथा उनकी रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दे।
निम्नलिखित प्रत्येक काव्य-पंक्ति को दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प द्वारा पूर्ण कीजिए।
प्रश्न 1.
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं …………
(अ) हरेक घर के लिए
(ब) शहर के लिए
(क) उम्र भर के लिए।
उत्तर :
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
प्रश्न 2.
ये लोग कितने मुनासिब हैं, …..
(अ) इस बहर के लिए
(ब) गुलमोहर के लिए
(क) इस सफर के लिए
उत्तर :
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए।
प्रश्न 3.
ये एहतियात जरूरी है,
(अ) इस बहर के लिए
(ब) गुलमोहर के लिए
(क) उम्र भर के लिए
उत्तर :
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
प्रश्न 4.
मरें तो गैर की गलियों में …….
(अ) उम्र भर के लिए
(ब) गुलमोहर के लिए
(क) असर के लिए
उत्तर :
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
योग्य विकल्प पसंद करके रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
प्रश्न 1.
दुष्यंत कुमार का जन्म सन् …………. में राजपुर नवादा गाँव (उ. प्र.) में हुआ था।
(A) 1933
(B) 1934
(C) 1935
(D) 1936
उत्तर :
दुष्यंत कुमार का जन्म सन् 1933 में राजपुर नवादा गाँव (उ. प्र.) में हुआ था।
प्रश्न 2.
‘साये में धूप’ गज़ल संग्रह के रचनाकार ………….. हैं।
(A) प्रसाद
(B) निराला
(C) दुष्यंत कुमार
(D) त्रिलोचन
उत्तर :
‘साये में धूप’ गज़ल संग्रह के रचनाकार दुष्यंत कुमार हैं।।
प्रश्न 3.
दुष्यंत कुमार रचित …………… एक काव्य नाटक है।
(A) दुहरी जिंदगी
(B) आवाजों के घेरे
(C) मन के कोण
(D) एक कण्ठ विषपायी
उत्तर :
दुष्यंत कुमार रचित ‘एक कण्ठ विषपायी’ एक काव्य नाटक है।
प्रश्न 4.
दुष्यंत कुमार की मृत्यु सन् …………….. में हुई थी।
(A) 1974
(B) 1975
(C) 1976
(D) 1977
उत्तर :
दुष्यंत कुमार की मृत्यु सन् 1975 में हुई थी।
प्रश्न 5.
दुष्यंत कुमार की माता का नाम ……………… था।
(A) समकिशोरी
(B) राजेश्वरी
(C) देवकी
(D) सरस्वती
उत्तर :
दुष्यंत कुमार की माता का नाम रामकिशोरी था।
प्रश्न 6.
दुष्यंत कुमार के पिताजी का नाम ………….. था।
(A) भगवत सहाय
(B) भगवानदास
(C) रामदास
(D) किशोरी लाल
उत्तर :
दुष्यंत कुमार के पिताजी का नाम भगवत सहाय था।
प्रश्न 7.
दुष्यंत कुमार की पत्नी का नाम …………. था।
(A) राजनंदनी
(B) राधिका
(C) शारदा
(D) राजेश्वरी
उत्तर :
दुष्यंत कुमार की पत्नी का नाम राजेश्वरी था।
प्रश्न 8.
शायर ………….. के साये में धूप लगने की बात करता है।
(A) दरख्तों
(B) फूलों
(C) फलों
(D) पौधों
उत्तर :
शायर दरख्तों के साये में धूप लगने की बात करता है।
प्रश्न 9.
शायर कमीज के अभाव में ……………. से पेट हैक लेने की बात करता है।
(A) सिर
(B) पाँवों
(C) हाथों
(D) कोई नहीं
उत्तर :
शायर कमीज के अभाव में पाँवों से पेट ढंक लेने की बात करता है।
प्रश्न 10.
शायर आम जनता की आवाज में ……………. पैदा करने के लिए बेकरार है।
(A) मीठास
(B) खटास
(C) असर
(D) तीनों
उत्तर :
शायर आम जनता की आवाज में असर (क्रांति) पैदा करने के लिए बेकरार है।
प्रश्न 11.
शासक शायर की … ……. सिल देना चाहते हैं।
(A) जुबान
(B) हाथ
(C) गला
(D) होठ
उत्तर :
शासक शायर की जुबान सिल देना चाहते हैं।
अपठित पद्य
नीचे दी गई कविता को पढ़िए और उस पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा।
यानी मूंछ तितली-कट, नाक के नीचे
बिल्ले-तमगे और
भीड़ को सम्मोहित करने की वाक्पटुता
जब की अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्ल और पुराने कपड़ों में
आने की कोशिश की वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके हृदय में कितनी ही घृणा,
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्त पहचान लिया जाये
कि लोग फ़जीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएँ छुछुआएँ
यहाँ तक कि मौके-बेमौके बच्चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा
हो सकता है, वह कहता हुआ आये कि मैं इस
शताब्दी का सबसे ज्यादा छला गया व्यक्ति हूँ
और वह विनोबा भावे या संत तुकाराम के बारे में
बात करें या सफेद-सफेद कपड़े पहनकर
सफेद-सफेद कबूतर उड़ाये या निशस्त्रीकरण
की बात करे
उसका चेहरा सफाचट हो, चेहरे में झुर्रियाँ हों
और वह सेना और पुलिस के होने के ही खिलाफ़ हो
वह भाषणों में करता हो चिड़ियों
और बच्चों से बेतहाशा प्यार
कहीं उसने बनवा दिया हो अस्पताल,
कहीं खोल दी हो प्याऊ, कहीं कोई
धर्मशाला,
कोई नृत्यकेन्द्र,
कोई पुस्तकालय
संभव है
हमारे बीच में लोग हमसे बहस करें
और कहें
कि यह है प्रमाण उसकी संवेदनशीलता का
और यह भी संभव है
कि उस वक्त उसको शांति का नोबेल पुरस्कार
दिया जा चुका हो या उसका नाम
उस सूची में सबसे ऊपर हो।
प्रश्न 1.
तानाशाह की रूढ़ पहचान क्या है ?
उत्तर :
तानाशाह की रुढ़ पहचान जर्मन तानाशाह हिटलर की है, जिसकी तितली कट मूंछ थी, सैनिक पोशाक पर बिल्ले और तमगे थे, जिसमें भीड़ को सम्मोहित करने की वाक्पटुता थी।
प्रश्न 2.
हमारे समय का तानाशाह कैसा हो सकता है ?
उत्तर :
हमारे समय का तानाशाह स्वयं को सबसे अधिक शोषित-पीड़ित घोषित करेगा। वह निस्पृह-भक्ति की बात करेगा भले ही उसके हृदय में कितनी ही घृणा, दिमाग में खतरनाथ इरादे क्यों न हों। वह शांतिदूत. या लोक कल्याणकारी मुखौटेवाला होगा।
प्रश्न 3.
तानाशाह का चेहरा कैसा हो सकता है ?
उत्तर :
तानाशाह का चेहरा झुरींदार और सफाचट हो सकता है।
प्रश्न 4.
लोग तानाशाह की संवेदनशीलता का क्या प्रमाण बतलाएँगे ?
उत्तर :
लोग तानाशाह के द्वारा बनवाए गए अस्पताल, धर्मशाला, नृत्य केन्द्र, पुस्तकालय इत्यादि को उसकी संवेदनशीलता का प्रमाण देंगे।
प्रश्न 5.
इस कविता का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
इस कविता का उचित शीर्षक ‘तानाशाह की खोज’ हो सकता है।
गज़ल Summary in Hindi
कवि-परिचय :
नाम : दुष्यंत कुमार
जन्म : सन् 1933, राजपुर नवादा गाँव (उ. प्र.)
प्रमुख रचनाएँ –
काव्य :
- सूर्य का स्वागत (कविता संग्रह)
- आवाजों के घेरे (कविता संग्रह)
- जलते हुए वन का बसंत (कविता संग्रह)
- साये में धूप (गज़ल संग्रह)
उपन्यास :
- छोटे-छोटे सवाल
- आँगन, में एक वृक्ष
- दुहरी जिंदगी
नाटक :
- मसीहा मर गया
- मन के कोण (एकांकी संग्रह)
- एक कण्ठ विषपायी (काव्य-नाटक) आदि।
मृत्यु : सन् 1975
समीक्षकों के अनुसार हिन्दी साहित्य में आधुनिक युगबोध के सफल स्रष्टा तरुण कवि श्री दुष्यंतकुमार त्यागी का जन्म 27 सितम्बर, 1933 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नयादा गाँव के भूमिहर-कृषक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपकी जन्म-पत्रिका के अनुसार आपका नामकरण – संस्कार दुष्यंत नारायणसिंह त्यागी हुआ।
आपकी माताजी का नाम श्रीमती रामकिशोरी था, जो दुष्यंतकुमार के पिता श्री भगवत सहाय (छोटे जमींदार) की दूसरी पत्नी थीं। दुष्यंत कुमार की पत्नी का नाम राजेश्वरी त्यागी (एम.ए., बी.एड.) भोपाल में हिंदी प्राध्यापिका रही हैं। आपका निधन 30 दिसम्बर, 1975 को भोपाल में हृदय-गति रुक जाने से हुआ था।
दुष्यंतकुमार ने प्रारंभिक शिक्षा राजपुर-नवादा, नजीबबाद एवं मुजफ्फरनगर से 7वीं कक्षा उत्तीर्ण करके जिला बिजनौर की ‘नहटौर’ तहसील से माध्यमिक शिक्षा और सन् 1948 में ‘चंदौसी इंटर कालेज’ से हायर सैकंडरी परीक्षा (11वीं कक्षा) उत्तीर्ण की। फिर एम.ए., बी.टी. (हिन्दी में) प्रयाग विश्वविद्यालय से 1954 में उत्तीर्ण हुए।
डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ. रसाल आपके गुरु रहे हैं। आपके सहपाठियों में मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अजितकुमार और रवीन्द्रनाथ त्यागी के नाम उल्लेखनीय हैं। दुष्यंतकुमार ने आकाशवाणी के विभिन्न पदों पर कार्य किया। तत्पश्चात् हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में भी कुछ वर्ष तक कार्य किया। बाद में वेलफेअर डायरेक्टर की सरकारी नौकरी में रहे।
तत्पश्चात् मध्यप्रदेश सरकार के भोपाल में भाषा विभाग में सहायक निर्देशक रहे और फिर अनेक नगरों में नौकरी करते रहे। कविवर दुष्यंतजी बचपन से ही स्वाभिमानी तथा शरारती थे। वे मस्तमौला हँसमुख, रोमांटिक एवं साहसी भी रहे हैं। किशोरावस्था से ही आपका रोमांस-काल प्रारंभ हो गया था। मात्र 44 वर्ष की जिंदगी में बहुत कुछ भोग लिया था। उनके इने-गिने मित्रों में कुछ लड़कियाँ भी थीं।
उनकी सशक्त सम्मोहन शक्ति, पुरुषोचित सौंदर्य, बात करने का सलीका तथा अनुभवों और अभिव्यक्ति की समृद्धि थी, जिसके जादुई प्रभाव से प्रभावित होकर नटहौर तहसील के एक त्यागी परिवार की कन्या और दुष्यंतजी प्रेमरंग में इतने रंग गये कि विवाह का निर्णय भी दोनों ने कर लिया।
दुष्यंतजी उसके रूप-सौंदर्य पर न्यौछायर हो चुके थे, परन्तु माता-पिता और अन्य प्रकार की मर्यादाओं के फलस्वरूप उनका स्वप्न साकार न हो सका। जिसकी एक कचोट-पीड़ा उनके दिल में दीर्घकाल तक बनी रही। अपनी एक गज़ल में वे लिखते हैं –
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतुम्बरा,
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा।
दुष्यंत जी जहाँ प्रेम-प्रसंगों में अपनी भावुकता का परिचय देते, वहाँ अन्य मसलों पर बौद्धिक तटस्थता और गंभीरता से चिंतन भी करते। उनके जीवन में यह विरोधी तात्विक संयोग ही, उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकल सकता और शायद इसीलिए दुष्यंतजी के छोटे भाई प्रेमजी के अनुसार उनका व्यक्तित्व काँच-सा पारदर्शी लगता, कभी भूलभुलैया-सा दुर्गम।
दुष्यंतजी पार्टियों-महफिलों के शौकीन जीव होने के साथ ही सुरा-सुन्दरी में डूबनेवालों में से थे। वे परिवर्तन के लिए सदैव बेचैन रहनेवाले गहन अनुभूतियों के संवेदनशील कवि के उपरांत – कर्मवादी प्रामाणिक एवं मानवतावादी उपन्यासकार तथा नाटककार भी थे। अल्पायु में ही उनका देहावसान हो गया, किंतु इस छोटे जीवन की साहित्यिक उपलब्धियाँ कुछ छोटी नहीं हैं।
गज़ल की विधा को हिंदी में प्रतिष्ठित करने का श्रेय अकेले दुष्यंत को ही जाता है। उनके कई शेर साहित्यिक एवं राजनीतिक जमावड़ों में लोकोक्तियों की तरह दुहराए जाते हैं। साहित्यिक गुणवत्ता से समझौता न करते हुए भी दुष्यंत ने लोकप्रियता के नए प्रतिमान कायम किए हैं। एक कंठ विषपायी – – शीर्षक गीतिनाट्य हिंदी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण एवं बहुप्रशंसित कृति है।
गज़ल एक ऐसा साहित्य स्वरूप है जिसमें सभी शेर अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र होते हैं। गज़ल में तुक का निर्याह और कथ्य के स्तर पर मिजाज का निर्वाह जरूरी है। जैसे कि यहाँ पहले शेर की दो पंक्तियों का तक मिलता है और उसके बाद सभी शेरों की दूसरी पंक्ति में उस तुक का निर्वाह होता है।
सामान्य तौर से गज़ल के शेरों में कविता की तरह केन्द्रीय भाव का होना जरूरी नहीं है। लेकिन प्रस्तुत गज़ल में ऐसा लगता है कि गज़लकार ने किसी खास मनःस्थिति में यह गज़ल लिखी है। तभी इसमें समाज की विसंगतियों पर प्रहार और उसे दूर करने का भाव इस गज़ल का मुख्य विषय बन गया है। अतः दुष्यंत की यह गज़ल अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण गज़ल बन गई है।
प्रस्तुत गज़ल दुष्यंतकुमार के प्रसिद्ध गज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ से ली गई है। कविता या कहानी की तरह गज़लों में शीर्षक देने की कोई प्रणाली नहीं है। इसलिए यहाँ भी कोई शीर्षक नहीं दिया गया है। प्रस्तुत गज़ल आजादी के बाद के मोह भंग की स्थितियों का बयान करती है और आम जनता की स्वतंत्रता और खुशहाली की मांग करती है।
गज़ल का सारांश आमतौर पर गज़ल के शेरों में कोई एक केन्द्रीय स्वर होना जरूरी नहीं माना जाता है। राजनीति और समाज में चल रही यशास्थितिवाद को तोड़ने तथा विकल्प की तलाश को स्वीकार करने का भाव यहाँ एक तरह से ग़ज़ल का केंद्रीय विचार सूत्र बन गया है। रुप के स्तर पर रदीफ़ और काफ़िये का पूर्ण निर्वाह हुआ।
अंतर्वस्तु के स्तर पर सभी शेर एक विशेष मनः स्थिति को ही व्यक्त कर रहे दिखते हैं – वर्तमान में जो कुछ चल रहा उसे खारिज करके नवनिर्माण करना। इसे आजादी के सपनों के पूरा न होने के मोहभंग के रूप में भी देख सकते हैं। फलस्वरूप दूसरी आजादी के लिए पुनः संघर्ष आवश्यक है। उसमें स्वयं को समर्पित कर बदलाव का संदेश भी निहित है।
गज़ल का भावार्थ :
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
प्रस्तुत गज़ल दुष्यंत के गज़ल-संग्रह ‘साये में धूप’ में संग्रहीत शीर्षक गज़ल है। इसमें कुल मिलाकर सात शेर हैं। यों तो गज़ल की यह उल्लेखनीय सर्वमान्य विशेषता हैं कि उसका हर शेर पूर्वापर संबंध से मुक्त और अपने कथ्य को लेकर एकदम स्वतंत्र होता है, फिर भी जहाँ तक दुष्यंत की आलोच्य गज़ल का संबंध है, समष्टि रूप से यह कहा जा सकता है कि यह सामाजिक चेतना से अनुप्राणित गज़ल है, इसमें युग बोध की तीखी व्यंजना है।
प्रस्तुत गज़ल में कवि ने आजादी के बाद देश में छाए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक शोषण का संकेत देते हुए मूल्यहीन अवनत होते हुए भारतीय समाज पर तीव्र आक्रोश व्यक्त किया है।
किस तरह आग आदमी के सपने बिखर गए हैं, किस भाँति जीना भी दुश्वार हो गया है – किस तरह प्रशासन, राजनैतिक कठमुल्ले, धार्मिक पाखण्डी एवं तथाकथित समाजवादी आम आदमी के घर के चिराग भी गुल करते रहे हैं, कवि इन्हीं सब विद्रूप-बिडम्बनायुक्त करतूतों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए कहता है –
कि कहाँ तो आजादी मिलने के बख्त यह बात तय थी कि हर घर को चिराग नसीब होगा अर्थात् हर घर में हर्ष, उल्लास और सुबुद्धि का दीपक रोशन कर दिया जायेगा और कहाँ आज यह स्थिति है कि पूरे शहर का ही चिराग गुल है। पूरा शहर ही रोशनी के लिए तड़पता है।
अर्थात् पूरा का पूरा मध्यम एवं निम्नवर्गीय मानव-समुदाय ही भयंकर गरीबी, शोषण, पीड़न और अन्याय के तले दम तोड़ रहा है। यहाँ गज़लकार ने पहली पंक्ति में चिरागाँ (बहुवचन) शब्द का प्रयोग किया है। इससे गज़लकार का आशय यह है कि आजादी मिलने के समय हमारे राजपुरुषों ने देश की जनता को यह कह कर आश्वस्त किया था कि हर एक घर में खुशियों के चिराग जलेंगे अर्थात् आम जनता की बुनियादी जरुरतें रोटी, कपड़ा, मकान की सुविधा होगी।
हर एक घर, हर एक वो आदमी जिसने एक बेहतरीन जीवन जीने का सपना देखा था उसे पूरा करने का वादा हमारे राजपुरुषों, शासकों ने किया था। दूसरी पंक्ति में गज़लकार ने चिराग (एकवचन) शब्द का प्रयोग किया है। इससे गज़लकार का आशय यह है कि आजादी मिलने के बाद आम जनता का एक बेहतरीन जीवन जीने का भ्रम टूटता है।
एक घर ही नहीं आज पूरे नगर में अंधकार व्याप्त है – निराशा का अंधकार ! आम आदमी का जीवन नितान्त अभावग्रस्त है। रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जसरों से भी वह पंचित है। इसी बात को दुष्यंत जी ने बड़ी कुशलता से प्रस्तुत पंक्तियों में व्यक्त किया है।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
कवि को दरख्तों के साये में भी धूप लगती है – शरीर झुलसता है। अर्थात् यहाँ तो रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। आश्रयदाता ही (नेतादि) ही सारा सुख-चैन लूटने में लगे हुए हैं। वह उम्र भर के लिए ऐसे दरख्तों का साया छोड़कर, ऐसे लुटेरे आश्रयदाताओं के चंगुल से मुक्त हो खुले में सांस लेने के लिए कहीं ओर चलने की बात करता है।
यहाँ कवि के कहने का आशय यह है कि बड़ेबड़े पूंजीपति, धनपति, राजनेता और तथाकथित समाजसेवकों तथा धर्मधुरंधरों जैसे वटवृक्ष भी निरर्थक हैं। आम जनता को उनसे भी छाया की उम्मीद नहीं, बल्कि भीषण धूप (दुःख और यातनाएँ) बर्दाश्त करनी पड़ रही हैं। जो लोग आम जनता की दुःख-तकलीफों को दूर करने, उनकी जरूरतों का पूरा करने, उनकी रक्षा करने का वादा करते हैं वही लोग भक्षक बन उनका बड़ी ही निर्दयता से शोषण करते हैं। उन पर असहनीय अत्याचार करते हैं।
जिनसे आम जनता को अपने अधिकारों की रक्षा की उम्मीद होती है वही उनके अधिकारों का हनन करते हैं। कवि ऐसे शोषणकर्ताओं, लूटेरों, पूँजीपतियों, भ्रष्टाचार आदि परिवेश से बहुत दूर चला जाना चाहता है और उम्रभर के लिए।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट बैंक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
कवि आम आदमी के विषय में बताता है कि ये लोग गरीबी व शोषित जीवन जीने पर मजबूर हैं। जिंदगी का सफर कमीज के बगैर तय करने में सक्षम इस देश के लोग बड़े अच्छे और समुचित हैं। ये अपने निर्वस्त्र जिस्म को पाँवों से ही टैंक लिया करते हैं। कवि इन पंक्तियों द्वारा ऐसे लोगों की बात करता है जिन्होंने अपनी बद से बदतर जिंदगी से समझौता कर लिया है।
कितनी ही दयनीय स्थिति क्यों न हो, भुखमरी हो, तन ढकने को कपड़ा न हो, सर पर छत न हो, वे स्वयं को उन परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लेते हैं। अपने हक के लिए आवाज नहीं उठाते। अपने अधिकारों के लिए इस भ्रष्ट शासक तंत्र से लड़ते नहीं है। बस चुपचाप इस असहनीय दर्द और जिल्लत भरी जिंदगी के सफर को काटे जा रहें हैं।
तभी तो कवि कहता कि आज आम आदमी की यह दशा है कि कमीज नसीब न हो तो बेचारे पाँव सिकोड़कर ही अपने भूखे-पिचके हुए पेट ढक-कर छिपाने के लिए यत्नशील हैं। अर्थात् अर्थ-शोषण ने आम आदमी को नग्नता, भूखमरी और जिल्लत के कमार पर पहुँचा दिया है ! उनमें विरोध करने का भाव समाप्त हो चुका है।
कवि ने ऐसे निर्माल्य और निवीर्य प्रजा पर भी व्यंग्य का कुठाराघात किया है जो सारे जुल्म सहकर भी उफ तक नहीं करती। ऐसे लोग ही शासकों के लिए उपयुक्त हैं क्योंकि इनके कारण उनका राज शांति से चलता है। यहाँ कवि जिंदगी का अगला सफर-क्रांति का – विरोध का जनवादी गत्यात्मक विकास का चाहता है।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
खुदा या भगवान है या नहीं यह बात निश्चय ही विवादास्पद है। लेकिन कवि खुदा को आदमी के ख्वाब या स्वप्न की शक्ल में स्वीकृति अवश्य देता है, क्योंकि यहाँ के आम आदमी की नजर को खुदा के रूप में एक सुंदर दृश्य तो देखने को मिल जाता है। अन्यथा देश में चारों ओर रक्तपात, पथराव, आगजनी, लूट, फरेब-मक्कारी जैसे दूषित दृश्य ही दिखाई पड़ते है।
कषि के कहने का तात्पर्य यह है कि आज आम जनता के लिए न्याय और सुन एक ख्वाब बनकर रह गया है। शोषण मुक्त जिंदगी का यह सपना देखता है। उसके घर में भी रोशनी होगी, तन ढकने को कपड़ा, सिर पर छत होगी। खाने को रोटी, शिक्षा, अस्पताल आदि सभी सुविधाएँ प्राप्त होंगी।
लोग भ्रष्टाचारी शासकों के अत्याचारों, उनके फरेब-मक्कारी, लूट, अपने फायदे के लिए आपस में ही लोगों को लड़वाकर उनका रक्त बहाते, इन धूत राजनेताओं के चंगुल से आजाद होने का सपना ही देखा करते हैं। क्योंकि हकीकत में तो आम जनता ‘ का एक सुखी, संपन्न तथा स्वस्थ, शोषणमुक्त जीवन हो ही नहीं सकता।
लोग शांति एवं सुख्खमय जीवन का सपना बुनकर ही दिल को तसल्ली देकर खुश हो जाते हैं। इसलिए तो कवि कहता है कि हकीकत न सही सपना ही सही कोई हसीन नजारा (स्वप्न) तो है जो आज का मजबूर, शोषित, आम आदमी देखता और बाँटता फिरता है।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
देश के वर्तमान सत्ताधीशों या राजपुरुषों को अपने पाषाण जैसे कठोर हृदय के प्रति यह विश्वास है कि वह किसी भी हालत में द्रवीभूत नहीं हो सकता। जनता की करुण चित्कार का भी उनके संगदिल पर कोई असर नहीं हो सकता, किंतु इधर जनता का प्रतिनिधि हमारा गज़लकार भी अपने आत्मविश्वास पर अडिग है; वह अपनी आवाज में वो असर पैदा करने के लिए बेचैन है जो एक न एक दिन पत्थरों को भी पिघला कर रहेगी।
कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि वे शोषक यह भरोसा लिए बैठे हुए हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, शोषक संवेदनीय हो नहीं सकते और कवि अपनी वाणी से नव-जागरण एवं पीड़ितों को जगाने तथा शोषक समुदाय का आमूल चूल नष्ट कर देने के लिए क्रांति स्वर में जो गीत गा रहा है, उसका आम आदमी पर असर देखने के लिए बेताब भी है, आशान्वित – भी है।
उसे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन उसके क्रांति-गीत शोषितों को अवश्य जगा देंगे और फिर अन्याय-अत्याचार के खिलाफ सारा देश उठ खड़ा होगा। कवि देखना चाहता है कि लोगों की आवाज में ऐसा असर अर्थात् क्रांति, विद्रोह, विरोध की भावना पैदा हो, जो शासकों के आँख-कान खोल सके ! जनता की असरदार आवाज ही शासकों का गैरजिम्मेदाराना रवैया बदल सकती है।
तेरा निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
कवि का यह अटल आत्मविश्वास उस वक्त चरमसीमा तक पहुँचा हुआ दिखाई देता है जब यह कहता है कि ऐ मेरे मुल्क के रहनुमाओं (नेताओं)! तुम्हारी हुकुमत है, तुम चाहो तो मेरी जुबान भी सिल सकते हो, लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे जुल्मोंसितम ही मेरी शायरी को इन्कलाबी रूप देंगे, उसमें आग उगलने की ताकत पैदा करेंगे।
कवि की जबान बंद करने के लिए उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं। कभी-कभी उसे अपनी जबान न खोलने के लिए डराने-धमकाने की कोशिशें भी की जाती हैं। कवि के कहने का आशय यह है कि शासक ऐसी व्यवस्था चाहते हैं कि शायर को उसकी जबान न खोलने दी जाए, इससे वह लोगों के दुखदर्द को प्रकाश में नहीं ला सकेगा। यदि शासक अपने संतोष के लिए ऐसी सावधानी बरतना चाहते हैं तो भले बरत लें।
कवि अपने लक्ष्य पर अडिग है। कवि शोषकों के हर हथकंड़ों का संकेत देता है – यहाँ तक कि प्रेस सेंसर-शिप के नाम पर पूरे का पूरा सरकारी तन्त्र कवि की जुबान सी लेना चाहता है लेकिन शायर भी पूरी तरह जागरूक है – अपना आक्रोश – मान सुनाने के लिए कमर कस कर अड़ा हुआ है।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमहोर के लिए।
कवि तो सिर्फ गुलमोहर के मधुर उल्लासपूर्ण सुखशान्ति प्रदायक यथार्थ को ही पाना चाहता है तथा दूसरों को भी पाने देना चाहता है। एक ही तमन्ना है कि जीएँ तो अपने बाग में – अपने देश की जमीन पर गुलमोहर के तले और मरे भी तो गैर की गलियों में प्रेम, बन्धुत्व, माधुर्य और उल्लास के प्रतीक गुलमोहर की खातिर ही।
कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि हम जिएँगे तो अपने मूल्क में अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य के साथ जिएँगे और यदि हमें पराई गलियों यानी परदेश में गए और खुदा न खास्ता हमारा दम नहीं टूटा तो भी हमारे मन-प्राणों में (वतनपरस्ती और वतन के हर आम आदमी का हित का) वह जीवन-लक्ष्य तो बरकरार रहेगा। यहाँ गुलमोहर जीवन-लक्ष्य का प्रतीक है। कवि का दृढ़ संकल्प भी इस शेर में व्यक्त हुआ है।
शब्दार्थ :
- मयस्सर – उपलब्ध
- मुतमइन – इतमीनान से, आश्वस्त
- निज़ाम – राज, शासन, शासक
- बहर – छंद
- चिराग – दीपक
- उम्रभर – जीवन भर
- सफर – रास्ता
- हसीन – सुंदर
- सिल दे – बंद कर देना
- दरख्त – पेड़
- बेकरार – बेचैन, आतुर
- एहतियात – सावधानी
- तय – निश्चित
- साया – छाया
- मुनासिब – अनुकूल, उपयुक्त
- ख्वाब – सपना
- नजारा – दृश्य