GSEB Solutions Class 11 Organization of Commerce and Management Chapter 6 धन्धाकीय व्यवस्था के स्वरूप – 2

Gujarat Board GSEB Textbook Solutions Class 11 Organization of Commerce and Management Chapter 6 धन्धाकीय व्यवस्था के स्वरूप – 2 Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.

Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Organization of Commerce and Management Chapter 6 धन्धाकीय व्यवस्था के स्वरूप – 2

GSEB Class 11 Organization of Commerce and Management धन्धाकीय व्यवस्था के स्वरूप – 2 Text Book Questions and Answers

स्वाध्याय
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दिये गये विकल्प में से सही विकल्प पसन्द करके लिखिए :

प्रश्न 1.
सहकारी समिति में सदस्य ……………………………
(A) प्रति शेयर मत दे सकते है ।
(B) प्रति सदस्य मत दे सकते है ।
(C) पूँजी के प्रमाण में मत दे सकते है ।
(D) कार्यक्षमता प्रमाण में मत दे सकते है ।
उत्तर :
(B) प्रति सदस्य मत दे सकते है ।

प्रश्न 2.
सहकारी समिति को किसकी प्रशिक्षण शाला कहा जाता है ?
(A) सेवा की
(B) समृद्धि की
(C) तानाशाही की
(D) लोकशाही की
उत्तर :
(D) लोकशाही की

प्रश्न 3.
सहकारी समिति ………………………..
(A) पूँजीपतियों की संस्था है
(B) सदस्यों की सेवा का उद्देश्य होता है ।
(C) लाभ का उद्देश्य
(D) सट्टाबाजी को प्रोत्साहन देते है ।
उत्तर :
(B) सदस्यों की सेवा का उद्देश्य होता है ।

प्रश्न 4.
सहकारी समिति की स्थापना के लिए कम से कम कितने व्यक्ति होने चाहिए ?
(A) 10
(B) 20
(C) 30
(D) 50
उत्तर :
(A) 10

प्रश्न 5.
सदस्यों के आर्थिक उत्कर्ष के लिए सेवा को महत्त्व देते है ……………………….
(A) व्यक्तिगत मालिकी
(B) निजी कम्पनी
(C) सार्वजनिक कम्पनी
(D) सहकारी समिति
उत्तर :
(D) सहकारी समिति

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प्रश्न 6.
सहकारी समिति लाभांश ………………………….
(A) चुका नहीं सकती
(B) कितने ही प्रमाण में चुका सकती
(C) कानून के अधीन रहकर चुकाती
(D) केन्द्र व राज्य सरकार की अनुमति से चुका सकती
उत्तर :
(C) कानून के अधीन रहकर चुकाती

प्रश्न 7.
आर्थिक विकास के इन्जिन के रूप में किसे गिना सकते है ?
(A) व्यक्तिगत मालिकी
(B) साझेदारी संस्था
(C) सहकारी समिति
(D) कम्पनी स्वरूप
उत्तर :
(D) कम्पनी स्वरूप

प्रश्न 8.
भारत में वर्तमान में कौन-सा कम्पनी कानून अमल में है ?
(A) 1912
(B) 1932
(C) 1956
(D) 2013
उत्तर :
(D) 2013

प्रश्न 9.
कम्पनी अपने कार्यों की सहमति किसके द्वारा व्यक्त करते है ?
(A) नाम द्वारा
(B) सार्व-मुद्रा द्वारा
(C) आवेदन-पत्र द्वारा
(D) कृत्रिम व्यक्तित्व द्वारा
उत्तर :
(B) सार्व-मुद्रा द्वारा

प्रश्न 10.
कम्पनी अपने सदस्यों का दायित्व का प्रकार कौन-से दस्तावेज में दर्शाता है ?
(A) आवेदन-पत्र
(B) नियमन-पत्र
(C) सदस्य पत्र
(D) करार पत्र
उत्तर :
(A) आवेदन-पत्र

प्रश्न 11.
धन्धाकीय व्यवस्था के कौन-से स्वरूप में मालिकी और संचालन अलग नहीं होता ?
(A) सार्वजनिक कम्पनी
(B) निजी कम्पनी
(C) व्यक्तिगत मालिकी
(D) सहकारी समिति
उत्तर :
(C) व्यक्तिगत मालिकी

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प्रश्न 12.
कम्पनी स्वरूप का महत्त्वपूर्ण लक्षण कौन-सा है ?
(A) बिशाल पैमाने पर पूँजी
(B) कानूनन व्यक्तित्व
(C) स्थायी अस्तित्व
(D) शेयर का सरलता से परिवर्तन
उत्तर :
(D) शेयर का सरलता से परिवर्तन

प्रश्न 13.
कम्पनी के आन्तरिक प्रशासन का दस्तावेज अर्थात् ……………………….
(A) M/A आवेदन-पत्र
(B) A/A नियमन-पत्र
(C) Prospectus विज्ञापन-पत्र
(D) Table ‘A’ टेबल ‘अ’
उत्तर :
(B) A/A नियमन-पत्र

प्रश्न 14.
कम्पनी में पूँजी प्राप्ति हेतु आम जनता को दिया जानेवाला आमंत्रण अर्थात् …………………….
(A) आवेदन-पत्र
(B) नियमन-पत्र
(C) टेबल ‘अ’
(D) विज्ञापन-पत्र
उत्तर :
(D) विज्ञापन-पत्र

प्रश्न 15.
कम्पनी को धन्धा आरम्भ करने के लिए कम से कम अमुक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है, वह …………………
(A) अधिकृत पूँजी
(B) बिन-अधिकृत पूँजी
(C) भरपाई हुई पूँजी
(D) लघुत्तम भरपाई
उत्तर :
(D) लघुत्तम भरपाई

प्रश्न 16.
अपरिवर्तनीय दस्तावेज कौन-सा कहलाता है ?
(A) आवेदन-पत्र
(B) नियमन-पत्र
(C) टेबल ‘अ’
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर :
(A) आवेदन-पत्र

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प्रश्न 17.
नियमन-पत्र यह आवेदन-पत्र का दस्तावेज है ।
(A) विरोधी
(B) समान
(C) मुख्य
(D) सहायक (गौण)
उत्तर :
(D) सहायक (गौण)

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दीजिए :

प्रश्न 1.
सहकारी समिति में व्यक्ति किसलिए जड़ते है ?
उत्तर :
सहकारी समिति में व्यक्ति समानता के आधार पर जुड़ते है । अर्थात् व्यक्ति अपने आर्थिक हित के संवर्द्धन के लिए समानता के स्तर पर स्वैच्छिक रूप से जुड़ते है ।

प्रश्न 2.
सहकारी मण्डली का मुख्य उद्देश्य कौन-सा है ?
उत्तर :
सहकारी समिति का मुख्य उद्देश्य सेवा का होता है, लाभ का उद्देश्य गौण होता है । सेवा के हेतु द्वारा आर्थिक उत्कर्ष करना है, उन्हें शोषण से मुक्त करना, उन्हें स्वावलम्बी बनाना, उनमें बचत की भावना को विकसित करना, उन्हें आवश्यक चीजवस्तुएँ उचित मूल्य पर प्रदान करना आदि उद्देश्य होता है ।

प्रश्न 3.
सहकारी समिति को कानूनी अलग व्यक्तित्व कब मिलता है ?
उत्तर :
सहकारी समिति को उनका पंजियन होते ही उनको सदस्यों से अलग कानूनी अस्तित्व मिलता है ।

प्रश्न 4.
कौन-से प्रकार की सहकारी समिति उनके सदस्यों को दैनिक उपभोग की वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्रदान करती है ?
उत्तर :
ग्राहकों की सहकारी समिति

प्रश्न 5.
सहकारी समिति में प्रति सदस्य एक मत से आप क्या समझते है ?
उत्तर :
सहकारी समिति में प्रति सदस्य एक मत अर्थात् सहकारी समिति में सदस्यों के पास कितनी ही संख्या में शेयर क्यों न हो बल्कि ‘एक ही मत’ देने का अधिकार होता है ।

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प्रश्न 6.
कम्पनी को आर्थिक विकास का इन्जिन किसलिए कहा जाता है ?
उत्तर :
कम्पनी स्वरूप के विकास से व्यापार-उद्योग का तेजी से विकास हुआ है । इस प्रकार कम्पनी को आर्थिक विकास के इन्जिन के रूप में पहचाना जाता है ।

प्रश्न 7.
सार्वजनिक कम्पनी और निजी कम्पनी में कम से कम कितने सदस्य होने चाहिए ?
उत्तर :
सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम 7 सदस्य व निजी कम्पनी में कम से कम 2 सदस्य होने चाहिए ।

प्रश्न 8.
कम्पनी के सदस्यों का सीमित दायित्व से आप क्या समझते है ?
उत्तर :
कम्पनी के सदस्यों का सीमित दायित्व अर्थात् अंश (Share) से सीमित दायित्ववाली कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा धारण किए गए शेयर की रकम तक ही सीमित होती है ।

प्रश्न 9.
एक व्यक्ति की कम्पनी किसे कहते हैं ?
उत्तर :
एक व्यक्ति की कम्पनी अर्थात् ऐसी कम्पनी कि जिसमें एक व्यक्ति सदस्य के रूप में हो । एक व्यक्ति की (निजी) कम्पनी, कम्पनी में संचालक
हो ऐसे एक सदस्य के साथ करार कर सकती है । एक व्यक्ति की कम्पनी में ऐसे व्यक्ति की लिखित सहमति अनिवार्य है ।

प्रश्न 10.
SEBI का विस्तृत रूप दीजिए ।
उत्तर :
Security Exchange Board of India.

प्रश्न 11.
सार्वजनिक कंपनी में अधिक से अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं ?
उत्तर :
सार्वजनिक कंपनी में कम से कम सात तथा अधिक से अधिक अमर्यादित सदस्य हो सकते हैं ।

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प्रश्न 12.
सीमित दायित्व से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
धन्धे में पूँजी लगानेवाले का दायित्व उसके द्वारा लगाई गई पूँजी तक मर्यादित हो उसे सीमित दायित्व कहते हैं । कंपनी के शेयरहोल्डर की जिम्मेदारी मर्यादित होती है । उसका दायित्व उसके द्वारा खरीदे गये शेयर तक ही सीमित होता है ।

प्रश्न 13.
निजी कंपनी की परिभाषा दीजिए ।
उत्तर :
कंपनी अधिनियम के अनुसार निजी कंपनी अर्थात् वह कंपनी जो अपने अन्तर्नियमों के द्वारा :

  1. अपने सदस्यों के शेयर-परिवर्तन का अधिकार पर नियंत्रण रखे,
  2. अपने सदस्यों की संख्या 200 से अधिक नहीं रख्खे और
  3. अपने शेयर या ऋणपत्र खरीदने के लिये आम जनता को आमंत्रित करने पर प्रतिबंध रख्ने ।

प्रश्न 14.
कंपनी के किन्हीं चार लाभों को बताइए ।
उत्तर :
कंपनी में विशाल पूँजी-कोष एकत्रित किया जाता है, सदस्यों का दायित्व सीमित होता है, कंपनी का अस्तित्व-सातत्य रहता है, कंपनी में लोकतांत्रिक रूप से संचालन होता है ।

प्रश्न 15.
कंपनी की किन्हीं तीन सामाजिक उपयोगिता बताइए ।
उत्तर :
कंपनी-स्वरूप में विशाल पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है, बेकारी में कमी रहती है, लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होता है तथा समाज के साधनों का श्रेष्ठ उपयाग किया जाता है ।

प्रश्न 16.
कंपनी किस प्रकार अमूर्त है ? समझाइए ।।
उत्तर :
कंपनी का अपना कोई भौतिक व्यक्तित्व नहीं होता । परंतु उसे कानून से कृत्रिम व्यक्तित्व प्राप्त होता है । इसलिए कंपनी अपनी सहमति के लिए सार्वमुद्रा का प्रयोग करती है ।

प्रश्न 17.
शेयरहोल्डर्स कंपनी के संचालन में सीधे भाग क्यों नहीं लेते ?
उत्तर :
कंपनी की पूँजी छोटे-छोटे शेयरों में बँटी रहती है, उन शेयरों के लोग खरीदकर शेयरहोल्डर बनते हैं ।

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प्रश्न 18.
राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करनेवाली सहकारी संस्थाओं के तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
राष्ट्रीय कृषि विक्रय संघ, राष्ट्रीय सहकारी डेरी संघ, राष्ट्रीय सहकारी गृह निर्माण संघ वगैरह राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करनेवाली सहकारी संस्था के उदाहरण हैं ।

प्रश्न 19.
भारत में सहकारी भंडार के कोई दो उदाहरण दीजिए ।
उत्तर :
मुंबई का ‘अपना बाजार’ और अहमदाबाद का ‘अपना बाजार’ यह सहकारी भंडार के उदाहरण हैं ।

प्रश्न 20.
लैंड मोर्टगेज बैंक किसानों को किस तरह से मदद करता है ?
उत्तर :
लैंड मोर्टगेज बैंक किसानों को दीर्घकालीन ऋण दिलवाने में मदद करता है । यह ऋण जमीन को गिरवी रखकर दिया जाता है ।

प्रश्न 21.
सहकारी समिति की स्थापना किस तरह और कितने सदस्यों से हो सकती है ?
उत्तर :
सहकारी समिति की स्थापना के लिए कम से कम दस या उससे अधिक सदस्य नमूने के अनुसार अरजीपत्रक में अर्जी करके सहकारी समिति को रजिस्ट्रार से रजिस्टर्ड करवा सकते हैं ।

प्रश्न 22.
सहकारी मंडली कल्याणकारी सामाजिक प्रवृत्ति किस प्रकार करती है ?
उत्तर :
सहकारी मंडली संचय निधि में से मुद्रा खर्च करके कल्याणकारी सामाजिक प्रवृत्ति जैसे स्कूल, अस्पताल, बागबगीचा इत्यादि की व्यवस्था करती है । सामाजिक प्रवृत्तियों में उसका यह हिस्सा महत्त्वपूर्ण है ।

प्रश्न 23.
सहकारी मंडली में सहकारिता की भावना का किस प्रकार विकास होता है ?
उत्तर :
समिति के सदस्यों में स्वमान, प्रामाणिकता, स्वावलंबन तथा बंधुत्व एवं एकता के गुणों का विकास होता है, जिससे उनके दैनिक जीवन में नैतिक एवं शैक्षणिक ज्ञान की वृद्धि होती है ।

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प्रश्न 24.
समझाइए कि ‘सहकारी मंडली स्वैच्छिक संगठन है ।’
उत्तर :
सहकारी मंडली स्वैच्छिक संगठन है । अर्थात् लोग इसमें स्वेच्छा से शामिल होते हैं और स्वेच्छा से उससे अलग हो सकते हैं।

प्रश्न 25.
नियमन-पत्र का महत्त्व बताइये ।
उत्तर :
नियमन-पत्र में कम्पनी की आंतरिक प्रबंध-व्यवस्था से सम्बन्धित नियम होते हैं । नियमन-पत्र कम्पनी और सदस्यों के बीच का सम्बन्ध नियंत्रित करता है । आवेदन-पत्र कम्पनी के उद्देश्य और कार्यक्षेत्र निश्चित करता है जबकि नियमन-पत्र इन उद्देश्यों और कार्यक्षेत्र की मर्यादा में रहकर कम्पनी के आंतरिक प्रबंध-व्यवस्था का नियम निश्चित करता है । इस प्रकार यह कम्पनी का सहायक और गौण दस्तावेज है ।

नियमन-पत्र संविधान के अनुसार कार्यों को किस प्रकार पूरा करना होगा इसका नियम निश्चित करता है । नियमन-पत्र में ऊपर निर्दिष्ट (नियमन-पत्र में समाविष्ट बातें) विवरण से सम्बन्धित नियम दर्शाये गये होते हैं । नियमन-पत्र पर से यह ख्याल आता है कि कम्पनी सार्वजनिक कम्पनी है या निजी कम्पनी । इस प्रकार नियमन-पत्र एक गौण दस्तावेज गिना जाने के बावजूद कम्पनी की आंतरिक व्यवस्था और संचालन की दृष्टि से उसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना गया है ।

प्रश्न 26.
सहकारी समिति का अर्थ बताइए ।
उत्तर :
सहकारी समिति यह स्वैच्छिक व्यवस्था का स्वरुप है । जिसमें परस्पर समान-समान हित वाले व्यक्ति जुड़ते है । व्यक्ति अपने निश्चित् उद्देश्य को पूरा करने के लिए समिति की रचना करते है, जिसका उद्देश्य सदस्यों के मध्य सहकार स्थापित करकें आर्थिक हित का संवर्धन करना ।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षिप्त में दीजिए :

प्रश्न 1.
सहकारी समिति में असहकार का निर्माण किस परिस्थिति में होता है ?
उत्तर :
सहकारी समिति के सदस्यों में वफादारी का अभाव हो, सदस्यों के मध्य मतभेद हो, संघर्ष, गुट-बाजी, स्वार्थी-प्रवृत्ति आ जाने की स्थिति में सहकारी समिति की संस्था में असहकार का निर्माण होता है । ऐसी स्थिति में सहकारी समिति समान हित रखनेवाले व्यक्तियों का संगठन होने के बावजूद भी सहकार का लाभ नहीं मिल पाता है ।

प्रश्न 2.
सहकारी समिति में लाभ का वितरण किस तरह होता है ?
उत्तर :
सहकारी समिति का उद्देश्य सेवा का होता है, फिर भी आय में वृद्धि हो तो ऐसे लाभ समिति के सदस्यों के मध्य कानूनी व्यवस्थाओं की अधीन रहकर लाभांश (Dividend) के रूप में वितरण किया जाता है । शेष लाभ को सदस्यों अथवा समाज के कल्याण हेतु उपयोग किया जाता है ।

प्रश्न 3.
सहकारी मण्डली को लोकशाही की प्रशिक्षण शाला किसलिए कहते हैं ?
उत्तर :
सहकारी समिति में सदस्यों द्वारा चयनित प्रतिनिधियों द्वारा संचालन किया जाता है । प्रत्येक सदस्य को केवल एक ही मत (Vote) देने का अधिकार होता है । सहकारी समिति में पूँजी को नहीं बल्कि ‘मानव’ को महत्त्व दिया जाता है । इसमें प्रबन्धकीय समिति के लिए कोई भी सदस्य आवेदन कर सकता है । प्रबन्ध या प्रशासन में भाग ले सकता है । कम्पनी स्वरूप की अपेक्षाकृत सहकारी समिति सही अर्थ में लोकतांत्रिक ढंग से संचालन अथवा प्रशासन होता है । इस तरह इसको लोकशाही अथवा लोकतांत्रिक की प्रशिक्षण शाला कहा जाता है ।

प्रश्न 4.
कम्पनी स्वरूप में मालिकी और संचालन किस तरह अलग पड़ता है ?
उत्तर :
कम्पनी में मालिकी और संचालन दोनों अलग होते है । शेयरधारक कम्पनी के मालिक होते है परन्तु वे सभी कम्पनी का संचालन नहीं करते । शेयरधारक संचालन के लिए स्वयं के प्रतिनिधि का चुनाव करते है, जो संचालक मण्डल (Board of Directors) कहलाता है, जो कम्पनी का संचालन करते हैं ।

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प्रश्न 5.
कम्पनी से समाज और राष्ट्र को कौन-से लाभ मिलते है ?
उत्तर :
कम्पनी की स्थापना से देश के असंख्य लोगों को रोजगार प्राप्त होता है । कई कम्पनियाँ स्थानिक विस्तार में स्कूल, कॉलेज, चिकित्सालय, बगीचा, खेलकूद के मैदान का विकास आदि के हेतु आर्थिक सहायता प्रदान करती है । राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा देश के आर्थिक विकास में योगदान प्रदान करती है । कम्पनी अपने कर्मचारियों को भी अपनी स्वेच्छा से सुविधाएँ प्रदान करती है । कम्पनियाँ प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये कर (Tax) के रूप में चुकाती है, जो रकम देश के विकास के रूप में खर्च करती है ।

प्रश्न 6.
कम्पनी के कोई भी तीन लक्षण समझाइए ।
उत्तर :
इस प्रश्न का उत्तर देखिए स्वाध्याय का 5 प्रश्न का 2 प्रश्न में

प्रश्न 7.
कम्पनी में प्रति अंश (Per Share) मताधिकार से आप क्या समझते है ?
उत्तर :
कम्पनी स्वरूप में सदस्यों के पास जितनी संख्या में अंश हो उतने मत (Vote) दे सकते है ।

प्रश्न 8.
कम्पनी की कार्यकारी पहचान किससे होती हैं ? कैसे ?
उत्तर :
कम्पनी की कार्यकारी पहिचान उसके आवेदन-पत्र द्वारा होती हैं । कम्पनी कौन-सी प्रवृत्ति करेगी, कितनी पूँजी से धन्धा करेगी, कम्पनी के सदस्यों की जिम्मेदारी कैसी होगी, कम्पनी के संचालक किस स्थान पर मिलेंगे इत्यादि बातों की जानकारी आवेदनपत्र द्वारा होती है ।

प्रश्न 9.
कम्पनी कौन-सा नाम नहीं रख सकती ?
उत्तर :
कम्पनी चाहे जो नाम रख सकती है परन्तु
(a) दूसरी किसी पंजीकृत कम्पनी का नाम नहीं रख सकती।
(b) राष्ट्र या राज्य के सबसे बड़े व्यक्ति (राष्ट्रपति या राज्यपाल) के नाम से जुड़ा हुआ नाम नहीं रख सकती ।
(c) सरकार के नाम से मिलता-जुलता नाम या सरकारी नीति के विरुद्ध का नाम नहीं रख सकती हैं ।

प्रश्न 10.
कौन-सी मर्यादित जिम्मेदारीवाली कम्पनी को नाम के अन्त में “लिमिटेड” या “प्राइवेट लिमिटेड” शब्द लगाने से छूट मिलती
उत्तर :
कम्पनी अधिनियम 1956 के कानून में सन् 1960 के संशोधन के अनुसार कोई भी कम्पनी समाज-कल्याण के उद्देश्य से कला, धर्म, विज्ञान इत्यादि के उद्देश्य से अस्तित्व में आयी हो अथवा कम्पनी अपना लाभ कभी भी लाभांश (Dividend) के रूप में नहीं बाँटेगी ऐसा केन्द्र सरकार को विश्वास दिलाये तो ऐसी कम्पनी को अपने नाम के अन्त में Ltd. या Pvt. Ltd. शब्द लगाने से मुक्ति मिलती है ।

प्रश्न 11.
पंजीयन के प्रमाण-पत्र का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
पंजीयन का प्रमाण-पत्र कंपनी कानून के अंतर्गत कंपनी के पंजीयन का प्रमाण है और उसमें प्रदर्शित तारीख से उसके मालिक, संचालक और कर्मचारियों से अलग, कानूनी व्यक्तित्व धारण करनेवाले व्यक्ति के रूप में कंपनी का जन्म होता है । निजी कंपनी यह प्रमाणपत्र मिलने की तारीख से कानूनी स्तर पर धंधा प्रारंभ कर सकती है ।

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प्रश्न 12.
कानूनन प्रथम सभा का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर :
कानूनन प्रथम सभा का उद्देश्य है कंपनी की स्थापना से सम्बन्धित कच्चे करारों का प्राथमिक खर्च और लिए गये सभी निर्णयों के संदर्भ में शेयरधारकों की मंजूरी प्राप्त करना । कंपनी की स्थापना की समग्र विधि को कानूनी स्वरूप देना तथा शेयर-धारकों को कंपनी से सम्बन्धित सभी जानकारी व्यवस्थित रूप में संक्षेप में बताना भी एक उद्देश्य है ।

प्रश्न 13.
प्रवर्तक :
उत्तर :
जिन्हें कंपनी की स्थापना का विचार आये, जो कंपनी की स्थापना के लिए पूर्व तैयारी करें और उसके संदर्भ में व्यक्तिगत जिम्मेदारी . उठाये उन्हें प्रवर्तक या स्थापक कहते हैं ।

प्रश्न 14.
अधिकृत कंपनी :
उत्तर :
कंपनी के आवेदन-पत्र में दर्शायी गयी कुल पूंजी को अधिकृत या सत्तावार पूंजी कहते हैं । कंपनी अपने अस्तित्व दरम्यान अधिक से अधिक इतनी पूंजी ही शेयरधारकों से प्राप्त कर सकती है ।

प्रश्न 15.
लघुतम भरपाई राशि :
उत्तर :
विज्ञापन-पत्र में दर्शायी गयी कम से कम जितनी पूंजी नकद स्वरूप में एकत्रित होने के बाद ही कंपनी धन्धा प्रारंभ करती है उसे लघुतम भरपाई राशि कहते हैं ।

प्रश्न 16.
शेयर अन्डरराइटर्स (बाँहेधरी दलाल) :
उत्तर :
शेयर अन्डरराइटर्स एक ऐसे प्रकार का आढ़तिया है जो कंपनी को विश्वास दिलाता है कि कंपनी ने बेचने के लिए जो शेयर या ऋणपत्र निर्गमित किए हैं उन्हें निश्चित समय में यदि लोग पर्याप्त प्रमाण में नहीं खरीदेंगे तो लघुतम फंड के लिए कम पड़नेवाली रकम . के शेयर या ऋणपत्र वह खुद खरीद लेगा । इस प्रकार कंपनी को पूंजी के अभाव में अपनी योजनाओं को बंद नहीं करना पड़ेगा ।

प्रश्न 17.
फेमा (FEMA) :
उत्तर :
Foreign Exchange Management Act जिसका अर्थ होता है, विदेशी विनिमय संचालन अधिनियम जो विदेशी कम्पनियों पर नियंत्रण रखने के लिए पारित किया गया है ।

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प्रश्न 18.
लिस्टींग (Listing) :
उत्तर :
शेयर-बाजार में शेयर की अधिकृत लेन-देन का सौदा करने के लिए शेयर-बाजार की सूची में शेयर का समावेश करना लिस्टींग कहलाता है । इसके लिए कंपनी को शेयर बाजार द्वारा निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता है ।

प्रश्न 19.
सत्ता के बाहर का कार्य (Ultra-Vires) :
उत्तर :
कंपनी के आवेदन-पत्र में दर्शाये गये उद्देश्य के अलावा यदि अतिरिक्त प्रवृत्ति या कार्य किए जाएँ तो उसे सत्ता के बाहर का कार्य कहते हैं । ये कार्य कंपनी को बंधनकर्ता नहीं हैं । इन कार्यों की जिम्मेदारी सम्बंधित संचालकों की होती है ।

प्रश्न 20.
डोमिसाइल (Domicile) :
उत्तर :
कंपनी कौन-से राज्य की निवासी है, अर्थात् कंपनी का पंजीयन कौन-से राज्य में हुआ है यह विवरण दर्शानेवाली सूचना को डोमिसाइल कहते हैं ।

प्रश्न 21.
कायदेसर का अहवाल (कानूनी रिपोर्ट) :
उत्तर :
शेयरहोल्डरों की प्रथम सभा में कंपनी के संदर्भ में उसकी स्थापना तक की सभी आवश्यक जानकारी देनेवाली रिपोर्ट ।

प्रश्न 22.
कंपनी के शेयरधारकों की जिम्मेदारी किस प्रकार की हो सकती है ?
उत्तर :
कंपनी के शेयरधारकों की जिम्मेदारी अमर्यादित, मर्यादित या गारंटी द्वारा मर्यादित हो सकती है ।

प्रश्न 23.
आवेदन-पत्र पर कितने सदस्यों की सही होनी चाहिए ?
उत्तर :
यदि कंपनी निजीह है तो दो और सार्वजनिक है तो सात सदस्यों की सही आवेदन-पत्र पर होनी चाहिए ।

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प्रश्न 24.
विदेशी कंपनियों पर नियंत्रण के लिए अपने देश में कौन-सा कानून अमल में है ?
उत्तर :
विदेशी कंपनियों पर नियंत्रण रखने के लिए अपने देश में ‘विदेशी विनिमय संचालन अधिनियम’ (FEMA) अमल में है ।

प्रश्न 25.
कौन-सी धारा से कंपनी का कार्य-क्षेत्र निश्चित होता है ?
उत्तर :
उद्देश्य की धारा से कंपनी का कार्य-क्षेत्र निश्चित होता है ।

प्रश्न 26.
अंडरराइटींग का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर :
निश्चित समय मर्यादा में लघुतम भरपाई जितनी रकम एकत्रित हो जायेगी ऐसा विश्वास प्राप्त करना अर्थात् शेयर अंडरराइटींग ।

प्रश्न 27.
विज्ञापन-पत्र कौन-से स्वरूप में हो सकता है ?
उत्तर :
विज्ञापन-पत्र नोटिस, परिपत्र या विज्ञापन के स्वरूप में हो सकता है ।

प्रश्न 28.
सार्वजनिक कंपनी के शेयरधारकों की प्रथम सभा कब बुलाई जाती है ?
उत्तर :
सार्वजनिक कंपनी के संचालकों कंपनी को धन्धा प्रारंभ करने का प्रमाण पत्र मिलने के एक माह बाद और छ: माह पहले शेयरधारकों की प्रथम सभा बुलानी पड़ती है ।

प्रश्न 29.
भारत में स्थापित विदेशी कंपनियों को अपना नाम किस प्रकार दर्शाना होता है ?
उत्तर :
भारत में स्थापित विदेशी कंपनियों को “विदेशी विनिमय संचालन कानून” लागू होता है और उसकी व्यवस्था के अनुसार कंपनी को अपने नाम के पीछे ‘लिमिटेड’ या ‘प्राइवेट लिमिटेड’ शब्द लिखने से पहले ‘इन्डिया’ शब्द लगाना अनिवार्य है । जैसे – पोन्डस इन्डिया लिमिटेड ।

प्रश्न 30.
कंपनी उद्देश्य की धारा में कौन-से उद्देश्य नहीं रख सकती है ? .
उत्तर :
कंपनी उद्देश्य की धारा में निम्न उद्देश्य नहीं रख सकती है :
* राष्ट्र विरोधी उद्देश्य
* जिसे गैरकानूनी घोषित किया गया हो ऐसी प्रवृत्ति करने का उद्देश्य
* अपने शेयर कंपनी खुद खरीदेगी ऐसा कोई उद्देश्य
* पूंजी में से डिविडन्ड देने का उद्देश्य

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प्रश्न 31.
कौन-सी कंपनी विज्ञापन-पत्र निर्गमित नहीं कर सकती है ?
उत्तर :
निजी कंपनी विज्ञापन-पत्र निर्गमित नहीं कर सकती है, कारण कि विज्ञापन-पत्र वह सार्वजनिक जनता को शेयर खरीदने के लिए आमंत्रण देनेवाला दस्तावेज है । निजी कंपनी पर आम जनता को शेयर बेचने के लिए निमंत्रण देने पर कंपनी कानून का नियंत्रण है ।

प्रश्न 32.
सामान्यत: कंपनी शेयर बाजार में प्रवेश करने के लिए अरजी क्यों करती है ?
उत्तर :
शेयर बाजार में पंजीकृत होने से कंपनी के शेयरों के क्रय-विक्रय की प्रक्रिया सरल बनती है । उसके बाजार-भाव के आधार पर कंपनी की प्रगति और प्रतिष्ठा आंकी जाती है । शेयर बाजार में पंजीकृत कंपनी के शेयरों पर बैंक सरलता से ऋण देते हैं ।

प्रश्न 33.
निर्गमित पूंजी (Issued Capital) :
उत्तर :
कंपनी अपनी अधिकृत पूंजी में से जितनी पूंजी आम जनता के समक्ष बेचने के लिए रखे उसे निर्गमित पूंजी के रूप में माना जाता है ।

प्रश्न 34.
भरपाई पूंजी (Subscribed Capital) :
उत्तर :
कंपनी ने जितनी पूंजी आम जनता को बेचने के लिए निर्गमित की हो उसमें से जितने प्रमाण में जनता द्वारा आवेदन-पत्र प्राप्त हुए हों उसे भरपाई पूंजी कहते हैं ।

प्रश्न 35.
कम्पनी की बाक़ायदा प्रथम सभा अर्थात् क्या ?
उत्तर :
कंपनी को धन्धा प्रारम्भ करने की आज्ञा देनेवाला प्रमाण पत्र मिलने की तारीख से 1 महीने के पश्चात् एवं 6 महीने की भीतर जो आम सभा बुलाई जाती है तो उसे प्राथमिक सभा या बाक़ायदा की प्रथम सभा कहते हैं ।

4. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर मुद्दासर दीजिए ।

प्रश्न 1.
सहकारी समिति का अर्थ एवं लाभ समझाइए ।
उत्तर :
सहकारी समिति के लाभ : सहकारी मंडली व्यापार-व्यवस्था के स्वरूप में लोकप्रिय है । उसके लाभ निम्नलिखित हैं :
(1) आर्थिक शोषण में से मुक्ति : सहकारी मंडली अपने सदस्यों का आर्थिक शोषण रोककर उनका आर्थिक हित सिद्ध करती है । इसमें आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के लिये तथा खुद के आर्थिक हित की रक्षा के लिये एकत्रित होते हैं ।

(2) स्थापना की सरलता : कंपनी की तुलना में उसकी स्थापना प्रमाण में सरल है । सहकारी मंडली के लिये उपनियम छपे हुए तैयार ही होते हैं उसमें आवश्यक परिवर्तन करके मंडली का रजिस्ट्रेशन करवाया जा सकता है ।

इसके अलावा स्थापना का खर्च भी कंपनी के प्रमाण में कम है, कारण कि उसकी शेयरपूँजी के लिये दलाली वगैरह के खर्च नहीं करने पड़ते । हालांकि व्यक्तिगत मालिकी या साझेदारी की तरह स्थापना का कार्य यहाँ सरल नहीं है । परंतु उसे कोर्पोरेट संस्थाओं के जो लाभ मिलते हैं, उसे देखते हुए यह खर्च अधिक नहीं है ।

(3) कायमी अस्तित्व : सहकारी मंडली का अस्तित्व उसके सदस्यों की अपेक्षा अलग होने से सदस्य की मृत्यु, दिवालियेपन या पागलपन से मंडली के अस्तित्व पर कोई असर नहीं होता । इस बारे में सहकारी मंडली की स्थिति कंपनी जैसी ही है ।

(4) अलग व्यक्तित्व : सहकारी समिति कानून की दृष्टि से एक अलग व्यक्ति है । उसके सदस्यों से उसका अस्तित्व अलग है । इससे मंडली खुद के नाम पर संपत्ति एकत्रित कर सकती है, खुद के नाम से दावा कर सकती है और कोर्पोरेट संस्था को मिलनेवाले सभी लाभों को प्राप्त कर सकती है ।

(5) लोकशाही संचालन : सहकारी मंडली का संचालन सैद्धांतिक रूप से ही नहीं, परंतु व्यवहार भी लोकशाही ढंग से चलता है । एक तो उसमें प्रत्येक सदस्य को एक ही मत देने का अधिकार है, फिर भले ही किसी भी सदस्य के पास एक ही शेयर हो । इस तरह पूँजी को नहीं, परंतु मनुष्य को महत्त्व दिया जाता है तथा एक ही समूह, वर्ग या गाँव के व्यक्ति सदस्य होने से बड़े प्रमाण में सभा में हाजिर रह सकते हैं और चर्चा कर सकते हैं ।

(6) मध्यस्थी दूर : सामान्य रूप से माल के उत्पादक और उसके ग्राहकों के बीच अनेक मध्यस्थ सेवा देते हैं । परंतु सहकारी संस्था में ऐसे मध्यस्थ (बिचौलिये) दूर होने से ग्राहकों को सस्ती और अच्छी गुणवत्ता का माल या सेवा प्राप्त होते हैं ।

(7) बचतपूर्ण संचालन : सहकारी समिति में संचालन खर्च प्रमाण में कम होता है । उसके कुछ कारण हैं : एक, उसके ज्यादातर कार्यकर मानद् सेवा देते हैं, इससे खर्च बचता है । दूसरे, उसके सदस्य भी उसकी प्रवृत्ति को सहायता प्रदान करते हैं, इससे विज्ञापन-खर्च भी कम होता है ।

(8) सरकारी मदद : सामान्य रूप से सहकारी समिति आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों का मंडल होने से सरकार उसे अनेक प्रकार से सहायता देती है । जैसे- उसके शेयर सरकार खरीदती है, उसे लोन देती है, उसके कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देती है । उसके संचालकों को मार्गदर्शन भी देती है तथा कितनी बातों में क्रय-विक्रय में भी उसे पसंदगी देती है । जैसे – अंकुशित वस्तुओं का विक्रय करने में सरकार सहकारी ग्राहक भंडार को पसंदगी देती है ।

(9) विनियोग सुरक्षित : सहकारी समिति में सदस्यों का विनियोग सामान्य रूप से सुरक्षित रहता है । इसका कारण यह है कि सहकारी समिति के सदस्यों की शेयर पूँजी या उसके अन्य हित पर कोई दावा चल नहीं सकता । इसके साथ ही खूब ज्यादा नहीं, परंतु उचित डिविडेंड मिलता है ।

(10) कर-बोझ कम : कंपनी की तुलना में सहकारी समिति पर कर-बोझ कम रहता है ।

(11) विकास के लिये रकम की सुविधा : सहकारी समिति अपना सभी लाभ सदस्यों के बीच डिविडेंड के रूप में बाँट नहीं सकती, परंतु उसमें कानून के अनुसार अनिवार्य रूप से कुछ निश्चित प्रतिशत रकम अनामत खाते ले जानी पड़ती है । इस तरह, मंडली को खुद की रकम में से ही विकास के लिये पूर्ण रकम प्राप्त हो जाती है । इस अनामत-कोष का उपयोग दवाखाना, पाठशाला, बाग-बगीचे वगैरह सामाजिक प्रवृत्तियों के पीछे किया जाता है ।

(12) बिनआर्थिक लाभ : सहकारी समिति के सदस्यों में स्वाश्रय, सहकार और भाईचारे का विकास करने में उपयोगी है । इस तरह समाज में सहकार की भावना विकसित होती है । इसके उपरांत सहकारी मंडली समाज-कल्याण, शिक्षण वगैरह के लिये अलग फंड रखती है जो समाज के लिये लाभदायी है ।

GSEB Solutions Class 11 Organization of Commerce and Management Chapter 6 धन्धाकीय व्यवस्था के स्वरूप - 2

प्रश्न 2.
सहकारी मंडलियों की मर्यादाएँ समझाइए ।
उत्तर :
सहकारी मंडली कुछ निश्चित क्षेत्रों में और कुछ खास देशों में सफल हुई है । भारत में उसका विकास का प्रमाण मंद रहा है, उसका कारण उसकी निम्न मर्यादाएँ हैं :

(1) मर्यादित पूँजी : सहकारी समिति आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों का मंडल है । इससे अधिक पूँजी नहीं एकत्रित की जा सकती । इसके उपरांत उसके सदस्य के पास चाहे कितने भी शेयर हों उसे एक ही मत देने का अधिकार होने से सदस्य अधिक शेयर खरीदने के लिये प्रेरित नहीं होते । तीसरा, कोई एक व्यक्ति अधिक से अधिक अमुक ही शेयर खरीद सके इस मर्यादा के कारण भी पूँजी मर्यादित प्रमाण में ही मिलती है । इससे जहाँ काफी बड़े प्रमाण में पूँजी की आवश्यकता हो वहाँ सहकारी मंडली नहीं चल सकती ।

(2) बिनकार्यक्षम संचालन : सहकारी समिति में ज्यादातर मानद् कार्यकर होते हैं । जिन्हें या तो बिल्कुल भी वेतन नहीं दिया जाता या तो खूब कम मानद् वेतन दिया जाता है, जिससे अप्रामाणिकता का भय रहता है । तथा मानद् कार्यकर कुशल संचालक हो यह अनिवार्य नहीं है । इसके उपरांत, सदस्यों में पूर्ण रूप से धंधाकीय समझ न होने से वह जिस व्यक्ति का संचालक के रूप में चुनाव करते हैं, वह संचालक के रूप में अकार्यक्षम हो सकते हैं या अप्रमाणिक भी हो सकते हैं ।

(3) सरकारी हस्तक्षेप : सहकारी प्रवृत्ति की भारत में शुरुआत ही सरकार के द्वारा हुई और आज भी सरकार सहकारी मंडलियों को अनेक रूप से मदद करती है । इस तरह सहकारी मंडलियाँ आर्थिक रूप से सरकार पर अवलंबित है । अगर सरकार आर्थिक मदद न करे तो उसका विकास रुक जाता है । इस तरह, यह प्रवृत्ति संपूर्ण रूप से सरकार पर आधारित हो गई है । इसके अलावा सरकार अगर मदद करती है तो सहकारी मंडली पर अंकुश भी रखती है । इसके लिये सहकारी समिति के कानून में अनेक प्रकार की सत्ता रजिस्ट्रार को दी गई है । इस तरह, सरकारी हस्तक्षेप के कारण सहकारी मंडली सही अर्थ में सहकारी भावना का विकास नहीं कर सकती ।

(4) वित्तीय उत्तेजनों का अभाव : सहकारी समिति में संचालकों को लाभ रूपी प्रेरक बल न होने से उत्साह और इच्छा शक्ति (लगन) से काम करने की वृत्ति कम होती है । मानद् वेतन से काम करनेवाले संचालक स्वाभाविक रूप से उत्साह से काम नहीं कर सकते । इसके अलावा अधिक डिविडेन्ड की भी यहाँ कोई संभावना नहीं है, कारण कि अधिक से अधिक कितना डिविडेन्ड दिया जा सके उस पर कानून द्वारा नियंत्रण है । इस तरह महत्तम लाभ का जो प्रेरक बल व्यक्तिगत मालिकी, साझेदारी या कंपनी में है वह सहकारी मंडली में देखने को नहीं मिलता ।

(5) सिद्धांतों की समझ का अभाव : सहकार के सिद्धांतों का ज्ञान ज्यादातर सदस्यों को नहीं होता है । ज्यादातर सदस्यों में पक्षपात, संघर्ष, अप्रामाणिकता वगैरह देखने को मिलते हैं, इससे मंडली का विकास रुक जाता है ।

(6) शिथिल व्यवस्थातंत्र : सहकारी ग्राहक भंडार में ग्राहक निश्चित होते हैं । अर्थात् वह बाजार प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते । व्यवस्थापकों के कार्य में शिथिलता आ जाती है । व्यवस्थातंत्र खूब शिथिल हो जाता है ।

(7) मर्यादित क्षेत्र : आर्थिक प्रवृत्तियों के प्रत्येक क्षेत्र में सहकार मिल नहीं सकता । ऐसा करने के लिये सभी तरह के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना पड़ता है तथा आय और संपत्ति की असमानता घटानी पड़ती है । इस तरह सभी क्षेत्रों में सहकारी मंडली चल नहीं सकती।

प्रश्न 3.
कम्पनी के प्रकार समझाइए ।
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(A) विशेष कानून द्वारा सर्जित कम्पनी (Statutory Company) :
ऐसी कम्पनी की स्थापना संसद या विधानसभा के विशेष कानून द्वारा अस्तित्व में आती है । जैसे भारतीय रिजर्व बैंक (RBI), भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) इत्यादि ।

(B) सदस्य संख्या की दृष्टि से (From the view point of Number of member) :
(I) सार्वजनिक कम्पनी (Public Company) : भारतीय कम्पनी अधिनियम के अनुसार जो कम्पनी निजी कम्पनी नहीं है वह सार्वजनिक कम्पनी है । जिसमें कम से कम 7 सदस्य अनिवार्य है । अधिक से अधिक संख्या पर कोई नियंत्रण नहीं । ऐसी कम्पनी अपने अंश (share) और ऋण-पत्र खरीदने के लिए आमजनता को आमंत्रण दे सकती है । अंश के परिवर्तन पर कोई नियंत्रण नहीं होता । सार्वजनिक कम्पनी के सदस्यों का दायित्व की दृष्टि से तीन प्रकार है ।

  • अंश (share) पूँजी से सीमित दायित्ववाली कम्पनी : कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा कम्पनी के क्रय किये गए शेयर की दार्शनिक मूल्य तक ही सीमित होती है । ऐसी कम्पनी को अपने नाम के अन्त में ‘लिमिटेड’ (Limited) शब्द लगाना पड़ता है।
  • गारन्टी द्वारा सीमित दायित्ववाली कम्पनी : कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा दी गई गारन्टी तक सीमित होता है । कम्पनी के विसर्जन के समय दी गई गारन्टी जितनी रकम चुकानी पड़ती है ।
  • असीमित दायित्ववाली कम्पनी : ऐसी कम्पनी के सदस्यों का दायित्व असीमित होता है । यदि कम्पनी की सम्पत्तियों की अपेक्षाकृत ऋण बढ़ जाये तो सदस्य व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार माने जाते है । कम्पनी के विसर्जन के समय में सदस्यों को अपनी निजी सम्पत्तियों में से हिस्सा देना पड़ता है ।

(II) निजी कम्पनी (Private Company) : निजी कम्पनी अर्थात् ऐसी कम्पनी कि जिसमें सदस्यों की संख्या कम से कम 2 और अधिक से अधिक 200 तक होते है । निजी कम्पनी शेयर-परिवर्तन पर नियंत्रण होता है । आम जनता को अंश व ऋण-पत्र क्रय हेतु आमंत्रण नहीं दे सकती । निजी कम्पनी के सदस्यों का दायित्व की दृष्टि से तीन प्रकार है ।

  • सीमित दायित्ववाली कम्पनी : इसमें सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गए अंश की दार्शनिक कीमत तक ही सीमित होता है । सीमित दायित्ववाली निजी कम्पनी को अपने नाम के अन्त में ‘प्राईवेट लिमिटेड’ (Private Limited) शब्द लगाना पड़ता है ।
  • गारन्टी द्वारा सीमित दायित्ववाली कम्पनी : कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा दी गई गारन्टी की रकम तक सीमित होता है । कम्पनी के विसर्जन के दौरान सदस्यों द्वारा दी गई गारन्टी की रकम चुकानी पड़ती है । कम्पनी को अपने नाम के अन्त में प्राईवेट . (Private) शब्द लिखना पड़ता है ।
  • असीमित दायित्ववाली कम्पनी : कम्पनी के सदस्यों का दायित्व असीमित होता है । कम्पनी की सम्पत्तियों की अपेक्षाकृत ऋण/ उधार बढ़ जाने की स्थिति में सदस्य व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होते है । कम्पनी के विसर्जन के दौरान-सदस्यों को अपनी निजी/व्यक्तिगत सम्पत्तियों में से हिस्सा देना पड़ता है । ऐसी कम्पनी को अपने नाम के अन्त में ‘प्राईवेट’ (Private) शब्द लिखना पड़ता है ।

(III) एक व्यक्ति की कम्पनी (One person Company) : अर्थात् ऐसी कम्पनी कि जिसमें एक व्यक्ति सदस्य के रूप में हो । एक व्यक्ति की (निजी) कम्पनी, कम्पनी में संचालक हो ऐसे एक सदस्य के रूप में करार कर सकती है । एक व्यक्ति की कम्पनी में ऐसे व्यक्ति की लिखित सहमति अनिवार्य होती है । इसके अलावा कम्पनी के रजिस्ट्रेशन के समय आवेदन-पत्र व नियमन-पत्र कम्पनी रजिस्ट्रार के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है । एक व्यक्ति की कम्पनी की रचना की व्यवस्था 1956 की कम्पनी कानून में नहीं थी, लेकिन सन् 2013 के कम्पनी कानून के अनुसार निजी कम्पनी एक व्यक्ति की कम्पनी हो सकती है ।

(C) वर्चस्व की दृष्टि से (From the view point of Domination) :
(I) सरकारी कम्पनी (Government Company) : ऐसी कम्पनी जिसमें भरपाई की हुई पूँजी में कम से कम 51% पूँजी

  1. केन्द्र सरकार अथवा
  2. राज्य सरकार अथवा
  3. एक से अधिक राज्य सरकारों अथवा
  4. केन्द्र सरकार और एक या एक से अधिक राज्य सरकारों के साथ मिलकर पूँजी लगाई हो तो उन्हें सरकारी कम्पनी कहते हैं । जैसे अशोक होटल लिमिटेड, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL), महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) ।

(II) शासक कम्पनी (Holding Company) : कोई एक कम्पनी दूसरी कम्पनी के 50 प्रतिशत से अधिक शेयर धारण करती हो और कम्पनी के बहमती संचालकों को नियुक्त करने का अधिकार रखती हो तो उन्हें शासक कम्पनी कहते हैं ।

(III) गौण/सहायक कम्पनी (Subsidiary Company) : अर्थात् ऐसी कम्पनी कि जिसमें किसी कम्पनी के (1).50% से अधिक शेयर शासक कम्पनी कम्पनी के पास में हो व (2) जिस कम्पनी के बहुमति संचालकों को नियुक्त करने का अधिकार शासक कम्पनी का हो तो गौण कम्पनी कहलाती है ।

(D) पंजियन की दृष्टि से (From the view point of place of Registration) :
(I) भारतीय कम्पनी (Indian Company) : जिस कम्पनी का पंजियन भारत में, भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत या संसद अथवा विधानसभा में विशेष कानून द्वारा हुई हो ऐसी कम्पनी को भारतीय कम्पनी कहते हैं । ऐसी कम्पनी में सार्वजनिक कम्पनी, निजी कम्पनी या सरकारी कम्पनी हो सकती है ।

(II) विदेशी कम्पनी (Foreign Company) : जिस कम्पनी का पंजियन भारत के बाहर हुआ हो, जिनका रजिस्टर्ड कार्यालय भारत में न हो और जिनके धन्धे का स्थल भारत में हो तो उन्हें विदेशी कम्पनी कहते हैं ।

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प्रश्न 4.
प्रवर्तक अथवा प्रवर्तकों के कार्य (Function of Promoters)
उत्तर :
जस्टिस सी. काकबर्न के अनुसार प्रवर्तक की परिभाषा : “प्रवर्तक वह व्यक्ति है, जो किसी निश्चित उद्देश्य के सन्दर्भ में कम्पनी का निर्माण करने तथा उसे चालू करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है और इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक कार्य करता है ।”

प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना का विचार करते हैं । कम्पनी की स्थापना के लिए पूर्व तैयारी करते हैं । कम्पनी के किसी-भी कार्य के लिए निजी जिम्मेदारी से रजिस्ट्रेशन की विधि तक स्वयं के नाम से करते हैं । वे धन्धे के प्रकार, धन्धे का स्थल, धन्धे का आकार, पूँजी की आवश्यकता, पूँजी के प्राप्ति-स्थान एवं विशेषज्ञों की सलाह इत्यादि पर विचार करते हैं एवं करार करते हैं ।

5. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से दीजिए :

प्रश्न 1.
सहकारी समिति/मण्डली का अर्थ समझाकर उनके लक्षण समझाइए ।
उत्तर :
सहकारी समिति यह स्वैच्छिक व्यवस्था का स्वरूप है । जिसमें परस्पर समान हितवाले व्यक्ति स्वैच्छा से जुड़ते है । व्यक्ति अपने निश्चित उद्देश्य पूर्ण करने के लिए सहकारी समिति की रचना करते हैं । इनका उद्देश्य सदस्यों के मध्य परस्पर सहकार स्थापित करके आर्थिक हित का संवर्द्धन स्थापित करना है ।

व्याख्या :

  1. “सहकारी समिति ऐसी व्यवस्था का स्वरूप है जिसमें विभिन्न व्यक्ति अपने आर्थिक हित के संवर्द्धन के लिए समानता के आधार पर स्वैच्छिक रूप से शामिल होते हैं ।”
  2. “सहकारी समिति अर्थात् सदस्यों के आर्थिक उद्देश्यों की रक्षा के लिए और आर्थिक कल्याण के लिए न्याय, समानता, सहकार और स्वावलम्बन के सिद्धान्तों पर स्वैच्छिक संस्था है ।”
  3. “सहकारी समिति एक ऐसी धन्धाकीय व्यवस्था है, जिसमें आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्ति, व्यक्तिगत रूप से सिद्ध न किये जा सके ऐसे सामान्य आर्थिक हित सिद्ध करने के लिए, समानता के आधार पर स्वैच्छिक रूप से शामिल होते है ।”

लक्षण : सहकारी समिति की विविध व्याख्याओं पर से उसके मुख्य लक्षण निम्न अनुसार दर्शाये जा सकते हैं :
(1) स्वैच्छिक मंडल : सहकारी मंडली यह व्यक्तियों का बना हुआ स्वैच्छिक मंडल है । उसके सदस्य स्वेच्छा से शामिल होते हैं । अर्थात् सदस्य बनने के लिये किसी पर जबरदस्ती नहीं की जा सकती या किसी पर दबाव नहीं लाया जा सकता तथा सहकारी समिति में से भी उसे अपनी मर्जी से निकाला जा सकता है ।

(2) लोकशाही संचालन : सहकारी मंडली का संचालन लोकशाही ढंग से चलता है । प्रत्येक सदस्य को एक ही मत का अधिकार होता है । अर्थात् व्यक्ति चाहे कितना भी शेयर धारण करता हो इसके बावजूद एक ही मत दे सकता है । सदस्यों के द्वारा चुनाव से चुनी गयी ‘व्यवस्थापक समिति’ (कार्यवाहक समिति) मंडली का संचालन करती है ।

(3) सदस्यों की समानता : सहकारी समिति के सदस्य समानता के आधार पर शामिल होते हैं । इसमें गरीब या धनी, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं रखा जाता । इसमें कोई एक सदस्य अधिक महत्त्व का या कम महत्त्व का नहीं होता । सभी सदस्यों को समान अधिकार या समान अवसर मिलते हैं । इसमें एक ही प्रकार की एक ही कीमत के शेयर होते हैं । इसमें अलग-अलग प्रकार के शेयर या विशेषाधिकार नहीं रहता ।

(4) अलग व्यक्तित्व : सहकारी मंडली कानून के अनुसार रजिस्टर्ड संस्था है । गुजरात में 1961 का गुजरात सहकारी मंडली अधिनियर अमल में है । इसकी रजिस्टरी होने पर मंडली को उसके सदस्यों से अलग व्यक्तित्व कानून की दृष्टि से मिलता है । वह व्यक्ति की तरः मिल्कियत खरीद सकती है या करार कर सकती है । इसके सदस्य आयें या जायें इसके अस्तित्व पर कोई असर नहीं होता ।

(5) सरल स्थापना : कंपनी की तुलना में सहकारी मंडली की स्थापना-विधि सरल है । कम से कम 10 व्यक्ति एकत्रित होकर सहकारी मंडली के कानून के अनुसार मंडली की स्थापना कर सकते हैं । यह रजिस्ट्रार के यहाँ रजिस्टर होने से अलग व्यक्तित्व प्राप्त होता है ।

(6) लाभ का वितरण : सहकारी मंडली का उद्देश्य सेवा का होने पर भी धंधाकीय प्रवृत्ति से लाभ मिलना यह स्वाभाविक है । सहकारी संस्था में लाभ को मर्यादित प्रमाण में बाँटा जाता है । अर्थात् उसमें डिविडेंड की दर पर मर्यादा रखी जाती है । शेष बढ़नेवाला लाभ खरीदी पर बोनस या अन्य सहकार के सिद्धांत के अनुसार बाँटा जाता है । कानून के अनुसार लाभ में से शिक्षण फंड, अनामत कोष वगैरह की व्यवस्था भी करनी पड़ती है।

(7) मानद सेवा : सहकारी मंडली आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों का स्वैच्छिक संगठन है । इसमें बचत पर विशेष भार रखा जाता है । कितनी बार मंडली के संचालन में सदस्य मानद सेवा देते हैं ।

(8) शेयर की कम कीमत : सहकारी मंडली आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों का संगठन होने से इसके शेयर की कीमत खूब कम रखी जाती है । हालांकि अमुक मंडलियों में शेयर की कीमत ऊँची हो तो किस्त से रकम चुकाने की भी व्यवस्था होती है । मंडली के शेयर के भाव कंपनी के शेयर के भाव की तरह शेयर बाजार में नहीं बोले जाते ।

(9) शेयर खरीदी पर नियंत्रण : सहकारी मंडली में व्यक्ति को महत्त्व दिया जाता है, पैसे को नहीं । सहकारी संस्था में धनी व्यक्ति पैसों के जोर पर खुद इच्छित कार्य न कराये, इसलिये शेयर की खरीदी पर नियंत्रण रखा जाता है । गुजरात में कोई भी व्यक्ति 3000 रु. से अधिक रकम का शेयर नहीं खरीद सकता ।

(10) पारस्परिक मदद : सहकारी मंडली में प्रत्येक सदस्य के लिये और प्रत्येक सदस्य सभी के लिये की भावना को प्रेरित करता है । वह सदस्यों के बीच परस्पर के सहयोग के द्वारा आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयत्न करता है ।

(11) मुक्त सदस्यता : सहकारी संस्था में सदस्यता हमेशा प्रत्येक के लिये खुली है । सदस्यता के लिये जाति, धर्म या वर्ग के लिये कोई भेदभाव नहीं रखा जाता । सदस्यता पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं रखा जाता ।

(12) गौरवशाली विकल्प : सहकारी मंडली पूँजीवाद के दूषणों को दूर करने के उद्देश्य से स्थापित की जाती है । यह सरकारी नियंत्रणों अथवा समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से उत्पन्न एक गौरवशाली स्वैच्छिक विकल्प है । यह सदस्य और समाज का सर्वांगी विकास करने का उद्देश्य रखता है ।

(13) उच्च आदर्श : सहकारी समिति सिर्फ आर्थिक प्रवृत्ति ही नहीं करती अपितु सहकार, स्वाश्रय, वफादारी, स्वातंत्र्य, भाईचारा, विश्वबंधुत्व, स्वशासन वगैरह गुणों को विकसित करने की संस्था है । इसका उद्देश्य समाज और राष्ट्र के हित में कार्य करना, सेवा करना और प्रगति करना है ।

(14) राजनीति और धर्म से अलिप्त संस्था : सच्ची सहकारी संस्था को राजनीति से संबंध नहीं है तथा सदस्यों का धर्म के साथ भी संबंध नहीं है । इससे सिर्फ कुछ खास ही धर्म के सदस्यों तक मर्यादित सदस्यवाली सहकारी मंडली नहीं हो सकती । सहकारी संस्था किसी भी राजकीय पक्ष के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर सकती या उसके कामकाज में राजनीति का दखल नहीं चल सकता ।

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प्रश्न 2.
संयुक्त स्कन्ध प्रमंडल (कंपनी) किसे कहते है ? उसके लक्षण बताइए ।
अथवा
कंपनी की परिभाषा देकर उसके लक्षणों को समझाइए ।
उत्तर :
औद्योगिक क्रांति के कारण औद्योगिक क्षेत्र में महान क्रांतिकारी परिवर्तन हुए । नये यंत्रों की खोज हुई । वाहन-व्यवहारों के साधनों का विकास हुआ । राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार का विकास हुआ । लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ी । बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा । अधिक पूँजी की आवश्यकता उत्पन्न हुई और उसमें से संयुक्त हिस्सेवाली कंपनी (Joint Stock Company) अस्तित्व में आई ।

व्याख्या : प्रो. हेन्री के मतानुसार,
“कंपनी लाभ करने के लिये एकत्रित व्यक्तियों का स्वैच्छिक मंडल है, जिसकी पूँजी जिनका परिवर्तन हो सके ऐसे शेयरों में बँटी हुई होती है और जिसके शेयर की मालिकी उसके सदस्य की शर्त है ।”

सर फ्रान्सिस पामर के मतानुसार,

  1. कंपनी धन्धा करके लाभ एकत्रित कर लेने के लिए इच्छापूर्वक एकत्रित व्यक्तियों का मंडल है ।
  2. इसकी पूँजी समान हिस्सों में बाँट दी गई होती है, जिसे शेयर कहते हैं ।
  3. इसका परिवर्तन हो सकता है ।
  4. शेयर की मालिकी से कंपनी की सदस्यता प्राप्त होती है ।
  5. अलग अस्तित्व के लिये से पंजीकृत करवाना पड़ता है ।”

कं. अधिनियम के अनुसार : “कं. अधिनियम के अनुसार रचित अथवा अधिकृत (पंजीकृत) कंपनी ।”
लॉर्ड जस्टिस जेम्स : “कंपनी समान उद्देश्य के लिए व्यक्तियों के समूह द्वारा स्थापित संस्था है ।”

एक सर्वसामान्य कथन : “कं. हड्डी, मांस और चमड़ी की सजीव देह नहीं है, परन्तु कानून की कोख से सर्जित इस व्यक्ति के पास इसका नाम व मोहर (सार्व-मुद्रा) होती है जिनके द्वारा वह धन्धा करती है । जैसे बड़ौदारेयन कोर्पोरेशन लि., नर्मदा सीमेन्ट लि., इन नामों से वे व्यक्ति की भाँति धन्धा करती हैं ।”

सन् 2013 कम्पनी कानून के अनुसार : “कम्पनी अर्थात् कानून के अन्तर्गत अथवा पहले के किसी भी कानून के तहत स्थापित कम्पनी ।”

एक सर्वस्वीकृत व्याख्या के अनुसार :
“कंपनी कानून के द्वारा सर्जित कृत्रिम व्यक्ति है, जो लाभ करने के उद्देश्य से कुछ निश्चित व्यक्ति स्वैच्छिक रूप से इसकी रचना करते हैं । इसकी पूँजी परिवर्तित हो सकें ऐसे शेयरों में बँटी रहती है, जो उसमें शामिल होनेवाले व्यक्ति प्राप्त करते हैं और जिसमें सार्वमुद्रा लगी होती है ।”

कंपनी के लक्षण : कंपनी की व्याख्या के आधार पर उसके लक्षण निम्नानुसार हैं :
(1) स्वैच्छिक मंडल : कंपनी स्वेच्छा से एकत्रित व्यक्तियों का मंडल है, जिसमें सदस्य रकम एकत्रित कर निश्चित उद्देश्य के लिये लाभ बाँट लेने के उद्देश्य से किसी भी दबाव के बिना शामिल होते हैं । इसमें एक बार शामिल हो जाने के बाद आजीवन उसका सदस्य रहना अनिवार्य नहीं है । सदस्यों को जब भी उचित लगे तब वे कंपनी में से अलग हो सकते हैं ।

(2) कानूनन कृत्रिम व्यक्ति : कंपनी कानून के द्वारा सर्जित बालक है । उसका जन्म कानून से होता है और उसका अंत भी कानून से होता है । कंपनी का भौतिक अस्तित्व नहीं है, परंतु कानूनी अस्तित्व है । अन्य व्यक्ति की तरह कंपनी दावा कर सकती है, मिल्कत खरीद सकती है, करार कर सकती है । इस तरह, कंपनी को कानून के द्वारा अस्तित्व प्राप्त होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो, उसकी कोई आत्मा नहीं होती, वह शारीरिक स्वरूप में प्रकट नहीं हो सकती, परन्तु वह वकील या प्रतिनिधि के द्वारा प्रकट हो सकती है।

(3) सार्वमुद्रा : कंपनी के पास उसकी सार्वमुद्रा (Common seal) है, जिसके द्वारा कंपनी इच्छा प्रदर्शित करती है । कंपनी का अस्तित्व उसकी सार्वमुद्रा से ज्ञात होता है । कंपनी के करार, दस्तावेज, प्रमाणपत्र तथा रोज-बरोज के व्यवहार में कंपनी की संमति प्रदर्शित करने के लिए कंपनी की सार्वमुद्रा का प्रयोग होता है ।

(4) अस्तित्व-सातत्य : कानून के अनुसार कंपनी को कायमी अस्तित्व प्राप्त होता है अर्थात् कानून के अनुसार उसका जन्म होता है, और उसका अंत भी कानून के द्वारा ही होता है । कंपनी में सदस्य आयें या जायें, कंपनी के सदस्यों को चाहे कुछ भी हो अर्थात् सदस्य दिवालिया बने, पागल बने या मृत्यु हो जाये, सदस्य खुद के शेयर का विक्रय कर दे इसके बावजूद कंपनी के अस्तित्व को कोई आँच नहीं आती । कंपनी का अस्तित्व तो चालू ही रहता है । इस तरह अन्य व्यापारी व्यवस्था की तुलना में कंपनी का आयुष्य अधिक होता है । कंपनी का राष्ट्रीयकरण हो, अन्य संस्था के साथ वह शामिल हो, दिवालिया हो जाये तो सरकार द्वारा जबरन कंपनी बंद की जाने पर ही उसका अंत आता है ।

(5) अंश-पूँजी : कंपनी के पूँजी छोटे-छोटे भागों में बँटी हुई रहती है । इस प्रत्येक भाग को शेयर कहा जाता है । शेयर की कीमत कम होने से समाज का कोई भी व्यक्ति शेयर खरीदकर कंपनी का सदस्य या मालिक बन सकता है । इस तरह, कंपनी शेयर-बाजार में रखकर बड़े पैमाने पर पूँजी प्राप्त कर सकती है । सार्वजनिक कंपनी में ऐसे शेयर दो प्रकार के होते हैं – ओर्डिनरी शेयर और प्रेफरन्स शेयर ।

(6) अंश-परिवर्तन : कंपनी में शेयरहोल्डर्स (अंशधारक) कंपनी के नियमों के अधीन रहकर अपने शेयर बाजार में बेच सकते हैं, या फिर से खरीद सकते हैं । शेयर के परिवर्तन की इच्छा रखनेवाले सदस्यों को किसी भी व्यक्ति की संमति लेने की आवश्यकता नहीं है । आधुनिक समय में शेयर-बाजार के कारण शेयर का परिवर्तन आसानी से हो सकता है ।

(7) सीमित दायित्व : कंपनी के सदस्यों का दायित्व सामान्य रूप से असीमित होता है अर्थात् कंपनी के शेयरहोल्डर ने जितनी रकम का शेयर खरीदा हो उतनी रकम तक ही उसकी जिम्मेदारी मर्यादित रहती है । कंपनी पर चाहे कितना भी ऋण हो या नुकसान हो तो भी शेयरहोल्डर की निजी संपत्ति उसके लिये जिम्मेदार नहीं कहलाती ।

(8) प्रतिनिधियों द्वारा संचालन : कंपनी का भौतिक अस्तित्व न होने से कंपनी का संचालन शेयरहोल्डरों के द्वारा चुने गये डिरेक्टर करते हैं । यह डिरेक्टर संयुक्त रूप से ‘संचालक-मंडल’ के नाम से जाने जाते हैं । डिरेक्टर शेयरहोल्डरों के द्वारा कंपनी का संचालन करने के लिये चुने हुए प्रतिनिधि हैं, जो शेयरहोल्डरों की तरफ से कंपनी का संचालन करते हैं ।

(9) वैधानिक नियंत्रण : कंपनी-कानून के अनुसार पंजीकृत होने से ही कंपनी अस्तित्व में आती है । कंपनी में सामान्य जनता की रकम लगी हुई होने से और शेयरहोल्डरों की तरफ से डिरेक्टर उसका संचालन करने से उस पर कानूनन नियंत्रण होना जरूरी है । इसके लिये प्रत्येक देश में कंपनी-कानून अमल में होता है । देश के कंपनी-कानून में कंपनी की स्थापना व्यवस्था विविध पक्षकारों के अधिकार, फर्ज, जिम्मेदारी वगैरह निश्चित होते हैं ।

(10) मालिकी और संचालन में अंतर : कंपनी में मालिकी और संचालन में भेद है । एक तरफ कंपनी को शेयरपूँजी देनेवाले शेयरहोल्डर हैं, जो कंपनी के सही मालिक हैं, तो दूसरी तरफ कंपनी का संचालन करनेवाले डिरेक्टर हैं जिन्हें शेयरहोल्डर संचालन करने के लिए प्रतिनिधि के रूप में चुनते हैं । इस तरह कंपनी में मालिकी और संचालन में अंतर है ।

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प्रश्न 3.
कंपनी-स्वरूप के लाभ व मर्यादाएँ समझाइए ।
उत्तर :
औद्योगिक क्रांति के बाद कंपनियों का जो विकास हुआ है वह उसके विशिष्ट लाभों के कारण है । कंपनी के धन्धाकीय लाभ निम्नानुसार हैं:

(1) बड़े पैमाने पर पूँजी प्राप्त करने की संभावना : औद्योगिक विकास के साथ धन्धाकीय इकाई के कद में वृद्धि होने से आज व्यापारउद्योगों के लिये करोड़ों रुपये की पूँजी की आवश्यकता रहती है । इसके लिए आवश्यक पूँजी सिर्फ कंपनी ही एकत्र कर सकती है । कारण कि कंपनी छोटी रकम के शेयर घोषित करती है, जिसे मध्यम वर्ग के मनुष्य भी खरीद सकते हैं । इसके अलावा, कंपनी अलग-अलग प्रकार के शेयर घोषित करती है, जो अलग स्वभाववाले व्यक्ति खरीद कर कंपनी की पूँजी में योगदान देते हैं ।

(2) सीमित दायित्व : कंपनी के शेयरहोल्डर का दायित्व उनके द्वारा खरीदे गये शेयर तक ही सीमित होता है । कंपनी का विसर्जन होने पर सदस्यों का दायित्व शेयर की बाकी रकम तक ही रहता है । सदस्यों की निजी मिल्कियत को कोई असर नहीं होता । कंपनी के इस लक्षण ने उसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । जोखिम न उठानेवाले व्यक्ति भी कंपनी में रकम लगाता है तथा कंपनी के संचालक प्रयोग भी कर सकते हैं क्योंकि असफलता के समय में जोखिम मर्यादित रहता है । अगर प्रयोग सफल रहा तो समाज को खूब लाभ होता है ।

(3) अस्तित्व-सातत्य : साझेदारी संस्था या व्यक्तिगत मालिकी की तरह कंपनी के सदस्य का मृत्यू या दिवालिया होने पर कंपनी के अस्तित्व को कोई असर नहीं होता । कंपनी का उसके सदस्यों से अलग व्यक्तित्व होने से लंबे समय की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं । धंधे की स्थिरता में भी यह लक्षण महत्त्वपूर्ण हिस्सा रखता है ।

(4) अधिक शाख : कंपनी का कार्य-क्षेत्र उसके मेमोरेन्डम ऑफ एसोसियेसन में बताया गया होता है । बाहरी कोई भी व्यक्ति उसे देख सकता है । इसके उपरांत कंपनी की शेयर-पूँजी अधिक होने के कारण तथा विशाल प्रमाण में मिल्कियतों के कारण व्यापारी और शराफी कंपनियाँ माल और रकम उधार देने से नहीं डरती हैं । कंपनी कम ब्याज पर आसानी से ऋण प्राप्त कर सकती है और शान भी प्राप्त कर सकती है ।

(5) लोकशाही संचालन : कंपनी एक छोटा-सा लोकशाही राज्य है । उसकी व्यवस्था उसके मालिकों के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के द्वारा किया जाता है । शेयरहोल्डरों के बहुमत से ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं । डिरेक्टर, मैनेजिंग डिरेक्टर वगैरह की नियुक्ति शेयरहोल्डर करते हैं और सामान्य सभा में नोटिस देकर उसे दूर कर सकते हैं ।

(6) कार्यक्षम संचालन : कंपनी में मालिकी और संचालन का विभाजन होने के कारण कंपनी के संचालन के लिये कुशल, अनुभवी और सजग व्यक्ति की नियुक्ति की जा सकती है । इसके उपरांत विविध कार्यों के लिये विविध विशिष्ट व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सकती है । इस तरह कंपनी का संचालन कार्यक्षम होता है । समाज का बुद्धिशाली वर्ग जिस पूँजी के अभाव से खुद का धन्धा प्रारंभ न कर सके, वह भी कंपनी में डायरेक्टर बन सकता है और समाज को बुद्धि और कुशलता का लाभ मिल सकता है ।

(7) जोखिम का वितरण : साझेदारी और व्यक्तिगत मालिकी में नुकसान एक व्यक्ति अथवा मुट्ठीभर व्यक्तियों को ही सहन करना पड़ता है । परंतु कंपनी में अनेक शेयरहोल्डर होने से नुकसान का जोखिम सभी शेयरहोल्डरों के बीच बँट जाने से अमुक व्यक्तियों पर बोझ रूप नहीं रहता ।

(8) कम संचालकीय वेतन : कंपनी का संचालन करने के लिये डिरेक्टर अथवा मैनेजिंग डिरेक्टर को जो वेतन दिया जाता है वह प्रमाण में कम होता है । उतनी ही निपुणता और कुशलता बताने के लिये व्यक्तिगत मालिकी और साझेदारी में भारी वेतन की आशा रखी जाती है ।

(9) शेयर के परिवर्तन की सफलता : कंपनी में रकम लगानेवाला व्यक्ति धनाभाव का संकट पड़ने पर शेयर बेचकर रकम वापस प्राप्त कर सकता है । शेयर-बाजारों ने इस कार्य को खूब सरल बनाया है । इसलिये छोटी-मोटी रकम लगानेवाले कंपनी में रकम लगाने से नहीं डरते हैं । कारण कि हमेशा के लिए उसकी रकम नहीं रुकती । हालांकि निजी कंपनियों में शेयर के परिवर्तन पर नियंत्रण होता है, परंतु प्रतिबंध नहीं होता ।

(10) बड़े पैमाने पर उत्पादन : विशाल पूँजी और कार्यक्षम संचालन के कारण बड़े पैमाने का लाभ कंपनी को मिल सकता है ।। बड़े पैमाने पर खरीदी, बड़े पैमाने पर विक्रय, आधुनिक विशालकाय यंत्रों का उपयोग विविध निष्णातों की सेवा, संशोधन की सुविधा वगैरह के कारण कम खर्च से अधिक उत्पादन संभव बनता है ।

(11) निष्णातों की सेवा : विशाल पूँजी कोष और वित्तीय साधनों के कारण कंपनी क्रय, विक्रय, उत्पादन, द्रव्य-व्यवस्था वगैरह कार्यों के लिये विविध निष्णातों की सेवा का लाभ ले सकती है । ऐसी कंपनियों की प्रतिष्ठा और स्थिरता के कारण लोग ऐसी कंपनियों में जुड़ना पसंद करते हैं ।

(12) धंधाकीय स्थिरता : कंपनी में विशाल पूँजी कोष एकत्रित होने के बावजूद उसका संचालन तो मात्र मर्यादित संख्या में चुने गये डायरेक्टरों के द्वारा ही किया जाता है । उसे कानून में दर्शाये गये विधि और नियम के अनुसार ही कार्य करना होता है । इससे कंपनी में धन्धाकीय स्थिरता रहती है ।

(13) सामाजिक लाभ : कंपनी की स्थापना से असंख्य लोगों को रोजगार प्राप्त होता है । कई कंपनियाँ स्थानिक विस्तार में स्कूल, कॉलेज, चिकित्सालय, बगीचा, खेलकूद के मैदान का विकास इत्यादि के हेतु आर्थिक सहायता प्रदान करती हैं । राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा देश के आर्थिक विकास में योगदान प्रदान करती हैं ।

कंपनी की मर्यादाएँ :
कंपनी की मर्यादाएँ (Limitations of Joint Stock Company) निम्नलिखित होती हैं :

(1) स्थापना में कठिनाई : कंपनी की स्थापना-विधि व्यक्तिगत मालिकी एवं साझेदारी की तरह सरल नहीं है । अन्य की अपेक्षाकृत जटिल व लम्बी है । कंपनी की स्थापना के लिये कानून की अनेक विधियाँ करनी पड़ती हैं, अनेक दस्तावेज तैयार करने पड़ते हैं । इस तरह, कंपनी की स्थापनाविधि लंबी, जटिल और खर्चीली है ।

(2) जनता से धोखा : कंपनी में आसानी से रकम प्राप्त हो जाने से अप्रामाणिक प्रायोजक जनता को धोखा देते हैं । जनता को शेयर खरीदने का आमंत्रण देनेवाला जो विज्ञापनपत्र समाचार-पत्रों में प्रकाशित किया जाता है, वह खूब आकर्षक ढंग से बनाया जाता है । उसमें कंपनी के भविष्य का गुलाबी चित्र बनाया जाता है । जनता को डिरेक्टर या मैनेजिंग डिरेक्टरों के बारे में कोई निजी जानकारी न होने से वे शेयर खरीदते हैं और मुसीबत में फँस जाते हैं ।

(3) तानाशाही व्यवस्था : कंपनी में लोकशाही व्यवस्था होने पर भी और शेयरहोल्डरों की सत्ता सर्वोपरि होने के बावजद व्यवहार में शेयरहोल्डरों की सत्ता नाममात्र की ही रहती है । इस स्वरूप में मुट्ठीभर शेयरहोल्डर या डिरेक्टर्स की तानाशाही का सबसे खराब स्वरूप देखने को मिलता है । अनेक व्यक्ति गबन करने पर भी संचालक नियुक्त हो जाते हैं । कंपनी में प्रतिशेयर मताधिकार होने से धनी व्यक्ति पैसों के जोर पर अधिक शेर खरीद कर संचालन पर अधिकार रखते हैं ।

(4) परिवर्तन क्षमता का अभाव : कंपनी में किसी भी तरह के परिवर्तन के लिये कंपनी-कानून के अनुसार चलना पड़ता है । इसके लिये शेयरहोल्डर्स की सभा में सूचना, पूँजी-नियामक सरकार या अदालत की मंजूरी वगैरह अनेक कार्रवाई करनी पड़ती हैं। इस । तरह व्यक्तिगत मालिकी और साझेदारी की तुलना में कंपनी में जल्दी से परिवर्तन नहीं किया जा सकता अर्थात् परिवर्तनशीलता का अभाव । देखने को मिलता है ।

(5) अधिक कर-बोझ : कंपनी के विशाल कद के कारण आय का प्रमाण भी अधिक रहता है । सरकार कंपनियों पर अधिक प्रमाण में कर लादती है । जैसे – कोर्पोरेशन टैक्स, विक्रयकर, सुपर प्रोफिट टैक्स वगैरह । जबकि व्यक्तिगत मालिकी और साझेदारी में लाभ का प्रमाण कम होने से कर-बोझ कम रहता है ।

(6) व्यवस्थापकीय खर्च : कंपनी के व्यवस्थापकीय खर्च का प्रमाण अधिक देखने को मिलता है । कंपनी के विशाल कद और बडे पैमाने की प्रवृत्ति के कारण कामकाज के लिये अनेक निष्णात और कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है । उन्हें अधिक वेतन देना पड़ता है तथा कंपनी के संचालक, सेक्रेटरी, मैनेजर, मैनेजिंग डिरेक्टर वगैरह को भी अधिक वेतन तथा अन्य सुविधाएँ देनी पड़ती हैं । इस तरह, कंपनी के व्यवस्था के पीछे अधिक प्रमाण में खर्च करना पड़ता है ।

(7) लघुमत का शोषण : उपरोक्त मुद्दे में से यह मुद्दा उपस्थित होता है । कंपनी की सभा के निर्णय बहुमती से ही लिये जाते हैं । परिणामस्वरूप लघुमत में रहे हुए सदस्यों ही कंपनी में कोई आवाज नहीं है । संचालक कितनी बार ज्यादातर मत खुद के पास रखकर खुद की इच्छा के कार्य करवाते हैं ।

(8) रहस्य की गुप्तता का अभाव : सार्वजनिक कंपनी को खुद के व्यापार से संबंधित सभी बातों को घोषित करना पड़ता है । लाभहानि खाता, पक्की तलपट तथा दूसरी अनेक बातें उसे प्रसिद्ध करनी पड़ती हैं । शेयरहोल्डरों की सभा में पूछे जानेवाले प्रश्नों का उचित उत्तर देना पड़ता है । जबकि साझेदारी या व्यक्तिगत व्यापार में रहस्य गुप्त रख्खे जा सकते हैं ।

(9) आंतरिक जानकारी का दुरुपयोग : कंपनी के डिरेक्टर्स तथा मैनेजिंग डिरेक्टर्स संचालन की दृष्टि से छोटी बातों की जानकारी रखते हैं । वे इस जानकारी का लाभ खुद के हित के लिये उठाते हैं । डिविडेन्ड घोषित करना हो तो बड़े पैमाने पर शेयर की खरीदी या विक्रय खुद करते हैं । डिविडेन्ड घोषित होने के बाद भाव बढ़े तो शेयर का विक्रय कर लाभ करते हैं अथवा भाव घटे तो कम कीमत पर शेयर खरीद लेते हैं । इसके अलावा इस जानकारी का उपयोग करके शेयर बाजार में हलचल मचा सकते हैं ।

(10) संचालक की गैररीतियाँ : डिरेक्टर और मैनेजिंग डिरेक्टर कंपनी का संचालन शेयर-होल्डरों के हित में करने के बदले खुद के हित में करते हैं । कम कीमतवाले अधिक मताधिकारवाले शेयर खुद के पास रखकर व्यवस्था में खुद की इच्छा से कंपनी के पास से अनेक प्रकार के भत्ते प्राप्त कर कंपनी का शोषण करते हैं । कंपनी की रकम का उपयोग अपने निजी कार्य के लिए करते हैं ।

(11) निजी रस का अभाव : कंपनी का संचालन वेतन प्राप्त करनेवाले व्यक्ति करते हैं । स्वाभाविक रूप से उन्हें कार्यक्षम संचालन में कोई रस नहीं होता । मालिकी और संचालन अलग होने के कारण कंपनी का संचालन शेयरहोल्डरों के हित में नहीं होता ।

(12) कानून का पालन : कंपनी की स्थापना का काम अपेक्षाकृत मुश्किल है । कानून की अनेक विधियाँ करनी पड़ती हैं । अनेक दस्तावेज तैयार करने पड़ते हैं । स्थापना के बाद अनेक पत्रक हर वर्ष रजिस्ट्रार के पास भेजने पड़ते हैं । पक्की तलपट तथा लाभ-हानि खाता प्रदर्शित करना होता है तथा कानून की अनेक बातों का पालन करना होता है । अगर इनका पालन न किया जाये तो दंड भी हो सकता है।

(13) निर्णय में विलंब : कंपनी के महत्त्वपूर्ण निर्णय सभा में लिये जाते हैं । परंतु डिरेक्टरों या शेयरहोल्डरों की सभा को बुलाने के लिये जो विधि करनी पड़ती है उसमें समय का व्यय होता है । व्यक्तिगत व्यापार या साझेदारी में नये संजोगों के उपस्थित होने पर शीघ्र निर्णय लिया जा सकता है, जो कि कंपनी में सम्भव नहीं है । निर्णय में देरी कई बार कंपनी के लिए समस्या भी उत्पन्न कर सकती है ।

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प्रश्न 4.
संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल (Joint Stock Company) की स्थापना विधि के पहलू/सोपान बताइए ।
उत्तर :
कम्पनी की रचना के दो पहलू है ।

  1. प्रवर्तन (Promotion)
  2. रजिस्ट्रेशन का प्रमाणपत्र प्राप्त करने की विधि (In Corporation)

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प्रश्न 5.
प्रवर्तन (Promotion) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
अथवा
प्रवर्तक को प्रवर्तन के किन-किन मुद्दों पर विचार करना पड़ता है ?
उत्तर :
प्रवर्तन : कम्पनी की स्थापना का विचार करके उसको वास्तविक स्वरूप देना अर्थात् प्रवर्तन । प्रवर्तन का विचार करके अस्तित्व (अमल) में लानेवाले व्यक्ति को प्रवर्तक (Promoter) कहते हैं । प्रवर्तक साझेदारी संस्था, एकाकी व्यापार, संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल का भी हो सकता है । प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना हेतु विभिन्न बातों पर विचार, करके लाभ की संभावना, पूँजी-विनियोग, स्थल, धन्धे के प्रकार इत्यादि पर विचार करने में कार्यशील रहता हैं । प्रवर्तक को प्रवर्तन के निम्न मुद्दों पर विचार करना पड़ता है ।

(i) स्थापना-कार्य का विचार : सर्वप्रथम किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को कम्पनी के नाम से अमुक धंधाकीय प्रवृत्ति करने का विचार आता है । इन्हें प्रवर्तक (Promoters) कहते हैं । यह विचार नयी वस्तु नवीन पद्धति या धंधे की नई व्यवस्था के संदर्भ में हो सकता है । कम्पनी के बारे में विचार का उद्भव उसके स्थापना-कार्य का बीज है । जो समय गुजरने पर विशाल वृक्ष में रुपान्तरित होता है । इसीलिए कहा जाता है कि The Company is a brain child of Promoters. जब से प्रवर्तकों के मन में व्यापार-धंधे के विचार का उद्भव हो तभी से धंधाकीय इकाई की स्थापना का प्रारंभ हुआ माना जाता है । धंधे के विचार या कल्पना का मूल (जड़) स्थापक की फलद्रुप कल्पना-शक्ति, मौलिक सर्जन शक्ति और कुशाग्र सूझबूझ का परिणाम है ।

(ii) प्राथमिक जाँच : आये हुए विचार की परख किए बिना उसे अमल में लाया जाय तो नुकसान होने की संभावना रहती है । इसलिए आये हुए विचार की प्राथमिक जाँच की जाती है । प्राथमिक जाँच में संभवित आय और खर्च का अंदाज, माल की माँग और पूर्ति, बाजार में प्रवर्तित स्पर्धा, पूंजी-विनियोग, बाजार-संशोधन वगैरह कारकों के संदर्भ में आये हुए विचार की जाँच की जाती है ।

(iii ) विस्तृत (गहन) जाँच-पड़ताल : प्राथमिक जाँच करने के बाद यदि विचार अमल में रखने योग्य लगे तो उसकी संपूर्ण गहन विश्लेषणात्मक जाँच-पड़ताल कोस्ट एकाउन्टन्ट, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट तथा बाजार के विशेषज्ञों की मदद से कराई जाती है । गहन, बारीक जाँच-पड़ताल मुख्य रूप से कारखाने का स्थल, पूंजी, मजदूरी, कच्चे माल, यांत्रिक साधन-सामग्री, संचालन शक्ति, परिवहन की सुविधा, बाजार-संशोधन, मांग-पूर्ति, सरकारी नियंत्रण, सरकारी नीति, विदेश-व्यापार से संकलित हों तो आयात-निर्यात इत्यादि का संपूर्ण गहन अध्ययन संभव है ।

(iv ) साधनों का एकत्रीकरण : स्थापना के लिए बनाई गयी योजना को मूर्तिमंत करने के लिए आवश्यक साधन-सामग्री एकत्र करना आवश्यक बनता है । इसके लिए कारखाने के स्थल का चुनाव, जमीन खरीदी की मंत्रणा, यंत्र-खरीदी या आयात के संदर्भ में कार्यवाही, आवश्यक हो तो विदेशी सहयोग, सरकारी परवाना और क्वोटा की प्राप्ति के लिए लिखा-पढ़ी, फैक्टरी निर्माण के संदर्भ में मंत्रणा, मिलकत प्राप्त करने के लिए विविध करार तथा दस्तावेजों का निर्माण तथा आवश्यक अधिकारियों की नियुक्ति के संदर्भ में सघन प्रयत्न किया जाता है ।

(v) वित्तीय व्यवस्था : द्रव्य तो सभी आर्थिक प्रवृत्तियों के मध्य में रहा हुआ चालक बल है । उपर्युक्त आर्थिक प्रवृत्तियों के लिए पूंजी की व्यवस्था आवश्यक बनती है । मिलकत प्राप्त करने के लिए, साधनों का एकत्रीकरण करने के लिए, प्राथमिक प्रायोगिक उत्पादन करने, वेतन तथा स्थापना के अन्य खर्चों के भुगतान के लिए रकम की आवश्यकता पड़ती है । स्थापक को अपनी खुद की बचत में से अपने मंत्रि-मंडल, शराफ, वित्तीय संस्थाओं द्वारा या शेयर, डिबेन्चर निर्गमित करके उपरोक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ती है ।

इस प्रकार कम्पनी की रचना की प्रथम सीढ़ी (सोपान) पर प्रवर्तक अत्यन्त सक्रिय होते हैं । प्रवर्तक द्वारा किये गये कच्चे करारों को अंशधारियों की प्रथम कानूनी सभा में मंजूरी के लिए रखा जाता है । इन करारों को मान्य रखना या न रखना यह अंशधारियों पर निर्भर करता है । यदि करार को सभा में मंजूरी मिल जाती है तो ये करार कम्पनी के लिए बंधनकर्ता हैं । यदि कोई करार, सभा में नामंजूर होता है, तो उससे होनेवाले नुकसान की व्यक्तिगत जिम्मेदारी प्रवर्तक उठाते हैं ।

प्रश्न 6.
पंजीयन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की विधि समझाइए ।
अथवा
रजिस्ट्रेशन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की विधि समझाइए ।
उत्तर :
संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल की स्थापना के लिए पंजीयन का प्रमाण-पत्र (Certificate of Incorporation) प्राप्त करना पड़ता है । यह प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार कार्यवाही करके दस्तावेज तैयार करके सरकार द्वारा नियुक्त किए गए रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज के पास पंजीकृत कराने पड़ते हैं । ये दस्तावेज निम्नलिखित होते हैं :
1. आवेदन-पत्र (Memorandum of Association)
2. नियमन-पत्र (Articles of Association)
3. संचालकों के नाम की सूची (List of Directors)
4. संचालकों का लिखित संमति-पत्र (Written Consent of Directors)
5. अन्य कम्पनी के हित के बारे में घोषणा
6. व्यवस्था-पालन का करार-पत्र

(i) आवेदन-पत्र (Memorandum of Association) : कम्पनी रचना का यह प्रथम दस्तावेज है । यह कम्पनी का संविधान, चार्टर या महत्त्वपूर्ण खतपत्र और यह कम्पनी का मूलभूत व बाह्य दस्तावेज है । प्रत्येक कम्पनी के पंजीयन के लिए आवेदन-पत्र तैयार करना अनिवार्य है । यह खतपत्र कम्पनी का कार्यक्षेत्र निश्चित करता है । कम्पनी की पहचान भले ही उसके नाम और मुहर से हो, पर कम्पनी कौन-सी प्रवृत्ति करेगी, उसके संचालक किस स्थान पर मिलेंगे, वे कितनी पूंजी से व्यापार करेंगे आदि-संबंधी कम्पनी की कार्यकारी (Fundamental) पहचान आवेदन-पत्र से होती है । इस दस्तावेज की प्रत्येक धारा पुख्ता चर्चा-विचारणा के बाद तैयार की जाती है । एक बार धाराओं का सरकारी पुस्तक में पंजीयन हो जाने के बाद उसमें परिवर्तन के लिए लंबी विधि करनी पड़ती है ।

यह बाह्य दस्तावेज होने के कारण अनेक व्यक्तियों को बार-बार इसकी आवश्यकता पड़ती है । इसलिए यह दस्तावेज छपा हुआ, अनुच्छेदों में विभाजित अनुक्रम नंबर के साथ तथा दस्तावेज के अंत में निजी कम्पनी में दो और सार्वजनिक कम्पनी में सात सदस्यों की सही होती है । कोई भी व्यक्ति कम्पनी के रजिस्टर्ड ऑफिस में यह दस्तावेज पढ़ सकता है तथा किसी भी भाग की प्रतिलिपि प्राप्त कर सकता है ।

(ii) स्थापना का नियमन-पत्र (Articals of Association) : रजिस्ट्रेशन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए यह दूसरा दस्तावेज तैयार करना पड़ता है । आवेदन-पत्र कम्पनी का बाह्य दस्तावेज तथा संविधान है जबकि नियमन-पत्र कम्पनी के आंतरिक संचालन के नियम
और कानून दर्शाता है । आवेदन-पत्र व नियमन-पत्र एकदूसरे के पूरक हैं । आवेदन-पत्र में मुख्य कौन-से उद्देश्य सिद्ध करने के लिए प्रवृत्तियाँ होंगी यह तय किया जाता है जब कि नियमन-पत्र में प्रवृत्तियाँ किस तरह चलायी जायेंगी और प्रवृत्तियाँ करने के लिए कौन-से नियम होंगे ? अंशधारियों और संचालकों के अधिकार व कर्तव्य, अंशों का परिवर्तन, किस्तें, डिविडन्ड, ऑडिट, मीटींग आदि के नियम नियमन-पत्र में समाविष्ट किए जाते हैं ।

नियमन-पत्र यह कम्पनी के आंतरिक प्रशासन व रोजबरोज के संचालन के नीति-नियम दर्शाता हुआ महत्त्व का दस्तावेज है । नियमनपत्र छपा हआ, व्यवस्थित विभागों में विभाजित, अनुक्रम नंबर के साथ अनुच्छेदों में विभाजित होना चाहिए । जिन सदस्यों ने आवेदन-पत्र में जिस साक्षी के रुबरु में सही की हो उसी साक्षी के रूबरु में पुन: सही करनी होती है ।

(iii) संचालकों के नाम की सूची (List of Directors) : सामान्यतः कम्पनी की रचना के बाद अंशधारी अपनी सभा में संचालकों का चुनाव करते हैं । परन्तु इसके पहले कम्पनी का प्रशासन चलाने के लिए प्रवर्तक जिन्होंने कि अंश खरीदने को प्राथमिकता दी है वे अपने में से ही संचालक चुन लेते हैं । ये संचालक कम्पनी की प्रथम कानूनी सभा होने तक संचालन कार्य करते हैं । इन संचालकों का नाम, पता, उम्र, धंधा और दूसरी किन कंपनियों के पद पर हैं इसकी जानकारी देनी पड़ती है । कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कराते समय यह सूचना भी रजिस्ट्रार को देनी पड़ती है ।

(iv) संचालकों के लिखित संमति-पत्र (Written Consent of Directors) : कम्पनी-अधिनियम के अनुसार सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम तीन तथा निजी कम्पनी में कम से कम दो संचालकों का होना अनिवार्य है । उसके अनुसार डायरेक्टरों के नाम की सूची में जिसके नाम का समावेश हुआ है उनमें से प्रत्येक की तरफ से स्वयं संचालक का कार्य करने के लिए संमत हैं ऐसा लिखित संमति-पत्र देना पड़ता है ।

(v) अन्य कम्पनी के हित के बारे में घोषणा : कम्पनी के संचालक, प्रबन्धक, सचिव या भरपाई करनेवाली जो दूसरी कम्पनी – के साथ हित सम्बन्ध रखती हो तो इसके बारे में निवेदन दर्शाना पड़ता है ।

(vi) व्यवस्था-पालन का करार पत्र या कानूनी सूचना (Notification) : कम्पनी की स्थापना के लिए कानूनी सभी विधियों में से कोई विधि शेष नहीं रह गयी है ऐसा एक प्रमाणपत्र सर्वोच्च अदालत या अन्य मुख्य अदालत में वकालत करने की क्षमता वाले वकील, एटोर्नी या भारत में धन्धा करनेवाले चार्टड एकाउन्टन्ट से, जो कि कम्पनी के प्रारंभ से ही सम्बन्ध रखते हैं, लेना पड़ता है । नियमन-पत्र में जिसका संचालक के रूप में उल्लेख्न हुआ है ऐसे व्यक्ति की तरफ से कम्पनी के संचालक या सचिव की तरफ से ऐसा निवेदन होना चाहिए कि कानून की सभी जरूरतें संतुष्ट की गयी हैं ।

ये दस्तावेज तैयार हो जाने के बाद कम्पनी, अधिनियम के लिस्ट X में दर्शायी गयी आवश्यक फीस के साथ कम्पनी रजिस्ट्रार को भेजा जाता है । कम्पनी रजिस्ट्रार को कायदानुसार सभी दस्तावेज मिलने के बाद उसकी जाँच करता है और संतोष हो तो अपनी पुस्तकों में कम्पनी का पंजीयन करता है । पंजीयन का प्रमाण-पत्र प्रवर्तकों के प्रतिनिधियों को देता है । यह प्रमाण मिलते ही कम्पनी कानूनी व्यक्ति के रूप में अस्तित्व में आती है । इस प्रमाणपत्र में निर्दिष्ट तारीख से कम्पनी अपने सदस्यों से अलग व्यक्तित्व प्राप्त करती है । प्रमाणपत्र मिलते ही कम्पनी को धंधाकीय सातत्य, कृत्रिम व्यक्तित्व और स्थायी वारिस का अधिकार प्राप्त होता है । पंजीयन का प्रमाणपत्र पंजीयन के संदर्भ में कम्पनी कायदे की व्यवस्था के पालन का निर्णायक सबूत है ।

पंजीयन का प्रमाण-पत्र मिलते ही निजी कम्पनी अपना धन्धा प्रारंभ कर सकती है, कारण कि उसे आम जनता को अपने शेयर नहीं बेचने होते हैं । उसके स्थापक ही पूंजी उपलब्ध कराते हैं, जबकि सार्वजनिक कम्पनी को आम जनता को शेयर बेचने होते हैं । इसलिए धन्धा प्रारंभ करने का प्रमाण प्राप्त करने की विधि भी करनी पड़ती है ।

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प्रश्न 7.
आवेदन-पत्र की विविध कलमें समझाइए ।
उत्तर :
आवेदन-पत्र कम्पनी का मूलभूत दस्तावेज तथा कम्पनी के संविधान के समान है । आवेदन-पत्र में निम्न छ: कलमों का समावेश होता है ।

आवेदन-पत्र की धाराएँ/कलमें :
कम्पनी की रचना सन् 1956 के कम्पनी कानून के अनुसार होती है । आवेदन-पत्र में निम्न विवरण दर्शाया गया होता है जिसे आवेदनपत्र की धाराएँ कहते हैं ।
(i) नाम की धारा (Name clause)
(ii) रजिस्टर्ड ऑफिस की धारा (Domicile clause)
(iii) उद्देश्य की धारा (Object clause)
(iv) पूंजी की धारा (Capital clause)
(v) जिम्मेदारी की धारा (Liability clause)
(vi) स्थापना की धारा (Association clause)
अब हम इन धाराओं की विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे ।

(i) नाम की धारा :
जिस नाम से कम्पनी धन्धा करना चाहती हो वह नाम आवेदन-पत्र में दर्शाना चाहिए । कम्पनी का परिचय, प्रतिष्ठा तथा लोकप्रियता उसके नाम के साथ संलग्न है । नई स्थापित कम्पनी, कम्पनी अधिनियम में दर्शायी गयी मर्यादा में रहकर कोई भी नाम रख सकती है ।

कम्पनी का नाम रखने से पहले निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए :
(1) कम्पनी चाहे जो नाम रख सकती है पर दूसरी किसी चालू रजिस्टर्ड कम्पनी का नाम या किसी ऐसी कम्पनी का नाम नहीं रख सकती है जिसका दिवाला निकल चुका हो ।

(2) राष्ट्र या राज्य का सबसे बड़ा व्यक्ति अर्थात् राष्ट्रपति या राज्यपाल के साथ मिलनेवाला नाम नहीं रखा जा सकता है । जैसे
धी प्रेसीडेन्ट ऑफ इन्डिया लिमिटेड, धी गवर्नर ऑफ गुजरात लिमिटेड ।

(3) सरकार के नाम से मिलता-जुलता या सरकारी नीति-विरोधी नाम नहीं रखा जा सकता है । युनाइटेड नेशन्स लिमिटेड जैसा नाम नहीं रखा जा सकता है ।

(4) कानून के अनुसार शेयर से मर्यादित प्रत्येक सार्वजनिक कम्पनी को अपने नाम के पीछे लिमिटेड शब्द तथा शेयर पूंजी से मर्यादित प्रत्येक निजी कम्पनी को अपने नाम के अंत में ‘प्राइवेट लिमिटेड’ शब्द लगाना जरूरी है ।

(5) यदि कम्पनी की अधिकांश: पूंजी-विदेशी शेयरधारकों के द्वारा दी गयी हो तो विदेशी विनिमय संचालन कानून के अन्तर्गत (FEMA – Foreign Exchange Management Act) सार्वजनिक कम्पनी को अपने नाम के पीछे लिमिटेड और निजी कम्पनी को प्राइवेट लिमिटेड शब्द के आगे ‘इंडिया’ शब्द लगाना पड़ता है । जैसे : पॉफन्डस इन्डिया लिमिटेड, सेल्युलोझ प्रोडक्ट ऑफ इंडिया लिमिटेड ।

(6) (A) कम्पनी अधिनियम सन् 1960 के सुधार के अनुसार कोई भी कम्पनी जन-कल्याण के उद्देश्य से या कला, विज्ञान, धर्म, इत्यादि उद्देश्य से अस्तित्व में आई हो तो कम्पनी अपने नाम के अंत में लिमिटेड या प्राइवेट लिमिटेड शब्द लगाने से सरकार से मुक्ति प्राप्त कर सकती है ।

(B) इसके अलावा कम्पनी जन-कल्याण का कार्य न करे फिर भी वह अपना लाभ कभी भी डिविडन्ड के रूप में वितरण नहीं करेगी ऐसा केन्द्र सरकार को विश्वास दिलाए तब वह लिमिटेड शब्द लगाने से मुक्ति प्राप्त कर सकती है ।

(7) कम्पनी का नाम निश्चित हो जाने के बाद कम्पनी जहाँ धन्धा करती हो वहाँ तथा कम्पनी के रजिस्टर्ड ऑफिस में यह नाम स्पष्ट बड़े अक्षरों में लिखवाना चाहिए तथा उस क्षेत्र के लोगों की मुख्य भाषा में भी लिखा होना चाहिए ।

(8) कम्पनी की रजिस्टर्ड मुहर (Seal) में भी यह नाम लिखवाना चाहिए तथा कम्पनी के सभी पत्र, परिपत्र, दस्तावेज इत्यादि में यह नाम और रजिस्टर्ड ऑफिस का पता लिखाना आवश्यक है ।

(ii) रजिस्टर्ड ऑफिस की धारा :
कम्पनी अधिनियम के अनुसार प्रत्येक कम्पनी को आवेदन-पत्र में अपनी रजिस्टर्ड ऑफिस का पता बताना होता है । यदि पता न . बताया गया हो तो कम से कम राज्य का नाम तो दर्शाना ही पड़ता है । यदि आवेदन-पत्र में राज्य का नाम दर्शाया गया हो तो पंजीयन का प्रमाणपत्र मिलने के 30 दिन के अंदर अथवा कम्पनी जिस दिन धन्धा प्रारंभ करे इन दोनों में से जो तारीख पहले आती हो उस तारीख तक रजिस्टर्ड ऑफिस का पता कम्पनी रजिस्ट्रार के समक्ष दर्ज कराना पड़ता है । जिस स्थल पर कम्पनी से सम्बन्धित सभी दस्तावेज प्राप्त हो सकें, जिस स्थल पर कम्पनी के साथ एक व्यक्ति के रूप में कानूनन सभी व्यवहार हो सकें, जिस स्थल से कम्पनी सम्बन्धित पत्र-व्यवहार हो सकता हो उस स्थल का पता आवेदन-पत्र में लिखा जाता है । आवेदन-पत्र में दर्शाया गया पता पंजीयन-अधिकारी दर्ज करते हैं इसलिए इसे रजिस्टर्ड पता कहते हैं ।

रजिस्टर्ड ऑफिस के पते का महत्त्व निम्न कारणों से स्पष्ट है :

  1. रजिस्टर्ड ऑफिस के पते से कम्पनी की राष्ट्रीयता निश्चित होती है । जिस पर से कम्पनी को कौन-से देश का कानून लागू होगा यह निश्चित किया जाता है ।
  2. रजिस्टर्ड ऑफिस का पता अदालत का अधिकार-क्षेत्र निश्चित करता है ।
  3. कम्पनी कानूनन स्थापित कृत्रिम व्यक्ति है । इसलिए कम्पनी के सदस्य, लेनदार, सरकार और कम्पनी रजिस्ट्रार कम्पनी के साथ किस पते पर पत्र-व्यवहार करेंगे इसके लिए पता आवश्यक है ।
  4. किस राज्य के रजिस्ट्रार के पास कम्पनी को अपने दस्तावेजों तथा पत्रकों को पंजीकृत कराना होगा हम यह जान सकते हैं । इस प्रकार कौन-सी कम्पनी अपने अधिकार-क्षेत्र में आती है यह रजिस्ट्रार भी निश्चित कर सकते हैं ।
  5. कानून के अनुसार रखे जानेवाले रजिस्टर, पत्रक, चौपड़ा वगैरह रजिस्टर्ड ऑफिस में रखने पड़ते हैं । जो सदस्यों तथा आम जनता की जाँच के लिए निर्धारित समय में जाँच के लिए खुला रखने पड़ते हैं ।

(iii) उद्देश्य (ध्येय) की धारा अर्थात् आवेदन-पत्र की सबसे महत्त्वपूर्ण धारा :
आवेदन-पत्र की यह सबसे महत्त्वपूर्ण धारा है । कंपनी को इस धारा की रचना में खूब दीर्घ दृष्टि रखनी चाहिए । कम्पनी के ध्येय को ध्यान में रखकर ही आम जनता कम्पनी में विनियोग करने के लिए प्रेरित होती है । भविष्य में भी कम्पनी क्या करना चाहती है – इस बात को भी इस धारा में पहले से ही दर्शा देना चाहिए । इस धारा में निम्नलिखित बातों के संदर्भ में स्पष्टता होती है।

(1) कार्यक्षेत्र : कम्पनी की स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी है उस मुख्य उद्देश्य, गौण उद्देश्य तथा इनके अलावा अन्य उद्देश्य हों तो . स्पष्ट रूप से उन्हें भी सूचित करना चाहिए । इस पर कम्पनी का कार्य-क्षेत्र निश्चित होता है । कम्पनी अपने कार्यक्षेत्र से बाहर का कार्य या प्रवृत्ति नहीं कर सकती है ।

(2) उद्देश्य : इस धारा के निम्न दो उद्देश्य हैं :
(अ) इस कम्पनी के शेयरधारक अपनी पूंजी किस प्रवृत्ति में लगा रहे हैं हम यह जान सकते हैं । प्रवृत्ति के आधार पर कम्पनी के मुनाफे का अंदाज लगा सकते हैं । इसलिए कम्पनी के मालिकों के लिए यह महत्त्वपूर्ण धारा है ।
(ब) इस धारा द्वारा कम्पनी की सत्ता तथा अधिकार-क्षेत्र निश्चित होने से कम्पनी के साथ सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्तियों को ख्याल आता है कि कम्पनी की सत्ता कितनी है । कम्पनी का उद्देश्य जानने के बाद कम्पनी के साथ सम्बन्ध रखना या नहीं यह व्यापारी, लेनदार या बैंक निश्चित करते हैं ।

(3) सत्ता बाहर के कार्य (Ultra Vires) : कम्पनी की इस धारा में न दर्शाया गया हो ऐसा कोई भी कार्य शेयरधारकों की सर्वानुमति से भी कंपनी नहीं कर सकती है । इस धारा में निश्चित किये कार्यों के अलावा यदि कम्पनी कोई भी कार्य करती है तो उसे (Ultra Vires) कहते हैं । अर्थात् सत्ता बाहर का कार्य कम्पनी के लिए बंधनकर्ता नहीं है । ऐसा कार्य करनेवाला व्यक्ति या अधिकारी उसके लिए जिम्मेदार है ।

(4) स्पष्टता : यह धारा हमेशा स्पष्ट होनी चाहिए । अस्पष्ट उद्देश्य की धारा कम्पनी को हमेशा के लिए कठिनाई में डाल सकती – है । इसीलिए कम्पनी उद्देश्य की धारा में पर्याप्त विशाल कार्य-क्षेत्र का समावेश करती है ।

(5) कानूनी व्यवस्था : कम्पनी का उद्देश्य कानून के विरुद्ध या देश के किसी भी कायदे का उल्लंघन करनेवाला या राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए । जैसे, गुजरात राज्य में शराब का निषेध है, इसलिए गुजरात में शराब उत्पादन के उद्देश्य से कम्पनी की स्थापना । नहीं की जा सकती है ।

(iv) पूंजी की धारा :
पूंजी की धारा में निम्नलिखित विवरण के संदर्भ में स्पष्टता होती है ।

  1. जो कम्पनी अंश पूंजी से स्थापित होती है उसके आवेदन-पत्र में पूंजी की कलम का समावेश होता है । (शेयर द्वारा मर्यादित कम्पनी)
  2. कम्पनी की कुल अधिकृत पूंजी कितनी है और किन-किन प्रकार के शेयरों में विभाजित है और शेयर की छपी हुई (दार्शनिक Face Value) कीमत कितनी है इसे इस धारा में दर्शाया जाता है ।
  3. अधिकृत पूंजी से अधिक शेयर कम्पनी निर्गमित नहीं कर सकती । इस अधिकृत पूंजी के आधार पर कम्पनी को रजिस्ट्रेशन फीस चुकानी पड़ती है ।
  4. कम्पनी अधिकृत पूंजी से कम शेयर निर्गमित कर सकती है ।
  5. यदि कम्पनी प्रेफरन्स शेयर निर्गमित करना चाहती हो तो उस पर चुकाया जानेवाला डिविडन्ड तथा प्रेफरन्स शेयर के प्रकार
    दर्शाने होते हैं ।
  6. कम्पनी नोटिस में, वर्तमान पत्रों में, विज्ञापन में, प्रकाशन या पत्रव्यवहार में अथवा वार्षिक हिसाबों में जहाँ अधिकृत पूंजी दर्शाती है उसके साथ निर्गमित और वसूली गयी (Paid up) पूंजी भी दर्शानी होती है ।

(v) जिम्मेदारी की धारा :
(1) इस धारा में स्थापकों द्वारा यह स्पष्ट किया जाता है कि “कम्पनी के शेयरधारकों की जिम्मेदारी मर्यादित रहेगी ।” शेयरधारकों द्वारा खुद धारण किए (खरीदे) शेयर की दार्शनिक कीमत या निर्गमित कीमत की अपेक्षा कुछ भी अतिरिक्त नहीं चुकाना है ।

(2) पूंजी द्वारा लोगों को आकर्षित करने और लोगों में विश्वास प्रेरित करने के लिए मर्यादित जिम्मेदारीवाली कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर या डाइरेक्टरों वगैरह की जिम्मेदारी की इस धारा में स्पष्टता करके उसे अमर्यादित रख सकते हैं ।

(3) गारन्टीवाली मर्यादित कम्पनी में अंशधारियों ने कम्पनी की स्थापना के समय जितनी रकम चुकाने की गारंटी दी हो उतनी रकम तक उनकी जिम्मेदारी मर्यादित रहती है ।

(4) अमर्यादित जिम्मेदारीवाली कम्पनी के सदस्यों की जिम्मेदारी उनकी संमति के बिना बढ़ा नहीं सकते परन्तु निजी कम्पनी में दो से और सार्वजनिक कम्पनी में सात से कम सदस्य हों और उसके बाद 6 मास से अधिक समय के लिए कम्पनी अपना धंधा चालू रख्खे और इस बात की जानकारी कम्पनी के सदस्यों को हो तो अतिरिक्त समय के दरम्यान हुए कम्पनी की जिम्मेदारी चुकाने के लिए सदस्य जिम्मेदार बनते हैं ।

(vi) स्थापना की धारा :
आवेदन-पत्र की इस अंतिम धारा में सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम सात और निजी कम्पनी में कम से कम दो सदस्यों को निम्नानुसार निवेदन देते हैं ।

“जिनके नाम और पते नीचे निर्दिष्ट हैं, आवेदन-पत्र के आधार पर हम एक ज्वाइन्ट स्टॉक कम्पनी स्थापित करने की इच्छा रखते हैं और प्रत्येक सदस्य अपने नाम के सामने निर्दिष्ट शेयर खरीदने के लिए तैयार है ।”

प्रवर्तकों को अपने हस्ताक्षरों की सच्चाई की गवाही के लिए साक्षी के समक्ष हस्ताक्षर करने पड़ते हैं । प्रवर्तक आपस में एक-दूसरे के गवाह नहीं बन सकते हैं । इसलिए कोई अन्य व्यक्ति ही गवाह होना चाहिए । ऐसी सही करनेवाले स्थापकों को अपने नाम, पते, उम्र, धन्धा वगैरह जानकारी बतानी पड़ती है । आवेदन-पत्र में सही करनेवाले कम्पनी के आद्यस्थापक कहे जाते हैं । अन्य संचालकों की नियुक्ति होने तक संचालन के रूप में चालू रहते हैं ।

समीक्षा :
आवेदन-पत्र कम्पनी का अति महत्त्वपूर्ण मूलभूत तथा अफर दस्तावेज है । जिस पर कम्पनी की संपूर्ण इमारत अस्तित्व रखती है । कम्पनी ही नहीं परन्तु शेयर धारक, भावि विनियोजक, लेनदार, व्यापारी, सरकार, आम जनता आदि सभी के लिए यह महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है ।

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प्रश्न 8.
साझेदारी संस्था और कम्पनी के मध्य अन्तर (Difference Between Partnership Firm and Company) बताइए ।
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6. निम्नलिखित विधान कारण सहित समझाइए ।

प्रश्न 1.
कंपनी कानून सर्जित बालक है ।
उत्तर :
कंपनी यह कानून के द्वारा सर्जित बालक है । क्योंकि उसका जन्म कानून के द्वारा होता है और अंत भी कानून के द्वारा होता है । कंपनी का भौतिक अस्तित्व नहीं है, परंतु कानूनी अस्तित्व है । अन्य व्यक्तियों की तरह कंपनी दावा कर सकती है, मिल्कियत खरीद सकती है, करार कर सकती है । इस तरह कंपनी को कानून द्वारा अस्तित्व प्राप्त होता है । कंपनी की कोई आत्मा नहीं होती, उसका शारीरिक स्वरूप नहीं होता, परंतु वह वकील के द्वारा प्रगट हो सकती है । इसलिए कंपनी कानून सर्जित बालक है ।

प्रश्न 2.
कंपनी की आयु दीर्घ होती है ।
उत्तर :
कानून के अनुसार कंपनी को स्थायी अस्तित्व मिलता है । अर्थात् कानून के अनुसार उसका जन्म होता है और अंत भी कानून से होता है । कंपनी के सदस्य आयें या जायें, कंपनी के सदस्यों को कुछ भी हो जाये, सदस्य दिवालिया बने, पागल बने या उसकी मृत्यु हो या सदस्य खुद के शेयर का विक्रय कर दें, इसके बावजूद कंपनी के अस्तित्व को कोई आँच नहीं आती । कंपनी का अस्तित्व तो चालू ही रहता है । इस तरह, अन्य व्यापारी व्यवस्था के स्वरूपों की तुलना में कंपनी की आयु लंबी होती है ।

प्रश्न 3.
बृहद उद्योगों के लिये कंपनी-स्वरूप उचित है ।
उत्तर :
बड़े उद्योगों के लिये बड़े प्रमाण में पूँजी चाहिए, जो कंपनी द्वारा एकत्रित की जा सकती है । कंपनी खुद की पूँजी शेयर या डिबेंचर द्वारा बड़े प्रमाण में पूँजी एकत्र कर सकती है तथा बड़े उद्योगों में जो निष्णात व्यक्ति और निष्णात ज्ञान-कौशल चाहिए, जो कंपनी के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । बड़े पैमाने पर धन्धा चलाने के लिये वैज्ञानिक संचालन-शक्ति रखनेवाले कुशल संचालकों की आवश्यकता रहती है । कंपनी के स्वरूप में मालिकी और संचालन अलग होने से ऐसे कुशल संचालक भी प्राप्त किये जा सकते हैं । इस तरह बड़े उद्योगों के लिये कंपनी-स्वरूप अधिक अनुकूल है ।

प्रश्न 4.
कंपनी का संचालन लोकतांत्रिक रीति से होता है ।
उत्तर :
कंपनी एक छोटा-सा लोकशाही राज्य है । उसका संचालन उसके मालिकों के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के द्वारा होता है । शेयरहोल्डरों के बहुमत से ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं । डिरेक्टर, मैनेजिंग डिरेक्टर वगैरह की नियुक्ति शेयरहोल्डर करते हैं और सामान्य सभा में नोटिस देकर उसे दूर कर सकते हैं । इस तरह, कंपनी का संचालन लोकतांत्रिक रीति से होता है ।

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प्रश्न 5.
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को (अल्पविकसित और विकसित) राष्ट्र आमंत्रित करते हैं ।
उत्तर :
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गरीब और अल्पविकसित देश आमंत्रित करते हैं । ऐसी कंपनियों के पास आधुनिक टेक्नोलॉजी होती है, उनकी खुद की प्रयोगशाला में श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को लगाकर रोजबरोज नवीन आविष्कार करवाते हैं । ऐसे देशों को इस तरह के आविष्कारों की भूख रहती है । ऐसी कंपनियाँ लोगों को रोजगारी के अवसर देती हैं और गरीब देशों को खुद को तेज आर्थिक विकास पूर्ण करने की इच्छा होती है । इसलिए अल्पविकसित देश बहुराष्ट्रीय कंपनी को आमंत्रित करते हैं।

प्रश्न 6.
कंपनी व्यवस्था छोटे विनियोजक द्वारा होनेवाले पूँजी-विनियोग को उत्तेजित करती है ।
उत्तर :
कंपनी की शेयर-पूँजी छोटी-छोटी रकम के शेयरों में विभाजित होती है । इससे समाज के सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी ऐसे शेयर खरीदने के लिये कंपनी में बचत का विनियोग करते हैं । इसके उपरांत, कंपनी विविध प्रकार के शेयर घोषित करती है, जिससे विविध मनोवृत्ति रखनेवाले व्यक्ति कंपनी की बचत में पूँजी लगा सकते हैं । इस तरह कंपनी छोटे विनियोजकों द्वारा होनेवाले पूँजी-विनियोग को उत्तेजित करती है ।

प्रश्न 7.
शेयरहोल्डर बदलते हैं, परंतु कंपनी चालू ही रहती है ।
उत्तर :
कंपनी का व्यक्तित्व और अस्तित्व उसके शेयरहोल्डरों से अलग होता है । इससे शेयर के परिवर्तन से शेयरहोल्डर की मृत्यु से शेयरहोल्डर बदलते रहते हैं, तो भी कंपनी के अस्तित्व पर कोई असर नहीं होता । कंपनी का अस्तित्व चालू ही रहता है । Members may come and go, but the company goes on for forever. अर्थात् सदस्य आयें या जायें परंतु कंपनी सदैव चलती ही रहती है ।

7. निम्न विधान सत्य है या असत्य कारण सहित समझाइए । 

प्रश्न 1.
‘बिना सहकार नहीं उद्धार’ यह विधान वर्तमान समय में सबके लिये लागू होता है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । व्यापारी व्यवस्था के दूसरे स्वरूप – व्यक्तिगत मालिकी, साझेदारी या कंपनी का उद्देश्य लाभ करने का होता है। इस उद्देश्य के कारण वह कर्मचारी तथा ग्राहकों का शोषण करे यह संभावना बनी रहती है । इसके उपरांत समाज के आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों का दलालों के द्वारा शोषण किया जाता है । ऐसे लोग संगठित बनकर सहकारी समिति स्थापित करें, तो वह शक्तिशाली . बन सकते हैं, अपने शोषण से बच सकते हैं तथा अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सकते हैं ।

प्रश्न 2.
सहकारी समिति में प्रति शेयर मताधिकार होता है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । सहकारी समिति में प्रति शेयर नहीं, परंतु प्रति सदस्य मतदान होता है । यह कानून धनी लोग समिति पर अपनी पकड न जमा लें इसलिए बनाया गया है ।

प्रश्न 3.
सहकारी समिति में पैसे की अपेक्षा मनुष्य को अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । सहकारी समिति में पैसे का वर्चस्व कम किया जाता है । प्रति व्यक्ति एक मत, डिविडेन्ड की मर्यादा वगैरह के द्वारा पैसे का वर्चस्व घटाकर व्यक्ति के गौरव को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है । सभी सदस्यों को समान माना जाता है और उच्च नैतिक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया जाता है । इस तरह, सहकारी समिति में पैसे की अपेक्षा मनुष्य को अधिक महत्त्व दिया जाता है ।

प्रश्न 4.
सहकारी समिति तथा कंपनी में संचालन लोकतांत्रिक आधार पर ही होता है।
उत्तर :
यह विधान गलत है । सहकारी समितियों का संचालन तो लोकशाही के आधार पर होता है, परंतु कंपनी का संचालन लोकतांत्रिक आधार पर नहीं होता, सहकारी समिति में प्रति सदस्य मत देने का अधिकार होता है, जिससे धनी व्यक्ति संचालन पर अपनी पकड़ न जमा सकें । समान स्तरवाले चुनाव के द्वारा चुने गये मैनेजिंग कमिटी के द्वारा समिति का संचालन होता है । इसलिए समिति का संचालन लोकशाही ढंग से चलता है ऐसा कहा जायेगा । परंतु कंपनी का संचालन थोड़े से धनी व्यक्तियों के हाथ में होता है, जो ज्यादातर किस्सों में अप्रामाणिक होते हैं । इसलिए कंपनी का संचालन सही अर्थों में लोकशाही ढंग से नहीं चलता ऐसा कहा जायेगा ।

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प्रश्न 5.
गरीब एवं मध्यम वर्ग के व्यक्तियों के लिये सहकारी समिति एक आशीर्वाद है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । सहकारी समिति गरीब और मध्यम वर्ग के मनुष्यों को उनकी आवश्यकता के लिए स्वावलंबी बनाते हैं । उन्हें मालिक या मध्यस्थी या दलालों के शोषण में से मुक्त किया जाता है, शुद्ध और ऊँची गुणवत्तावाली जीवन-आवश्यकता की वस्तुएँ और सेवाएँ योग्य भाव से प्रस्तुत करती है, बचत की भावना खिलती है और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरती है । इसलिये गरीब एवं मध्यम वर्ग के व्यक्तियों के लिये सहकारी समिति आशीर्वाद स्वरूप है ।

प्रश्न 6.
सहकारी समिति के सभी सदस्यों के बीच समान हिस्से में डिविडेन्ड का वितरण किया जाता है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । समिति के सदस्यों को उसके शेयर पर मर्यादित डिविडेन्ड मिलता है । इसके उपरांत, बाकी का लाभ । कोष में तथा बाकी का लाभ जो जैसा कार्य करे तदनुसार उसे अधिक रकम तथा बोनस मिलता है ।

प्रश्न 7.
सहकारी समिति पूँजीवादी व्यवस्था के दोषों को दूर करता है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । सहकारी समिति में आय की असमानता, संपत्ति का केन्द्रीकरण, एकाधिकार, जमाखोरी, कालाबाजार, तस्करी, व्याजखोरी, कृत्रिम तंगी उत्पन्न करना, वर्गभेद वगैरह पूँजीवाद के दूषणों को दूर करने का प्रयास करती है।

प्रश्न 8.
सहकारी समिति का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । सहकारी समिति का मुख्य उद्देश्य लाभ का नहीं, परंतु सेवा का है । इसके उपरांत सदस्यों की आर्थिक स्थिति सुधारना, उन्हें शोषण में से मुक्त करना, उन्हें स्वावलंबी बनाना, उनमें बचत की भावना को विकसित करना, उन्हें आवश्यक चीज-वस्तुएँ योग्य भाव से प्रदान करना वगैरह इसके मुख्य उद्देश्य हैं।

प्रश्न 9.
संयुक्त स्कन्ध प्रमंडल का विकास औद्योगिक क्रांति का आभारी है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । औद्योगिक क्रांति के कारण उद्योग और व्यापार का विकास हुआ । धन्धाकीय संस्था के आकार में वृद्धि हई । धन्धा चलाने के लिए बड़े प्रमाण में पूँजी निष्णात ज्ञान और कुशलता तथा कुशल संचालकों की आवश्यकता पड़ी । यह सब व्यक्तिगत मालिकी तथा साझेदारी पेढ़ी पूर्ण कर सके ऐसा नहीं था जिससे कंपनी-स्वरूप का क्रमशः विकास हुआ ।

प्रश्न 10.
कंपनी में सदस्यों का दायित्व अधिकार असीमित होता है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । कंपनी-कानून में असीमित दायित्ववाली कंपनी अस्तित्व में आ सकती है, परंतु आधुनिक समय में वह अनुकूल नहीं है । इससे ज्यादातर कंपनियाँ सीमित दायित्ववाली होती हैं । शेयरहोल्डरों की जिम्मेदारी उसके द्वारा खरीदे गये शेयर तक ही मर्यादित है।

प्रश्न 11.
निजी कंपनी तथा सार्वजनिक कंपनी दोनों एक ही हैं ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । कंपनी-कानून के अनुसार जिस कंपनी में 2 से 200 तक की सदस्य-संख्या शेयर-परिवर्तन पर नियंत्रण तथा खुद के शेयर खरीदने के लिए आम जनता को आमंत्रण देने की मनाही हो उस कंपनी को निजी कंपनी कहते हैं । जो कंपनी निजी नहीं है, वह सार्वजनिक है ।

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प्रश्न 12.
सार्वजनिक कंपनी अर्थात् सरकारी कंपनी ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । जिस कंपनी में कम से कम 51% पूँजी सरकार की हो उसे सरकारी कंपनी कहते हैं । सभी सार्वजनिक कम्पनियों की पूँजी 51% जितनी नहीं होती । सार्वजनिक कंपनी की पूँजी अनेक छोटे-छोटे शेयरहोल्डरों के हाथों में होती है ।

प्रश्न 13.
कंपनी का संचालन अंशधारी स्वयं करते हैं ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । कंपनी में मालिकी और संचालन दोनों अलग होते हैं । शेयरहोल्डर कंपनी के मालिक हैं, परंतु वे सभी कंपनी का संचालन नहीं करते । वे संचालन करने के लिए खुद के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं । इन प्रतिनिधियों को डिरेक्टर कहा जाता है । डिरेक्टरों का मंडल कंपनी का संचालन करता है ।

प्रश्न 14.
कंपनी का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । 2013 के कंपनी-कानून के अनुसार कंपनी का पंजीकरण अनिवार्य है । पंजीकरण के बिना कंपनी अस्तित्व में नहीं आती ।

प्रश्न 15.
सार्वजनिक कंपनी में अधिक से अधिक 50 सदस्य होते हैं ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । सार्वजनिक कंपनी में कम से कम 7 और अधिक से अधिक असंख्य सदस्य हो सकते हैं।

प्रश्न 16.
कंपनी की स्थापना-विधि सरल है ।
उत्तर :
यह विधान गलत है । कंपनी की स्थापना-विधि सरल नहीं, परंतु कठिन, अटपटी तथा खर्चीली है ।

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8. अन्तर स्पष्ट कीजिए :

(1) सहकारी समिति व कम्पनी
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(2) निजी कम्पनी व सार्वजनिक कम्पनी :
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(3) आवेदन-पत्र और नियमन-पत्र के बीच का अंतर स्पष्ट कीजिए ।
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9. निम्नलिखित विधान सही है या गलत यह कारण देकर समझाइए ।

प्रश्न 1.
स्थापक धंधादारी साहस का सर्जक है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । जॉइन्ट स्टॉक कम्पनी वास्तव में एक कानूनन कृत्रिम व्यक्ति है । कम्पनी जीवन्त व्यक्ति न होने के कारण अपने आप अस्तित्व में नहीं आती है । उसकी स्थापना या रचना विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा की जाती है । धंधादारी साहस की स्थापना करनेवाले व्यक्तियों को स्थापक कहते हैं । वे लाभकारक अवसरों की जाँच करके उसे मूर्तिमंत करने का कार्य करते हैं ।

प्रश्न 2.
कम्पनी कानूनन एक व्यक्ति है अथवा कम्पनी कृत्रिम व्यक्तित्व धारण करती है । अथवा कम्पनी कानून द्वारा अस्तित्व में आया हुआ कृत्रिम व्यक्ति है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । कम्पनी उसके शेयरधारकों से अलग स्वतंत्र अस्तित्व रखनेवाला एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका जन्म कम्पनी कायदे की व्यवस्थाओं का पालन करके होता है । कम्पनी एक व्यक्ति की तरह अपने नाम से क्रय-विक्रय कर सकती है, मिलकतें रन सकती है, करार कर सकती है, उधार ऋण ले सकती है या दे सकती है, अदालत में दावा कर सकती है । इसलिए कहा जाता है कि कम्पनी कृत्रिम व्यक्तित्व धारण करती है ।

प्रश्न 3.
कम्पनी की स्थापना अर्थात् स्थापक की मानस-संतान । (Promotion is the brain child of the promoters)
उत्तर :
यह विधान सही है । जब से स्थापकों के मन में कम्पनी की स्थापना का विचार आये तब से वैचारिक दृष्टि से कम्पनी का जन्म हो गया ऐसा कहेंगे । स्थापक अपनी कल्पना-शक्ति, धन्धाकीय सूझ और योग्यता के द्वारा नये धंधे की खोज करके, उसकी जाँच करके, आवश्यक पूँजी साधन-सामग्री और मानव-शक्ति एकत्र करके धंधे की स्थापना करते हैं । इसलिए ऐसा कहा जाता है कि कम्पनी की स्थापना अर्थात् स्थापक की मानस-संतान ।

प्रश्न 4.
आवेदन-पत्र कम्पनी का अपरिवर्तनीय (अफर) अथवा मूलभूत दस्तावेज है । कथन समझाइए ।
अथवा
आवेदन-पत्र में परिवर्तन करना कठिन और जटिल है । समझाइए ।
उत्तर :
आवेदन-पत्र कम्पनी का आधारभूत और महत्त्व का दस्तावेज है । यह कम्पनी का संविधान है । उसके द्वारा कम्पनी कौनसे कार्य करेगी, कम्पनी के संचालक किस स्थान पर मिलेंगे, कम्पनी की कुल पूंजी कितनी है और किस प्रकार के शेयरों में बँटी हुई है, कम्पनी के सदस्यों की जिम्मेदारी कितनी है वगैरह महत्त्व की बातों की जानकारी मिल सकती है । यदि इसमें स्वेच्छा से परिवर्तन किया जाये तो कम्पनी के शेयरधारक, लेनदार और आम जनता के हितों का रक्षण नहीं हो सकता । इसलिए आवेदन-पत्र में सरलता से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है । उसे देश के संविधान जैसा कठिन और जटिल बनाया गया है । उसमें परिवर्तन करने के लिए कानून के अनुसार लंबी और जटिल विधि का पालन करना पड़ता है । इसलिए कह सकते हैं कि आवेदन-पत्र कम्पनी का अफर दस्तावेज है अर्थात् जिसमें परिवर्तन का अवकाश नहीं है ।

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प्रश्न 5.
कम्पनी की कार्यकारी पहचान आवेदन-पत्र द्वारा होती है ।
उत्तर :
यह विधान सही है । आवेदन-पत्र कम्पनी का मूलभूत दस्तावेज है, बाह्य दस्तावेज है जिसके द्वारा कम्पनी के बारे में संपूर्ण ख्याल आता है । कम्पनी कौन-से कार्य करेगी, किस स्थान पर उसके सभी दस्तावेज प्राप्त होंगे और संचालक मिलेंगे, कितनी पूंजी से धंधा करेगी, सदस्यों की जिम्मेदारी कैसी है वगैरह महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । इसलिए कहा जाता है कि कम्पनी की कार्यकारी पहचान आवेदन-पत्र द्वारा होती है ।

प्रश्न 6.
विज्ञापन-पत्र दर्पण (शीशे) जैसा स्वच्छ और पानी जैसा पारदर्शक होना चाहिए ।
उत्तर :
विज्ञापन-पत्र कम्पनी का प्रतिबिम्ब दर्शानवाले शीशे की तरह है । विज्ञापन-पत्र को पढ़कर विनियोग कर्ता कम्पनी में पंजी लगाने या न लगाने का निर्णय लेते हैं । विज्ञापन-पत्र में दर्शायी जानेवाली जानकारी गलत या वास्तविकता से परे नहीं होनी चाहिए । विज्ञापनपत्र में कम्पनी का भावि चेहरा कैसा होगा यह दर्शाया जाता है । विज्ञापन-पत्र द्वारा जनता में भ्रम पैदा करे, गलत राह दिखाये, असत्य या अर्धसत्य विवरण दर्शाकर ललचाने का या ठगने का प्रयास किया जाए यह अनुचित है । आम जनता को विज्ञापन-पत्र के द्वारा अपनी पूंजी की सुरक्षा, भविष्य में मिलनेवाले प्रतिफल की दर, विनियोग मूल्य में होनेवाली वृद्धि वगैरह की जानकारी मिल सकती है । इसलिए कहा जाता है कि विज्ञापन-पत्र आम जनता के साथ विश्वासपात्र वर्ताव प्रस्तुत करनेवाला दर्पण जैसा स्वच्छ और पानी जैसा पारदर्शक अत्यन्त महत्त्व का दस्तावेज है ।

प्रश्न 7.
आवेदन-पत्र और नियमन-पत्र परस्पर पूरक हैं ।
उत्तर :
यह विधान सही है । आवेदन-पत्र कम्पनी का संविधान और कार्यक्षेत्र निश्चित करता है । जबकि नियमन-पत्र इस संविधान और कार्यक्षेत्र की मर्यादा में रहकर कम्पनी की आंतरिक प्रबंध-व्यवस्था के नियम निर्धारित करता है । आवेदन-पत्र से कम्पनी के उद्देश्य तथा उसे सिद्ध करने के लिए कौन-सी प्रवृत्तियाँ होंगी यह निश्चित किया जाता है । जबकि नियमन-पत्र द्वारा इन प्रवृत्तियों को कैसे अमल में रखा जायेगा यह निश्चित किया जाता है । इसलिए आवेदन-पत्र और नियमन-पत्र परस्पर पूरक हैं ।

प्रश्न 8.
विज्ञापन-पत्र एक जाहिर खबर (विज्ञापन) है ।
उत्तर :
विज्ञापन-पत्र कोई जाहिर खबर नहीं है ।
निम्नलिखित विवरण के आधार पर यह स्पष्ट होता है ।
(अ) विज्ञापन किसी भी स्वरुप में हो सकता है जबकि विज्ञापन-पत्र कम्पनी कानून के अनुसार तैयार किया जाता है और यह मुख्यतः
पुस्तिका स्वरूप में होता है ।
(ब) विज्ञापन में हम चाहे जो विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं जबकि विज्ञापन-पत्र में कम्पनी-कानून की व्यवस्था के अनुसार विवरण प्रस्तुत किया जाता है ।
(क) विज्ञापन में कितनी बार बढ़ा-चढ़ाकर वास्तविकता से हटकर विवरण प्रस्तुत किया जाता है जबकि विज्ञापन-पत्र में वास्तविकता
से हटकर विवरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं ।

विज्ञापन-पत्र में महत्त्व के मुद्दों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं परन्तु उसके कारण वह विज्ञापन नहीं बनता है । आम जनता गलत निष्कर्ष न निकाले इसके लिए विज्ञापन में ऐसा स्पष्ट लिखा जाता है कि “यह विज्ञापन है विज्ञापन-पत्र नहीं” ।

प्रश्न 9.
प्रवर्तक आर्थिक जगत के फरिश्ते हैं ।
उत्तर :
प्रवर्तक (Promoter) का कम्पनी की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना की पूर्व तैयारी से लगाकर कम्पनी का पंजीयन (रजिस्ट्रेशन) हो तब तक की विधि अपने नाम से करता है, इस हेतु पूर्व-तैयारी, जाँच-पड़ताल, विशेषज्ञों से सलाह, धन्धे का प्रकार, लाभ की संभावना, धन्धे का स्थल, आवश्यक पूँजी, पूँजी के प्राप्ति-स्थान इत्यादि पर विचार करता है । इस हेतु आवश्यक सामग्री, जमीन, मकान, यंत्र-सामग्री, कच्चा माल, औजार, मजदूर इत्यादि प्राप्त करते हैं । आवश्यक दस्तावेज निष्णातों से तैयार करवाते हैं व कम्पनी का पंजीयन करवाते हैं । ये सब निजी जिम्मेदारी स्वीकार करके करते हैं । इस प्रकार प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है, इसलिए प्रवर्तक आर्थिक जगत के फरिश्ते माने जाते हैं ।

10. नीचे दिए गये ‘अ’ विभाग के विवरण को विभाग ‘ब’ के विवरण के साथ जोड़िए :

विभाग ‘अ’ विभाग ‘ब’
1. नियमन-पत्र 1. कंपनी के प्रबंध-व्यवस्था के नियम
2. आवेदन-पत्र 2. कंपनी का संविधान
3. विज्ञापन-पत्र 3. शेयर खरीदने का आमंत्रण
4. पंजीयन का प्रमाण पत्र 4. कंपनी को अस्तित्व में लाता है ।

उत्तर :

विभाग ‘अ’ विभाग ‘ब’
1. नियमन-पत्र 1. कंपनी के प्रबंध-व्यवस्था के नियम
2. आवेदन-पत्र 2. कंपनी का संविधान
3. विज्ञापन-पत्र 3. शेयर खरीदने का आमंत्रण
4. पंजीयन का प्रमाण पत्र 4. कंपनी को अस्तित्व में लाता है ।

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11. निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए ।

(1) सहकारी मंडली की स्थापना कम से कम ……………………… सदस्यों से हो सकती है ।
उत्तर :
10

(2) ………………………… बैंक किसानों को दीर्घकालीन ऋण देती है ।
उत्तर :
लैंड मार्टगेट बैंक

(3) सहकारी मंडली का सदस्यपद ………………… है ।
उत्तर :
स्वैच्छिक

(4) सहकारी मंडली में पूँजी को नहीं, परंतु ………………………. को महत्त्व दिया जाता है ।
उत्तर :
व्यक्ति

(5) सहकारी मंडली का संचालन ज्यादातर …………………….. कार्यकरों के द्वारा होता है ।
उत्तर :
मानद

(6) प्रथम सहकारी दुकान इंग्लैंड में ………………………. गाँव में ई. सन् 1844 में शुरू हुई ।
उत्तर :
रोशडेल

(7) गुजरात में ………………………. कानून के तहत सहकारी समिति का पंजीकरण किया जाता है ।
उत्तर :
गुजरात राज्य सहकारी मंडली अधिनियम

(8) सहकारी समिति के सदस्यों की जिम्मेदारी’. ……………….. है ।
उत्तर :
सीमित

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12. निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(1) सार्वजनिक कंपनी में कम से कम ………………. सदस्य होते हैं ।
उत्तर :
7

(2) कंपनी की पूँजी छोटी रकम की ……………… से बनी हुई है ।
उत्तर :
शेयरों

(3) ………………………. कंपनी में कम से कम 51% शेयर सरकार रखती है ।
उत्तर :
सरकारी

(4) दूसरी कंपनियों के 50% से अधिक शेयर या मताधिकार रखनेवाली कंपनी को …………………… कहते हैं ।
उत्तर :
होल्डिंग

(5) निजी कंपनी में कम से कम ………………….
उत्तर :
बहुराष्ट्रीय

(6) और अधिक से अधिक …………………. सदस्य होते हैं ।
उत्तर :
2, 50

(7) निजी कम्पनी की स्थापना विधि ………………………. है ।
उत्तर :
सरल

(8) सार्वजनिक कंपनी खुद के शेयर खरीदने के लिये ………………………… द्वारा निमंत्रण देती है ।
उत्तर :
विज्ञापनपत्र

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(9) कंपनी अपनी स्वीकृति …………………….. द्वारा प्रदर्शित करती है ।
उत्तर :
सार्वमुद्रा

(10) कंपनी का पंजीकरण भारत में ………………………. के नीचे होता है ।
उत्तर :
1956 के कंपनी-कानून

(11) कंपनी का संचालन ………………………. के द्वारा होता है ।
उत्तर :
बोर्ड ऑफ डिरेक्टर्स (संचालक-मंडल)

(12) ……………………… कंपनी ………………………. कंपनी के संचालन पर काबू रखती है ।
उत्तर :
होल्डिंग, गौण

(13) सामान्य रूप से धन्धाकीय कंपनियों के सदस्यों का दायित्व ……………………. होता है ।
उत्तर :
सीमित

(14) कंपनी में प्रति …………………. मताधिकार होता है ।
उत्तर :
शेयर

(15) ………………………….. कंपनी में शेयर का परिवर्तन आसानी से हो सकता है ।
उत्तर :
सार्वजनिक

(16) ई. सन् 1600 में भारत में स्थापित …………………….. कंपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी थी ।
उत्तर :
ईस्ट इंडिया ।

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13. निम्न संक्षिप्त रूपों के विस्तृत रूप लिखिए ।

1. M.A. = Memorandum of Association
2. A.A. = Articles of Association
3. FEMA = Foreign Exchange Management Act
4. M.S. = Minimum Subscription SEBI
5. SEBI = Security Exchange Board of India
6. P.C.O. = Public Call Office
7. STD = Subscriber Trunk Dialling
8. ISD = International Subscriber Dialling
9. IIT = Indian Institute of Technology
10. ISI = Indian Standard Institute

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11. ICWA = Institute of Cost and Work Account
12. IMF = International Monetary Fund
13. H.L.L. = Hindustan Lever Limited
14. A/C = Account
15. A.C.C. Associated Cement Company
16. B.B.A. Bachlor of Business Administration
17. MBA = Master of Business Administration
18. B/f = Brought Forward
19. C/f = Carry Forward
20. CFA Chartered Financial Analysis

21. CEO = Chief Executive Officer
22. CS = Company Secretary
23. EMS = Express Mail Service
24. EPS = Earning Per Share
25. GP = Gross Profit
26. IIM = Indian Institute of Management
27. N/P = Net Profit
28. IFFCO = Indian Farmers Fertilizers Co-operative Limited
29. BHEL = Bharat Heavy Electricals Limited
30. HMT = Hindustan Machine Tools Limited

31. BEL = Bharat Electricals Limited
32. STC = State Trading Corporation
33. KRIBHCO = Krishak Bharati Co-operative Limited
34. AMUL = Anand Milk Union Limited
35. SUMUL = Surat Milk Union Limited

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