GSEB Class 11 Hindi Rachana पद्यांशों का स्पष्टीकरण

Gujarat Board GSEB Hindi Textbook Std 11 Solutions Rachana पद्यांशों का स्पष्टीकरण Questions and Answers, Notes Pdf.

GSEB Std 11 Hindi Rachana पद्यांशों का स्पष्टीकरण

निम्नलिखित प्रत्येक पद्यांश का भावार्थ स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।।
उत्तर :
साधु का स्वभाव सूप के समान होना चाहिए। सूप अच्छे अनाज को अपने पास रख लेता है और कचरे को बाहर फेंक देता है। उसी प्रकार साधु पुरुष को अच्छी बातें ग्रहण करके व्यर्थ बातें छोड़ देनी चाहिए।

साधु का अर्थ है विवेकी पुरुष। संसार में तरह-तरह की वस्तुएँ हैं। उसमें कौन-सी वस्तु अपने काम की है, अच्छी है। इसका ज्ञान होना आवश्यक है। यह ज्ञान विवेक से ही होता है। विवेकी व्यक्ति अच्छे-बुरे की पहचान कर लेता है। उपयोगी और अनुपयोगी वस्तु का पता भी उसे लग जाता है। किसे अपनाया जाए और किसे छोड़ा जाए, इसका ज्ञान भी उसे हो जाता है। जीवन को सफल और सार्थक करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी विवेक बुद्धि होनी चाहिए।

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प्रश्न 2.
मेरे पैर डगमगाए, किन्तु फिर भी चल रहा हूँ,
चला रहा हूँ क्योंकि मैने विधि को न रुकते देखा।
उत्तर :
कवि कहता है कि जीवन के कठिन मार्ग पर चलते-चलते मैं इतना थक गया कि मेरे पैर डगमगाने लगे। फिर भी विधाता की गति देखकर मैंने चलना जारी रखा है। मनुष्य के जीवन में कई बार बड़ी विषम परिस्थितियाँ आ जाती है। यह जीवन-पथ बड़ा दुर्गम बन जाता है। प्रतिकूलताएं इतनी बढ़ जाती हैं कि उनका सामना करना कठिन हो जाता है। निराशा इस कदर घेर लेती है कि जीने की इच्छा ही नहीं रहती।

ऐसी स्थिति में मनुष्य को विधि के विधान को समझना चाहिए। विधाता का कार्य कभी रुकता – नहीं अर्थात् समय कभी एक-सा नहीं रहता। वह हमेशा बदलता रहता है। इसलिए यदि आज समय प्रतिकूल है तो कल अनुकूल हो सकता है। आज का पतझड़ कल बहार में बदल सकता है। इस तरह बुरी से बुरे परिस्थिति में भी व्यक्ति का आत्मविश्वास नहीं डगमगाना चाहिए। उसे हेमेशा आशावान बने रहना चाहिए। विधि के विधान पर आस्था रखनेवाला व्यक्ति कभी जीने का हौसला नहीं खोता। जीवन-पथ पर उसके कदम भले डगमगाने लगें, फिर भी वह चलना नहीं छोड़ता।

प्रश्न 3.
भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
उत्तर :
प्रनित पंक्तियों में कवि ने स्वदेश के प्रति प्रेम को सच्चे मनुष्य का लक्षण बताया है। कवि मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में अपनी मातृभूमि के प्रति – गहरा अनुराग होना चाहिए। राष्ट्रप्रेम की प्रबल भावना केवल सहृदय व्यक्ति में ही हो सकती है। कुछ लोग बहुत संकुचित दिल-दिमाग के होते हैं। स्वार्थ की प्रबल भावना उनके हृदय को शुष्क और कठोर बना देती है।

उनके भावनाशून्य हृदय अपने देशवासियों के प्रति संवेदनारहित होते हैं। उनके हृदय में राष्ट्रप्रेम के बीज कभी अंकुरित ही नहीं होते। देशप्रेम की कविताएँ कभी उनके दिल को नहीं छूतीं। कवि कहता है कि ऐसे लोगों के नीरस हृदय को हृदय कहना ही व्यर्थ है। उसे तो पत्थर है ही कहना चाहिए। ऐसे पत्थर दिलवाले व्यक्ति कभी अपनी मातृभूमि 8 के सपूत नहीं कहला सकते।

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प्रश्न 4.
जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोव तू फूल।
तोहिं फूल के फूल हैं, बाको हैं तिरसूल ।।
उत्तर :
यदि कोई तुम्हारे रास्ते में काँटे बोए, तो भी तुम उसके रास्ते में फूल ही बिछाओ। तुम्हें अपने फूलों के बदले फूल ही मिलेंगे, जबकि वह अपने काँटों के बदले त्रिशूल पाएगा। कहावत है कि जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। जो दूसरों की भलाई करता है, उसका भला होता है और जो बुराई करता है, उसका बुरा होता है। इसलिए हमें सदा उपकार ही करना चाहिए। हमारे किए हुए उपकारों का हमें अच्छा फल ही मिलेगा।

प्रश्न 5.
वृक्ष कबहुँ नहिं भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
उत्तर :
प्रस्तुत दोहे में परमार्थ की महिमा बताई गई है। परमार्थ की प्रेरणा हमें प्रकृति से मिलती है। प्रकृति के सभी रूप परोपकार में लगे रहते हैं। उन्हें अपनी नहीं, सदा दूसरों की ही चिन्ता रहती है। वृक्ष फलों से लदे रहते हैं, पर वे अपने फल स्वयं कभी नहीं खाते। सच तो यह है कि वे फलते ही दूसरों को खिलाने के लिए हैं। इसी तरह नदी हमेशा बहती रहती है।

मनुष्य, पशु, पक्षी उसका जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं, परंतु नदी अपना पानी खुद कभी नहीं पीती। कवि कहता है कि वृक्ष और नदी की तरह साधु पुरुष भी अपना जीवन दूसरों की भलाई में लगा देते हैं। परोपकार में ही वे अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। उनका जन्म ही परोपकार के लिए होता है। सचमुच, वे पुरुष धन्य हैं जिन्होंने परमार्थ को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है।

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प्रश्न 6.
नीच निचाई नहिं तजै, सज्जन हू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु विष भए न भुजंग।
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक मूल स्वभाव होता है। वह कहीं भी रहे, अपने उस स्वभाव का परिचय दिए बिना नहीं रहता। दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता कभी नहीं छोड़ सकता। वह सज्जन के साथ रहे तो भी सज्जन नहीं बन सकता। वन में विषधारी साँप चंदन के वृक्ष से लिपटे रहते हैं, फिर भी वे अपने विष का त्याग नहीं करते।

साधारणतः माना जाता है कि संग का असर पड़ता है, परंतु यह संपूर्ण सत्य नहीं है। दुष्ट, झूठे, बेईमान और चोर व्यक्ति सत्पुरुषों के साथ रहकर भी अपने दुर्गुण से छुटकारा नहीं पाते। इसलिए चोर को पुजारी बना दिया तो मंदिर में भी वह चोरी करना नहीं भूलेगा!

प्रश्न 7.
जो जल बादै नाव में, घर में बाढ़ दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यदि सज्जन को काम ।।
उत्तर :
जब नाव में पानी भर जाता है, तब नाव के डूबने की नौबत आ जाती है। उस स्थिति में उचित यही है कि नाव में से पानी को उलीचकर बाहर निकाल दिया जाए। नाव को और उसमें बैठे हुए लोगों को बचाने का यही एक उपाय है। इसी प्रकार घर में संपत्ति का अधिक बढ़ना अच्छा नहीं है। संपत्ति के कारण परिवार में कलह होता है।

परिवार के लोग कई तरह के व्यसनों के शिकार हो जाते हैं और उनके जीवन में कई तरह की बुराइयाँ आ जाती है। इनके कारण परिवार धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। इसलिए जब घर में संपत्ति अधिक हो जाए तो उसका सदुपयोग करना चाहिए। उसे लोक-कल्याण के कामों में लगाना चाहिए। सदुपयोग से ही धन की शोभा बढ़ती है और घर के वातावरण में सुख-शान्ति रहती है। इस प्रकार संपत्ति के सागर में घर की नाव को डूबने से बचाने के लिए उसे परोपकार में लगाने में बुद्धिमानी है।

प्रश्न 8.
ऊँचे बैठे ना लहैं, गुन बिनु बड़पन कोड़।
बैठो देवल शिखर पर, बायस गरुड़ न होइ।।
उत्तर :
इसमें संदेह नहीं कि ऊंचे पद का अपना महत्त्व है। राजा, मंत्री, बड़े अधिकारी आदि का सम्मान उनके पद के कारण ही होता है। परंतु केवल ऊंचा पद पाकर ही कोई सच्चा सम्मान नहीं पा सकता! लोग पद की अपेक्षा गुणों को ही अधिक महत्त्व देते हैं। गुणहीन व्यक्ति ऊँचे पद पर विराजमान हो तो भी वह कभी लोकप्रिय नहीं हो सकता।

कौआ यदि मंदिर के कंगूरे पर बैठा हो, तो भी वह विष्णु-वाहन गरुड़ की तरह सम्मान नहीं पा सकता! गांधीजी के पास कोई पद नहीं था, फिर भी भारत की कोटि-कोटि जनता उन्हें ‘बापू’ कहकर पुकारती है और राष्ट्रपिता का आदर देती है। इसलिए ऊँचे पद की अपेक्षा व्यक्ति के गुण ही उसे सच्ची लोक चाहना दिलाते हैं।

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प्रश्न 9.
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।
उत्तर :
इस दोहे में कवि रहीम ने उन छोटों का महत्त्व बताया है जो अपने गुण और स्वभाव से बड़ों की अपेक्षा अधिक प्रशंसनीय हैं। रहीम कहते हैं कि कीचड़ का पानी बहुत गंदा होता देखकर लगता नहीं कि वह किसी के लिए उपयोगी हो, पर वावह व्यर्थ नहीं होता। हजारों छोटे-छोटे जीव उसे पीकर अपनी बुझाते हैं और जीवित रहते हैं।

उसकी तुलना में समुद्र की जलरा. दिखती तो बहुत बड़ी है, पर वह किसी के पीने लायक नहीं होती कोई प्राणी सागर का पानी पीकर अपनी तृषा शान्त नहीं कर सकता। इसलिए जहाँ प्यास बुझाने का प्रश्न है, वहाँ सागर का पानी किसी काम का नहीं है। संसार उसके किनारे से प्यासा ही लौटता है। उसकी अपेक्षा कीचड़ का जल लाख गुना अच्छा है। इसलिए वस्तु का मूल्यांकन उसके आकार-प्रकार के आधार पर नहीं, उसकी उपयोगिता के आधार पर ही करना चाहिए।

प्रश्न 10.
फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना,
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज्यादा।।
उत्तर :
फरिश्ते महान होते हैं। वे देवतुल्य माने जाते हैं। देवताओं की तरह फरिश्तों के प्रति भी श्रद्धा-भक्ति प्रकट की जाती है। लेकिन हर आदमी फरिश्ता नहीं बन सकता। हर आदमी को फरिश्ता बनने की जरूरत भी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि आदमी एक अच्छा इन्सान बने। वास्तव में इन्सान बनना आसान नहीं है। इन्सान बनने के लिए काफी सहनशक्ति चाहिए। सच्चरित्रता, प्रामाणिकता, त्याग और बलिदान जैसे गुणों को अपनाए बिना कोई व्यक्ति इन्सान नहीं बन सकता। इन गुणों को अपनाना कोई मामूली बात नहीं है। सचमुच, इन्सान बनना फरिश्ता बनने से अधिक कठिन है।

प्रश्न 11.
अति परचै तै होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयगिरि की भीलनी चंदन देत जराय।।
उत्तर :
चंदन एक बहुमूल्य लकड़ी है। चंदन के वृक्ष मलयगिरि पर होते हैं। इस पवित्र लकड़ी को लोग महंगे दामों में खरीदते हैं। परन्तु मलयगिरि पर रहनेवाली भीलनी के लिए तो वह एक मामूली लकड़ी है! वह उसे ईंधन के रूप में जलाती है। इसका कारण यह है कि जहाँ चंदन के वृक्ष हैं, वहीं वह रहती है।

इसलिए चंदन से उसके अति परिचय ने चंदन के प्रति उसके मन में आदर और प्रेम नहीं रहने दिया है। इसी प्रकार किसी से भी परिचय की अधिकता अच्छी नहीं है। इससे परस्पर का आदरभाव कम हो जाता है। रोज मिलनेवाले व्यक्ति के प्रति कभी-कभी अरुचि भी होती है। इस प्रकार यदि हम अपना आदर-मान बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें लोगों के साथ अति परिचय रखने से बचना चाहिए।’

प्रश्न 12.
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकल कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
उत्तर :
रहीमजी कहते हैं कि बुरी संगति उत्तम ‘स्वभाववाले व्यक्ति का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। चंदन के पेड़ पर ‘साँप लिपटे रहते हैं, फिर भी चंदन वृक्ष पर उनके विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसमें संदेह नहीं कि अच्छाई में अद्भुत शक्ति होती है। गुलाब का फूल काँटों में पलता और खिलता है, पर उसमें काँटों की चुभन नहीं होती, सुगंध और मनमोहक सुन्दरता होती है।

कमल का फूल भी कीचड़ में खिलता है, पर उसकी स्वच्छ और सुन्दर पंखुड़ियों की छबि पर कीचड़ का कोई असर नहीं होता। रावण की लंका में रहकर भी विभीषण का स्वभाव राक्षसों जैसा नहीं था। इस तरह यदि हम अच्छे हैं, तो बुरे लोगों के बीच रहकर भी अच्छे ही रहेंगे।

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प्रश्न 13.
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर ।
ते ते पांव पसारिये, जेती लांबी सौर ।।
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता की एक सीमा होती है। व्यक्ति , को अपनी क्षमता की सीमा को समझकर ही काम करना चाहिए। अपनी शक्ति से अधिक काम करने का परिणाम अच्छा नहीं होता। पैर उतने ही फैलाने चाहिए, जितनी चादर की लम्बाई हो। चादर की लम्बाई से अधिक पैर फैलाने पर या तो. चादर फट जाएगी या पैर चादर के बाहर रहेंगे। इसी तरह हमें उतना ही काम करना चाहिए जितनी हममें शक्ति या योग्यता हो। जिस तरह चादर की लम्बाई से अधिक पैर फैलाना मूर्खता है, उसी तरह अपनी सामर्थ्य का विचार किए बिना किसी कार्य में लग जाना भी सरासर नादानी है। ऐसी नादानी बाद में पश्चात्ताप का कारण बनती है।

प्रश्न 14.
श्रम जीवन का सार है, श्रम मानव का हार।
श्रम करना है गुण महा, श्रम सच्चा व्यवहार ।।
उत्तर :
इन पंक्तियों में श्रम की महिमा रेखांकित की गई है। जीवन में श्रम का बड़ा महत्त्व है। श्रम ही जीवन का आधार है। मनुष्य बड़े-बड़े सपने भले देख ले, परंतु वह उनकी पूर्ति श्रम के बल पर ही कर सकता है। श्रम करके ही किसान अन्न पैदा करता है। श्रम करके ही मजदूर तरह-तरह की वस्तुएं बनाता है। श्रम के द्वारा ही गृहस्थ अपने परिवार का पालन करता है।

जो विद्यार्थी लगन से पढ़ते हैं, वे ही सुनहरी सफलता प्राप्त करते हैं और भविष्य में कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, नेता या व्यापारी बनते हैं। इसीलिए कवि ने श्रम को जीवन का सार कहा है क्योंकि श्रम के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं है। श्रम से ही मनुष्य की शोभा बढ़ती है, उसका सम्मान होता है। इसमें संदेह नहीं कि श्रम ही मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। श्रम करनेवाला मनुष्य ही व्यवहार में ईमानदार होता है। झूठ और बेईमानी का सहारा आलसी लोग ही लेते हैं। श्रम से बचने के लिए वे तरहतरह की बहानेबाजी करते हैं। . सचमुच, श्रम के पौधे पर ही जीवन को सफल करनेवाले सुगंधित फूल खिलते हैं।

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प्रश्न 15.
बुरे लगत सिख के वचन, हिए बिचारौ आप।
करवे भेषज बिन पिये, मिटै न तन को ताप ।।
उत्तर :
ऐसे बहुत कम लोग हैं, जिन्हें दूसरों की सीख अच्छी लगती है। छोटों से गलती होती है तो बड़े उन्हें टोकते हैं और वैसी गलती फिर न करने के लिए समझाते हैं। वे छोटों के आलस्य, लापरवाही, अधीरता आदि दोषों को दूर करने के लिए उन्हें तरह-तरह की शिक्षा देते हैं, पर छोटों को उनकी सीख ज़हर जैसी लगती है। वे बड़ों की शिक्षापूर्ण बातें सुनना भी पसंद नहीं करते। उन्हें यह पता नहीं कि बिना कड़वी दवा पिए शरीर का ताप दूर नहीं होता। बड़ों की शिक्षापूर्ण बातें भी कड़वी दवा जैसी होती हैं। वे सुनने में भले बुरी लगें, पर उनको मानने से कल्याण ही होता है। इसलिए हमें अपने से बड़ों के उपदेशों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 16.
अपनी सीमाओं में रहकर जीना सीखो,
क्यों विष पी रहे हो, अमृत पीना सीखो।
उत्तर :
आज मनुष्य का हृदय असंतोष से भरा हुआ है। जितना भी मिलता है, उसे कम ही लगता है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह अनीति का आचरण करने में भी नहीं हिचकिचाता। ऐसे मनुष्य से कवि कहता है कि तुम मनुष्य हो। इसलिए मनुष्यता के दायरे में रहकर ही तुम्हें जीना चाहिए। प्रेम, मैत्री, सद्भाव, भाईचारा, करुणा आदि मानवता के रूप हैं। इन्हीं में जीवन का अमृत समाया हुआ है।

इनको जीवन में उतारने से ही तुम्हें सुख-शांति का अनुभव हो सकता है। अन्याय, शोषण, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष आदि वृत्तियाँ तो विष के रूप हैं। इनसे जीवन में अशांति ही मिलती है। ये दूषित भाव ही जीवन में दुःख के कारण बनते हैं। ये दानवीय वृत्तियाँ समाज में दारुण विषमता लाती हैं। इसलिए मानव होकर तुम दानव बनने की कोशिश मत करो। मानवता की राह पर चलकर ही तुम आनंद, उल्लास और सम्मानपूर्ण जीवन जी सकते हो।

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प्रश्न 17.
जो जाको गुन जानहीं, सो तेहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है, काग निबौरी लेत ।।
उत्तर :
सब लोग गुणों की परख नहीं कर सकते। सच्चा जौहरी ही हीरे की परख कर सकता है। इसी प्रकार जो जिसका गुण जानता है, वही उसका आदर करता है। कोकिल आम के फल का स्वाद जानती है, इसलिए वह आम के फल खाती है। कौआ आम की महिमा नहीं जानता, इसलिए वह आमों की उपेक्षा करता है। वह आम के बदले नीम का फल अर्थात् निबौरी खाता है।

हमारे समाज में गुणी व्यक्तियों की कमी नहीं है, परंतु उनके गुणों को पहचाननेवाले बहुत कम लोग होते हैं। गुणों की परख न होने के कारण वे गुणी व्यक्ति से दूर भागते हैं और उसकी योग्यता का लाभ नहीं ले पाते। हमारे पास व्यक्ति के गुणों को, उसकी खूबियों को पहचानने की दृष्टि होनी चाहिए। ऐसी दृष्टि होने पर ही हम गुणवान व्यक्ति का सम्मान कर सकते हैं और उसके दुर्लभ गुणों से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं।

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