Gujarat Board GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
GSEB Class 10 Hindi Solutions राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Questions and Answers
प्रश्न-अभ्यास
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न
प्रश्न 1.
परशुराम ने सेवक और शत्रु के विषय में क्या कहा?
उत्तर :
पशुरामजी ने कहा कि सेवक वह होता है जो अपने मालिक की सेवा करके उसे प्रसन्न रखता है। यदि वह दुश्मन की तरह कार्य करके अपने स्वामी के क्रोध को बढ़ाता है तो उसके साथ लड़ाई की जाती है।
प्रश्न 2.
शिव-धनु भंग करनेवाले के विषय में परशुराम ने राम से क्या कहा ?
उत्तर :
परशुराम ने शिव-धनु को भंग करनेवाले के विषय में राम से कहा कि हे राम, जिसने शिव के धनुष को तोड़ा है, वह सहलबाहु के समान मेरा शत्रु है, अत: वह इस राज समाज से अलग हो जाए, वरना सभी राजा मारे जाएंगे।
प्रश्न 3.
श्रीराम द्वारा शिव-धनुष के तोड़े जाने पर लक्ष्मण ने परशुराम से क्या कहा?
उत्तर :
श्रीराम द्वारा शिव के धनुष को तोड़े जाने पर लक्ष्मण ने परशुरामजी से कहा कि मेरे विचार से सभी धनुष एक समान ही होते हैं। यह धनुष तो पुराना-जीर्ण था जो छूते ही टूट गया। इसके टूटने से लाभ-हानि के बारे में क्या सोचना? इसमें राम का कोई दोष नहीं, उन्होंने तो भ्रमवश इसे नया समझा था।
प्रश्न 4.
परशुराम लक्ष्मण से बार-बार अपने फरसे की ओर देखने की बात क्यों करते हैं?
उत्तर :
परशुराम लक्ष्मण को बार-बार अपने फरसे की ओर देखने की बात इसलिए कर रहे हैं ताकि लक्ष्मण को फरसे की कठोरता तथा परशुराम के बल प्रताप का ज्ञान हो जिससे लक्ष्मण भयभीत हो गए और उन्हें अपमानित न करें।
प्रश्न 5.
परशुराम ने लक्ष्मण को बधजोग ( वध के योग्य) क्यों कहा?
उत्तर :
परशुराम के गत में लक्ष्मण कटुवचन बोल रहे हैं, इस कारण वे वध के योग्य है।
प्रश्न 6.
‘कौशिक’ किसे कहा गया है ? परशुराम ने उनसे लक्ष्मण की शिकायत क्यों की?
उत्तर :
कौशिक विश्वामित्र को कहा गया है। लक्ष्मण विश्वामित्र के शिष्य है। विश्वामित्र परशुराम के स्वभाव से भलीभांति परिचित है, इसलिए परशुराम ने लक्ष्मण की शिकायत उनसे की।
प्रश्न 7.
परशुराम ने लक्ष्मण को ‘राकेस कलंक’ क्यों कहा है ?
उत्तर :
लक्ष्मण के कथनों से परशुराम का बढ़ रहा क्रोध लक्ष्मण की मृत्यु का कारण भी बन सकता है। लक्ष्मण की यह धृष्टता सूर्य के समान चमकते उनके वंश के लिए चंद्र के कलंक के समान है।
प्रश्न 8.
परशुराम ने सभा से किस कार्य का दोष उन्हें न देने को कहा ?
उत्तर :
परशुराम का कहना था कि बालक लक्ष्मण अपने कठोर बचनों से उनका क्रोध बढ़ाए जा रहा है। कटुवचन बोलनेवाला बध के योग्य है। अत: अगर मैं इस बालक की हत्या कर दूं तो सभा मुझे दोष न दे।
प्रश्न 9.
आरंभ में परशुराम के क्रोध का मूल कारण क्या था ?
उत्तर :
आरंभ में परशुराम के क्रोध का मूल कारण शिव के धनुष का टूटना था।
प्रश्न 10.
लक्ष्मण ने अपने कुल की क्या परंपरा बतलाई है?
उत्तर :
लक्ष्मण कहते हैं कि हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता, ब्राह्मण, हरि के भक्तों तथा गाय पर पराक्रम नहीं दिखाते।
प्रश्न 11.
लक्ष्मण ने परशुराम के स्वभाव की प्रसिद्धि के विषय में व्यंग्य में क्या कहा ?
उत्तर :
लक्ष्मण परशुराम पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि संसार में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है जो आपके शील-स्वभाव से परिचित न हो। आप गात्ऋण तथा पितृऋण से मुक्त हो चुरो हैं। अब आग गुरु ऋण से मुक्त होने के लिए चिंतित है।
प्रश्न 12.
लक्ष्मण ने परशुराम की गर्वोक्ति का उपहास कैसे किया ?
उत्तर :
लक्ष्मण ने परशुराम की गर्वोक्ति का उपहास करते हुए कहा कि आप अपने आपको महायोद्धा मानकर भयभीत करने हेतु मुझे बार-बार कुठार दिखा रहे हैं । ऐसे लगता है मानो आप फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।
प्रश्न 13.
लक्ष्मण ने परशुराम की कटुवाणी को सहने का क्या कारण बताया ?
उत्तर :
लक्ष्मण कहते हैं कि आपका जनेऊ देखकर भृगवंशी ब्राह्मण समझकर, अपने क्रोध को रोक आपकी बातों को सहन कर रहा हूं क्योंकि हमारे कुल में देवता, ब्राहाण, भगवान के भक्त और गायों पर वीरता प्रदर्शित नहीं की जाती।
प्रश्न 14.
इस संवाद में किस गुरुऋण को चुकाने की बात कही जा रही है ?
उत्तर :
परशुराम के गुरु शिव थे। परशुरामजी ने एकबार शिवजी से गुरुदक्षिणा मांगने को कहा। शिवजी ने उनसे शेषनाग का फन गुरुदक्षिणा में मांगा जो परशुरामजी उस समय नहीं दे सके । लक्ष्मण चूंकि शेष के अवतार माने जाते हैं अत: उनका सिर काट कर उसे दक्षिणा में देकर गुरुऋण से मुक्त होने की बात कही गई है।
प्रश्न 15.
लक्ष्मण के किस कथन से उनकी निडरता का परिचय मिलता है?
उत्तर :
गुस्से में परशुराम लक्ष्मण को बार-बार काल का भय दिखाकर मरने से डरा रहे थे। इस बात पर लक्ष्मण ने परशुराम से कहा ऐसा लगता है आप काल को मेरे लिए बुलाकर लाए हैं। इसमें लक्ष्मण की निडरता दिखलाई देती है।
सविस्तार उत्तर दीजिए
प्रश्न 1.
कविता के आधार पर लक्ष्मण की स्वभावगत विशेषताएं लिखिए :
उत्तर :
(क) लक्ष्मण का स्वभाव तर्कशील है। (ख) उनमें वाक्पटुता कूट-कूटकर भरी हुई है। (ग) वे प्रत्युत्पन्नमति है। (घ) वे वीर किन्तु क्रोधी स्वभाव के हैं। (ड) वे बुद्धिमान तथा व्यंग्य करने में निपुण है। (च) लक्ष्मण एकदम निडर है। (छ) वे एक पल परशुराम को शांत करते दिखते हैं तो दूसरे पल उन्हें उकसा देते हैं।
प्रश्न 2.
कविता के आधार पर परशुरामजी की स्वभावगत विशेषताएं बताइए।
उत्तर :
परशुराम के स्वभाव की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-(क) वे शिवजी के परमभक्त हैं, जो शिवजी का अपमान सहन नहीं कर सकते हैं। (ख) वे अत्यंत क्रोधी तथा बालब्रहाचारी है। (ग) वे साहसी, वीर, क्रोधी तथा आत्म प्रशंसा करनेवाले है। (घ) वे क्षत्रियों के घोर दुश्मन हैं। (ड) वे बालकों का वध न करने की बात कहकर मर्यादावादी लगते हैं। (च) वे महावीर, विजेता तथा दानी हैं। (छ) वे अहंकारी तथा कटुभाषी है।
प्रश्न 3.
लक्ष्मण ने शिव-धनुष के टूटने के कौन-कौन से तर्क दिए हैं ?
उत्तर :
परशुराम के क्रोधित होने लक्ष्मण ने शिवधनुष के टूटने के निम्नलिखित तर्क दिए – (क) धनुष बहुत पुराना तथा जीर्ण था। (ख) राम ने तो उसे नया समझकर हाथ लगाया था किन्तु वह तो छूते ही टूट गया। (ग) लक्ष्मण की दृष्टि में सभी धनुष एकसमान होते हैं। (घ) ऐसे पुराने धनुष के टूट जाने पर किसी तरह के लाभ-हानि की चिंता करना निरर्थक है।
प्रश्न 4.
परशुराम के क्रोध की प्रतिक्रिया के आधार पर श्रीराम की चारित्रिक विशेषताएं बताइए।
उत्तर :
परशुरामजी के क्रोध की प्रतिक्रिया के रूप में श्रीराम के उद्गारों से उनके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएं प्रकट होती है – (क) राम स्वभाव से अत्यंत विनम्र हैं। (ख) वे मृदुभाषी है। (ग) वे धीर-गंभीर हैं। (घ) राम निडर, साहसी हैं। (ड) वे आज्ञाकारी तथा आज्ञापालक है। (ङ) वे बिगड़ी बात को भी संभाल सकने में समर्थ हैं।
प्रश्न 5.
काव्य में लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएं बताई हैं?
उत्तर :
लक्ष्मण ने वीर योद्धा को निम्नलिखित विशेषताएं बताई है-(क) वीर योद्धा रणक्षेत्र में शत्रु के समक्ष अपना पराक्रम दिखाते हैं। (ख) वे शत्रु के सम्मुख अपनी वीरता का बखान नहीं करते। (ग) वे शांत, विनम्र तथा धैर्यवान होते हैं । (घ) वे देवता, ब्राह्मण, हरिभक्तों तथा गाय पर अपनी वीरता नहीं दिखलाते । (ङ) वीर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते । (च) वे क्षोभरहित होते हैं।
प्रश्न 6.
इस कविता में परशुरामजी ने अपने विषय में क्या-क्या कहा हैं ?
उत्तर :
परशुरामजी ने अपने बारे में निम्नलिखित बातें कही हैं – (क) मैं बाल ब्रह्मचारी और स्वभाव से अत्यंत क्रोधी हूँ। (ख) मैं क्षत्रिय कुल का नाश करनेवाले के रूप में विश्व में प्रसिद्ध हूँ। (ग) मैंने अपनी भुजाओं के बल पर अनेक बार पृथ्वी के राजाओं को पराजित किया है। (घ) अनेक बार राजाओं का वध किया है तथा जीती हुई पृथ्वी को अनेक बार ब्राह्मणों को दान में दिया है। (ङ) मेरा फरसा अत्यंत भयानक है, इससे मैंने सहस्रबाहु की भुजाएं काट दी थीं । (च) मेरा फरसा इतना कठोर है कि यह गर्भ के बालक की भी हत्या कर देता है।
भाव स्पष्ट कीजिए
प्रश्न 1.
इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाही…..
उत्तर :
लक्ष्मण निर्भीकतापूर्वक परशुराम को बता देते हैं उन्हें कोहड़े की बतिया की तरह कोई निर्बल न समझे जो फल तर्जनी दिखाने मात्र से मुरझा जाते
प्रश्न 2.
बिहसि बचन बोले मृदुबानी । अहो मुनीश महाभट मानी।
पुनि पुनि मोहिं देखाव कुठारू । चहत उड़ावन फूकि पहारु ।
उत्तर :
परशुरामजी अपने बारे में बोलते हुए लक्ष्मण को डराने की असफल कोशिश करते हैं, तब लक्ष्मण में मृदुवाणी ने व्यंग्यपूर्वक कहा – “आप तो महान अभिमानी योद्धा हैं । आप बार-बार अपने फरसे का भय दिखाकर मुझे उसी प्रकार डराने का प्रयास कर रहे हैं जैसे कोई फूंक मारकर विशाल पर्वत को उड़ा देना चाहता हो।”
प्रश्न 3.
गाविसुत कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।
अयमय खांड् न ऊखमय अजहुँ न बूड़ा अबूझ ।।
उत्तर :
परशुराम के वचन सुनकर विश्वामित्रजी मन ही मन हँसते हुए कहने लगे कि अब तक अनेक क्षत्रियों को पराजित करने कारण मुनि को सब एक जैसे ही लग रहे हैं, जैसे सावन के अंधे को सबकुछ हरा-हरा ही दिखता है। वे फौलाद से बनी खांड (खड्ग) को गन्ने से बनी खाँड समझकर नासमझ बने हुए हैं।
प्रश्न 4.
लखन उत्तर आहुति सरिस भृगुवर कोपु कृसानु ।
बढ़ति देख जलसम वचन बोले रघुकुल भानु ।
उत्तर :
तुलसीदासजी कहते हैं कि मुगुकुल में श्रेष्ठ परशुरामजी की क्रोधरूपी अग्नि से लक्ष्मण के वचन आहुति के समान हैं। परशुरामजी की कोधाग्नि को बढ़ते देखकर उसे शांत करने के उद्देश्य से रघुवंश के सूर्य श्री रामचंद्रजी ने जल के समान शीतल वचन कहे।
प्रश्न 5.
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रलापु॥
उत्तर :
लक्ष्मणजी परशरामजी से कह रहे हैं कि शूरवीर अपना पराक्रम अपने कार्यों के द्वारा प्रकट करते हैं, बातों से अपनी वीरता नहीं दिखाते। युद्ध क्षेत्र में शत्रु को सामने देखकर कायर ही अपनी वीरता का बखान करते है।
सविस्तार उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1.
साहस और शक्ति के साथ-साथ विनम्रता हो तो बेहतर है- इस कथन पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
साहस तथा शक्ति व्यक्ति के दो उत्तम गुण हैं, इनसे उसके व्यक्तित्व की शोभा बढ़ती है, किन्तु यदि इन दोनों के साथ व्यक्ति में विनम्रता भी हो तो वह और उत्तम बन जाता है। विनम्रता के अकारण होनेवाली अप्रिय घटनाओं, वाद-विवादों को टाला जा सकता है। विनम्रता शत्रु के क्रोध को भी शमित कर देती है। विनम्रता द्वारा व्यक्ति अपने विरोधी के लिए भी सम्माननीय बन सकता है। अत: साहस और शक्ति दो उत्तम गुणों के साथ विनम्रता का भी मेल हो जाए तो व्यक्ति बेहतर बन जाता है।
प्रश्न 2.
परशुराम के चरित्र के विरोधाभास को बताइए।
उत्तर :
लक्ष्मण द्वारा अपना परिहास किए जाने से क्रुद्ध परशुरामजी एक तरफ तो लक्ष्मण को बालक जानकर क्षमा करते हैं, उनका वध नहीं करते। उनके मन में कहीं यह भय है कि बालक का वध करने पर उनकी वीरता कलंकित होगी, लोग उन्हें दोष देंगे किन्तु दूसरी ओर परशुराम स्वयं अपनी आत्मप्रशंसा करते समय इसे भूल जाते हैं और अपने फरसे की कठोरता को लेकर यह कह देते हैं कि यह फरसा गर्भ के बच्चों के प्रति भी दया नहीं दिखलाता, तब उन्हें वीरता कलंकित होती हुई नहीं लगती।
प्रश्न 3.
परशुराम और सहस्रबाहु की कथा संक्षेप में बतलाइए।
उत्तर :
महाभारत के अनुसार पर परशुराम और सहस्त्रबाहु की कथा इस प्रकार है- परशुराम ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे। एक बार राजा कार्तवीर्य सहस्रबाहु शिकार खेलते-खेलते ऋषि जमदग्नि के आश्रम में आ पहुंचा। जमदग्नि के पास ‘कामधेनु’ नामक एक विशिष्ट गाय थी जो मनोरथों को पूर्ण कर ‘ देती थी। सहस्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु की मांग की।
ऋषि द्वारा मना कर दिए जाने पर सहस्रबाहु ने बलपूर्वक कामधेनु का अपहरण किया। इस पर क्रोधित हो परशुराम ने सहस्रबाहु का वध कर दिया । ऋषि ने परशुराम के इस कार्य की निंदा की और उनसे प्रायश्चित करने को कहा। उधर सहस्रबाहु के पुत्रों ने क्रोध में आकर ऋषि जमदग्नि की हत्या कर डाली। इस पर पुन:क्रोधित होकर परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने की प्रतिज्ञा की । क्षत्रियों को अनेक बार हटाकर पृथ्वी को अनेक बार ब्राह्मणों को दान में दिया ।
प्रश्न 4.
धनुष-भंग के पूरे प्रसंग में अभिव्यक्त व्यंग्य के अनूठे सौंदर्य को उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
धनुष-भंग प्रसंग में कहीं लक्ष्मण तथा परशुराम दोनों की वक्रोक्तियों के रूप में तो कहीं प्रयुक्त शब्दों की व्यंजना में व्यंग्य का सौंदर्य दिखाई देता है। आरंभ में ही परशुराम सेवक-शत्रु के भेद को समझाते हुए कहते हैं –
सेवक सो जो करे सेवकाई । अहिकरनी करि अरिअ लराई ॥
बातों के क्रम में जब लक्ष्मण धनुष के बारे में परशुराम से कहते हैं –
का छति लाभु जून धनु तोरे । देखा राम नयन के भोरे ॥
यहाँ उपहास तथा उपेक्षा के रूप में व्यंग्य उभरा है। एक अन्य अवसर पर लक्ष्मण परशुराम को उनकी गर्वोक्ति के कारण दंभी बताते हुए कहते हैं –
‘इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मर जाहीं ॥’
यहाँ लोकविश्वास का उपयोग करके तुलसीदास ने लक्ष्मण की निर्भीकिता को व्यक्त किया है।
एक अन्य अवसर पर लक्ष्मण परशुराम की वीरता की अवमानना निम्नलिखित शब्दों में करते हैं –
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता धरहिं के बाढ़े ॥
ऐसा लगता है कि आपको अभी तक कोई महायोद्धा मिला ही नहीं, आप अपने घर में ही बड़े लगते हो।
इस तरह विविध अवसरों पर व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य विद्यमान है।
प्रश्न 5.
पाठ के आधार पर तुलसीदास के भाषा सौंदर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
कवि के रूप में तुलसीदासजी अवधी तथा ब्रज दोनों भाषाओं के सिद्धहस्त कवि हैं। प्रस्तुत पाठ अवधी में लिखे गए ग्रंथ ‘रामचरित मानस’ से लिया गया है। अवधी के दोनों रूपों पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों का मेल उनकी शैली में दिखलाई देता है’ – ऐसा आचार्य शुक्लजी ने कहा है। उनका काव्य अवधी भाषा के उत्कृष्ट रूप का उदाहरण है।
उनके काव्य में गेयता है जिससे वाचक इसे गाकर भाव-विभोर हो उठता है। शब्दों का नाद- .. सौंदर्य इतना सुखद है कि वह पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है। काव्य में लोक जीवन से जुड़ी हुई लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग से सजीवता आ गई है, जिससे पूरा काव्य प्रवाहमय हो गया है। तुलसी की कविता में अलंकार बिखरे पड़े हैं जो काव्य सौंदर्य में अभिवृद्धि करते हैं।
रस की दृष्टि से यहाँ सर्वत्र वीर रस की अभिव्यक्ति हुई है। तुलसी ने इस अंश में दोहा-चौपाई जैसे सरल तथा बहुप्रचलित छंदों के उपयोग द्वारा काव्य को अधिक लोकभोग्य बनाया है। इसे आसानी से लयबद्ध गाया जा सकता है। भाषा भाव की अनुगामिनी बनकर आई है। बोलचाल के सरल शब्दों के साथ-साथ संस्कृत के तत्सम शब्दों का उपयोग उसकी छटा को द्विगुणित कर देता है।
प्रश्न 6.
नीचे दी गई पंक्तियों में अलंकार को पहचान कर लिखिए
क. बालकु बोलि बधौं नहिं तोही।
उत्तर :
इस पंक्ति में ‘ब’ वर्ण को तीन बार की पुनरावृत्ति से नाद सौंदर्य उत्पन्न होकर पंक्ति को अलंकृत कर रहा है, अत: यहाँ अनुप्रास’ नामक अलंकार
ख. कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा ।
उत्तर :
इस पंक्ति में परशुराम के वचन की (कठोरता की) तुलना करोड़ों वज्र (कोटि कुलिस) के समान कही गई है। यहाँ ‘उपमा’ अलंकार है।
ग. तुम्ह तो कालु हांक जनु लावा ।
बार-बार मोहि लागि बोलावा ॥
उत्तर :
इस पंक्ति में लक्ष्मण का कथन-ऐसा लगता है कि आपने तो मानो मेरे लिए काल काल को हाँका लगाकर लाए हैं, इस तरह मुझे बार-बार बुला रहे हैं। यहाँ ‘जनु’, ‘जैसे’ या ‘मानो’ उत्प्रेक्षालंकार दर्शाता है।
घ. लखन उतर आहुति सरसि भृगुबर कोषु कृसानु ।
बढ़त देख जलसम वचन बोलो रघुकुल भानु ॥
उत्तर :
दोहे में लक्ष्मण को उत्तर रूपी आहुति से परशुराम के क्रोधरूप अग्नि को और अधिक प्रज्ज्वलित होने की कल्पना करने के कारण रूपक अलंकार ।
ङ. अयमय खांड़ न ऊखमय अजहु न बूझ-अबूझ ।
उत्तर :
इस पंक्ति में खाँड़ शब्द द्विअर्थी है। एक अर्थ है खांडा-खड्ग (तलवार) जो अयमय (लौहयुक्त) है और दूसरा अर्थ खांड (गुड़) का है जो ऊखमय
(गन्ने से बनी) है । अत: यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है।
प्रश्न 7.
अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?
उत्तर :
अवधी बोली का मुख्य क्षेत्र अवध आजकल उत्तर प्रदेश में अवध कहलानेवाले क्षेत्र के जिलों – लखनऊ, अयोध्या (फैजाबाद), सुलतानपुर, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, अमेठी तथा जौनपुर मुख्य हैं। भदोही और मिर्जापुर के पश्चिमी भाग में भी अवधी बोली जाती है।
प्रश्न 8.
“सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुंचाए जानेवाले बहुत से कष्टों से चिर निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।” आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए हुए ही नहीं होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तरः
आचार्य शुक्ल ने ‘क्रोध’ निबंध में ऐसे अलंकार से तुलना की है जिसे हमेशा धारण नहीं किया जा सकता। साथ ही ईर्ष्या के कारण और अनायास उत्पन्न होनेवाले क्रोध की निंदा करते हुए उसे नकारने का परामर्श दिया है।
क्रोध के पक्ष में दिए जा सकनेवाले तर्क :
- मूर्ख, जड़ तथा उदंड स्वभाववालों पर विनम्रता का असर नहीं पड़ता, ऐसे लोगों के लिए तो क्रोध अपेक्षित है। क्रोध में भी संयम जरुरी है।
- अपने अधिकारों की रक्षा के लिए क्रोध एक साधन है।
- प्राणी, मनुष्य यहाँ तक कि प्रकृति सभी क्रोध की सहनशीलता जब सीमा लाँघ जाती है, तब वे अपनी क्षमा, दया को छोड़कर क्रोध करते हैं।
क्रोध के विपक्ष में दिए जा सकनेवाले तर्क :
- क्रोध विध्वंसक होता है। अतिशय क्रोध में व्यक्ति का विवेक समाप्त हो जाता है, वह करणीय-अकरणीय का भेद भुलाकर अशोभनीय, असंयमित व्यवहार करता है। निंदा का पात्र बन जाता है।
- दंभ के कारण उत्पन्न क्रोध से मनुष्य के अनेक शत्रु पैदा हो जाते हैं। ऐसा क्रोध पतन-विनाश का कारण बनता है।
- गीता में कोध के प्रभाव से स्मृतिभ्रंश, बुद्धि के नाश और अंतत: पूर्ण विनाश की बात कही गई है।
- क्रोध के कारण मनुष्य दुस्साहस करता है, जो उसके विनाश का कारण बनता है।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Summary in Hindi
कवि-परिचय :
तुलसीदास का जन्म उत्तरप्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गाँव में संवत 1589 (सन् 1532) में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्म स्थान सोरों (जिला – एटा, उ.प्र.) भी मानते हैं। कहा जाता है कि अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्हें बचपन में ही माता पिता के बिछोह को भोगना पड़ा। उनका बचपन अत्यंत संघर्षों में बीता।
गुरु नरहरिदास के यहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। किंवदंती के अनुसार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ने उन्हें ईश्वर भक्ति की ओर उन्मुख किया। मानवीय मूल्यों के उपासक इस समर्थ कवि को गुरुकृपा से रामभक्ति का मार्ग मिला। संवत् 1960 में काशी में अस्सी घाट पर गंगा के तट पर उनका निधन हुआ।
कविता-परिचय :
रामभक्ति परंपरा में तुलसीदास अनन्य हैं। रामचरितमानस कवि की अनन्य रामभक्ति तथा सृजन कौशल का अनुपम उदाहरण है। तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, मानवीय आदर्शों के प्रतीक हैं। उनके माध्यम से तुलसी ने मानवीय संबंधों के आदर्श रूपों का चित्रण किया है। तुलसी के राम दशरथसुत होने के साथ ही अवतारी ईश्वर भी हैं, जिनके माध्यम से तुलसी ने शील, स्नेह, विनय, त्याग, नीति जैसे उदात्त आदर्शों को प्रतिष्ठित किया ।
ईश्वर होने के साथ-साथ वे सामान्य मानवीय सुख-दुःख से प्रभावित होनेवाले आम इंसान भी हैं। ‘रामचरित मानस’ भारतीय जनमानस में अत्यधिक लोकप्रिय है। तुलसीदास ने ‘नाना पुराण निगमागम’ के सार को ‘रघुनाथ गाथा’ में प्रस्तुत किया है। रामचरित मानस के अलावा कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली तथा विनय पत्रिका आदि इनके अन्य प्रमुख ग्रंथ है।
तुलसीदास ने ब्रज तथा अवधी दोनों भाषाओं में साधिकार सृजन किया है। लोक बोली के साथ-साथ संस्कृत तत्सम पदावली का विनियोग इनकी विशिष्टता है। भाषा में मुहावरे तथा लोकोक्तियों का प्रयोग करके उसे जीवंत बनाया गया है। तुलसीदास व्याकरण तथा काव्यशास्त्र दोनों के मर्मज्ञ है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित लगभग सभी छंदों का उपयोग किया है।
इनमें दोहा-चौपाई, सोरठा, रोला, कवित्त, धनाक्षरी इत्यादि प्रमुख हैं। वे प्रबंध तथा मुक्तक दोनों शैलियों पर अधिकार रखते थे। ‘मानस’ में प्रबंध शैली दोहा-चौहाई छंदों में मुखर उठी है। शब्द की तीनों शक्तियों के सुंदर उदाहरण तथा विविध अलंकारों के अद्भुत उदाहरण उनके यहाँ उपलब्ध हैं। एक तरफ वे शास्त्रवादी हैं तो दूसरी तरफ लोकवादी । जीवन के आदर्शों को अपनी रचनाओं के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति देनेवाला यह कवि हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
काव्य का सार
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद :
अह अंश ‘रामचरित मानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के लिए धनुष को भंग करने की शर्त के संदर्भ में ‘राम द्वारा धनुष के तोड़े जाने से क्रोधित परशुरामजी और राम-लक्ष्मण के बीच हुए संवाद का वर्णन है। शिवजी के धनुष के टूटने का समाचार पाकर परशुरामजी स्वयंवर स्थल पर पहुंचते हैं और धनुष-भंग करनेवाले को ललकारने लगते हैं।
परशुराम का क्रोध शांत करने के उद्देश्य से राम कहते हैं कि धनुष को तोड़नेवाला अवश्य कोई आपका सेवक ही होगा। यह सुनकर परशुराम सेवक-शत्रु को परिभाषित करते हुए राज समाज के सम्मुख चेतावनी देते हैं कि धनुष तोड़ने वाला अलग हो जाए अन्यथा उसके कारण समस्त राजागण भी मारे जाएगे। मुनि को धमकी की अवमानना करते हुए लक्ष्मण अपने व्यंग्य वचनों से उन्हें और उकसा देते हैं।
यहाँ परशुराम अपना परिचय बाल ब्रह्मचारी, क्षत्रियों का नाश करनेवाले के रूप में देते हैं। अपनी परंपरा का हवाला देते हुए लक्ष्मण स्वयं परशुराम को न मारने का कारण बतलाते हैं। परशुराम लक्ष्मण को भयभीत करने के लिए बार-बार अपने फरसे की ओर इशारा करते हैं। परशुराम मुनि विश्वामित्र से लक्ष्मण की शिकायत करते हैं, तब विश्वामित्र परशुराम को समझाते हैं कि ऋषि-मुनि बच्चों के दोषों पर ध्यान नहीं देते।
गुरुऋण चुकाने के संदर्भ में लक्ष्मण द्वारा कहे गए वचनों से क्रुद्ध हो परशुराम ने लक्ष्मण को मारने के लिए अपना फरसा उठा लिया, जिससे सभा में हाहाकार मच गया। यह देख श्रीराम मुनि परशुराम का क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए शीतल जल के समान मधुर वचन बोलते हैं।
संवाद के तीन पात्रों – परशुराम, लक्ष्मण तथा राम में मुख्य संवाद तो परशुराम-लक्ष्मण के बीच होता है जो कथा को गति देता है। संवाद के आरंभ में परशुराम के कथन का उत्तर राम अपनी धीर-गंभीर मुद्रा में देते हैं और अंत में भी क्रोध से जल रहे परशुराम को शांत करने के लिए शीतल वाणी बोलते हैं।
लक्ष्मण कभी मुनि को तर्कसंगत उत्तर देकर तुष्ट करने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं तो कभी अपने व्यंग्य वचनों से उन्हें और अधिक विचलित करते हुए। विश्वामित्र का संवाद में प्रवेश परशुराम द्वारा उनसे लक्ष्मण की शिकायत करने के साथ होकर वहीं पूर्ण ही हो गया है। कुल मिलाकर यह अंश संवाद शैली का एक उत्तम नमूना है।
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाई बोले मुनि कोही ॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरिकरनी करि करिअ लराई ॥
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहिं अवमाने ।
बहु धनुही तोरी लरिकाई । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई ।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न संभार ।
धनुहि सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ॥
भावार्थ:
धनुष-भंग के पश्चात् पधारे श्री पशुरामजी को क्रोधित देखकर श्रीराम उनसे विनयपूर्वक कहते हैं- “हे नाथ ! शिवजी के धनुष को तोड़नेवाला आपका ही कोई एक दास होगा। क्या आज्ञा है ? आप मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी परशुरामजी गुस्से में बोले – “सेवक वह है जो सेवा का काम करे । शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए।
हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह समाज को छोड़कर अलग हो जाए, अन्यथा सभी राजागण मारे जाएंगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-हे गोसाई ! लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहिया तोड़ डाली, किंतु आपने कभी भी ऐसा क्रोध नहीं किया।
इसी धनुष पर आपको इतनी ममता क्यों है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा के स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे- “अरे राजपुत्र ! काल (मृत्यु) के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार भर में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?”
लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥
का छति लाभु जून धनु तोरें । देखा राम नयन के भोरें ॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ॥
बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥
भावार्थ :
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- ‘हे देव ! सुनिए, मेरी समझ में तो सभी धनुष एक समान ही हैं। इस पुराने धनुष के तोड़ने में क्या लाभ या हानि । श्री रामचंद्रजी ने तो इसे नए के भ्रम से देखा था। फिर भी यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथ (श्रीराम)जी का कोई दोष नहीं है। हे मुनि। आप अकारण ही क्रोध किस लिए कर रहे है ?’ परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट । तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना है।
मैं तुझे बालक जानकर नहीं मार रहा हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे मात्र निरा मुनि ही जानता है। मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। मैं विश्व भर में क्षत्रिय वंश के शत्रु के रूप में विख्यात हूँ। अपनी भुजाओं की शक्ति से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार ब्राह्मणों को दे डाला, हे राजकुमार ! सहस्त्रबाहु की हजार भुजाओं को काटनेवाले मेरे इस फरसे को देख !
अरे राजा के किशोर ! तू अपने माता-पिता के सोच का कारण मत बन । मेरा फरसा बहुत भयानक है। यह गर्मों में स्थित शिशुओं का भी नाश करने वाला अत्यंत कठोर है।
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु । चहत उड़ावन फूकि पहारू ॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥
देखि कुठारू सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी ॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ॥
बधे पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धौर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर ॥
भावार्थ :
लक्ष्मणजी हँसकर मृदुवाणी बोले- अहो, मुनीश्वर आप तो अपने को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखा रहे हैं। आप फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहां कोई कुम्हड़े की बतिया (नया छोटा-कच्चा फल) नहीं हैं, जो तर्जनी उँगली के संकेत मात्र से मर जाती है। आपके कुठार और धनुष बाण को देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था।
भृगुवंशी समझकर और यत्रोपवीत (जनेऊ) देखकर ही तो आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं क्रोध रोककर सह ले रहा हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गाय – इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती, क्योंकि इनको मारने से पाप लगता है और इनसे पराजित हो जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए आप यदि मारें तो भी मुझे आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वजों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण किए हुए हैं।
इन्हें (धनुष-बाण और कुठार) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो हे धौर महामुनि ! उसे क्षमा कीजिए । यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी कोध के साथ गंभीर वाणी बोले –
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु । कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ॥
कालकवलु होइहि छन माहीं । कहाँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ॥
तुम्ह हटकहु जी चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥
लखन कहेठ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहिं अछत को बरनै पारा ॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भांति बहु बरनी ॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥
बीरबती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ॥
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥
भावार्थ:
(परशुरामजी विश्वामित्र से बोले) हे विश्वामित्र ! सुनो यह बालक बहुत दुर्बुद्धिवाला और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचंद्र का कलंक है। यह एकदम उदंड, मूर्ख और बेखौफ है। अभी क्षणभर में ही यह काल का ग्रास (कौर) हो जाएगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ, बाद में मेरा दोष नहीं । यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारे प्रताप, क्रोध और बल के बारे में बतलाकर इसे रोक लो।
लक्ष्मणजी ने कहा – हे मुनि ! आपके होते हुए (रहते) आपका सुयश दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने स्वयं स्वमुख से अपनी करनी का वर्णन अनेकों बार नाना रीतियों से किया है। इतने पर भी यदि संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। अपना क्रोध रोककर असहा दुःख मत सहन कीजिए। आप वीरता का व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते आप शोभा नहीं पाते।
शूरवीर तो युद्ध में अपना वीर-कर्म करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते । रणभूमि में शत्रु को उपस्थित देखकर कायर ही अपने प्रताप का प्रलाप किया करते हैं।
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब येहु मरनिहार भा सांचा ॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।
उतर देत छोड़ों बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ॥
न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ॥
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।
अभमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥
भावार्थ :
(लक्ष्मणजी आगे कहते हैं – आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुला रहे हैं। “लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही” परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को ठीक करते हुए हाथ में ले लिया।
(परशरामजी बोले- अब लोग मुझे दोष न दें। यह कटु वचन बोलनेवाला बालक मारे जाने के ही लायक है। इसे बालक मानकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह वास्तव में मरने को ही उतारु है।
विश्वामित्र ने कहा – (हे मुनि !) अपराध क्षमा कीजिए । बालक गुण और दोष को साधुजन ध्यान में नहीं रखते । (परशुरामजी बोले – तीखी धारवाला कुठार, मैं दयाहीन और क्रोधी और यह गुरुद्रोही तथा अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा है. इसलिए हे विश्वामित्र । मात्र तुम्हारे शील से । अन्यथा तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही श्रम से गुरु के ऋण से मुक्ति पा जाता।
विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा – मुनि को सर्वत्र हरा-ही-हरा लग रहा है (सर्वत्र विजयी होने के कारण श्रीराम – लक्ष्मण को ये सामान्य क्षत्रिय मान रहे हैं) किन्तु ये फौलाद से बनी खाड़ा-तलवारे हैं कोई ईख से बनी खाँड़ नहीं (जो मुंह में रखते गल जाएँ।) मुनि अब भी ना समझ बने हुए हैं; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ॥
माता पितहि उरिन भये नीकें । गुररिनु रहा सोचु बड़ जी के ॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ां । दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा ।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हायसब सभा पुकारा ॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही । बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ॥
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े । द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ॥
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे । रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ॥
लखन उतर आहुति सरिस भृगबरकोपु कृसानु ।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रखुकुलभानु ॥
भावार्थ:
लक्ष्मण ने कहा – हे मुनि ! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह तो संसार भर में प्रसिद्ध है। आप अपने माता-पिता से तो अच्छी तरह उत्रण हो ही गए, अब रहा गुरु का ऋण, जिसको लेकर आपके मन में बड़ी चिंता हैं। वह मानो हमारे ही मत्थै लिया था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत चढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवाले को बुला लाइए तो मैं तुरंत थैली खोलकर चुका हूँ।
लक्ष्मणजी के व्यंग्यपूर्ण कठोर वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। पूरी सभा हाय-तौबा करके पुकार उठी । (लक्ष्मणजी ने आगे कहाहे भृगुत्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं आपको ब्राह्मण मानकर बचा रहा हूँ। आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले । हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर सब लोग ‘अनुचित है, अनुचित है’ कहकर पुकार उठे । तब श्री रघुनाथ ने आँख इशारे लक्ष्मणजी को रोक दिया।
लक्ष्मणजी के उत्तर से आहुति समान बने परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुवंश के सूर्य श्री रामचंद्राणी जल के समान शीतल (आग को ठंडा करनेवाले) वचन बोले।
शब्दार्थ-टिप्पण :
- नाथ – स्वामी
- शंभुधन – शंभु (शिव) का धनुष
- भंजनिहारा – तोड़नेवाला
- आयेसु – आज्ञा, अनुमति
- मोही – मुझे
- कोही – क्रोधी
- अरिकरनी – दुश्मन का काम
- करि – करके
- जेहि – जिसने
- तोरा – तोड़ा
- सम – समान
- सो – वह
- रिपु – शत्रु
- मोरा – मेरा
- बिलगाउ – विलग (अलग) हो जाए
- बिहाइ – (छोड़कर)
- जैहहिं – जाएगे
- अवमाने – अपमान करते हुए
- लरिकाई – लड़कपन में
- असि – ऐसी
- रिस – गुस्सा
- गोसाई – गोस्वामी, स्वामी
- येहि – इस
- धन – धनुष
- ममता – मोह, स्नेह
- हेतू – कारण
- भुगकुलकेतू – भृगु वंश की पताका के समान (परशुराम)
- नूप – राजा
- कालबस – मृत्यु के बस होकर
- त्रिपुरारि – शिव
- विदित – ज्ञात
- सकल – संपूर्ण/पूरे
- हसि – हँसकर
- छति – क्षति (हानि)
- जून – जीर्ण, पुराना
- दोसू – दोष
- काज – कार्य, कारण
- करिअ – कर रहे हो
- कत – क्यों
- रोसू – रोष (गुस्सा)
- चितै – चितइ (देखकर)
- सठ – दुष्ट
- सुभाउ – स्वभाव
- बिस्वबिदित – विश्वविदित, विश्व में प्रसिद्ध
- द्रोही – शत्रुता करनेवाला
- महिदेवन्ह – भूदेवों, ब्राह्मणों
- महीपकुमारा – राजकुमार
- अर्भक – बच्चे
- बिहसि – हंसकर
- मृदु – कोमल
- बानी – वाणी
- भट – योद्धा
- पुनि-पुनि – बार-बार
- देखाव – दिखा रहे हो
- कुठारू – कुठार, कुल्हाड़ी, गड़ासा
- फूंक – फूंक से
- बतिया – लौकी कुम्हड़ा-तरोई आदि में लगनेवाला नन्हा फल (भावअर्थ – कमजोर, निर्बल)
- तरजनी – तर्जनी (अंगूठे के पास की पहली उंगली)
- सरासन – धनुष
- भृगसत – भृगुऋषि के पुत्र (परशुराम)
- बिलोकी – देखकर
- महिसर – भूदेव, ब्राहाण
- गाई – गाय
- अपकीरति – अपकीर्ति, अपयश, बदनामी
- पा – पैर
- कलिस – कुलिश, वज,
- भृगुवंशमनि – भृगुवंश के मणि अर्थात् परशुराम
- गिरा – वाणी
- कौशिक – विश्वामित्र
- मंद – मूर्ख
- कुटिल – कुटिल, टेढा
- घालक – नाश करनेवाला
- भानुवंश – सूर्यवंश
- राकेस – राकेश, चंद्र
- निपट – निरा
- निरंकश – स्वच्छंद, उदंड
- असंकू – निडर
- कबलु – कौर, ग्रास
- खोरि – दोष
- हटकहुं – रोकना, मना करना
- सुजसु – सुयश
- अछोभा – क्रोधरहित
- गारी – गाली
- सूर – शूर, वौर
- करहिं – करते हैं
- कथर्हि – कहते हैं
- काल – काल, मृत्यु
- हाक – पुकार, बुलाकर
- मोहिलागि – मेरे लिए
- सुधारि – ठीक करते हुए
- जनि – मत
- बधजोगू – बध के योग्य
- येहू – यह
- मरनिहार – मरनेवाला
- साचा – सच में
- कटु बादी – कटुवचन बोलनेवाला
- खर – तेज
- गुरुद्रोही – गुरु से द्रोह करनेवाला
- उतर – उत्तर
- उरिन – उत्राण, ऋण से मुक्त
- गाधिसत गाधिपुत्र – विश्वामित्र
- अयमय – लोहे से बना
- खांडा – खड्ग, तलवार
- ऊखमय – गन्ने से बनी
- खांड – ढीला गुड़ (गन्ने से बना)
- नीकै – अच्छी तरह
- जी – मन
- काढ़ा – निकालना
- आनिअ – ले आओ
- भृगुवर – भृगु वंश में श्रेष्ठ परशुराम
- नूपद्रोही – राजाओं के द्रोही
- घरहि – धर में हो
- सबनहि – आंख के इशारे से
- नेवारे – मना कर दिया
- कुसानु – आग
- रघुकुल भानु – रघुवंश के सूर्य श्रीराम