Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 14 चतस्त्रोः विद्याः Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 14 चतस्त्रोः विद्याः
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit चतस्त्रोः विद्याः Textbook Questions and Answers
चतस्त्रोः विद्याः Exercise
1. अधोलिखितप्रश्नानां संस्कृतभाषया उत्तराणि यच्छत :
પ્રશ્ન 1.
त्रय्यां के वेदा: समाविष्टा: सन्ति?
उत्तर :
त्रय्यां ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः च इति त्रयः वेदाः समाविष्टाः सन्ति।
अथवा
सामर्यजुर्वेदास्रयस्रय्याम्।
પ્રશ્ન 2.
का विद्या लोकस्य उपकरोति?
उत्तर :
वार्ता विद्या लोकस्य उपकरोति।
પ્રશ્ન 3.
कीदृश: लोकः प्रसीदति?
उत्तर :
त्रय्या रक्षितः लोकः प्रसीदति।
પ્રશ્ન 4.
दण्डः कीदृशः प्रोक्तः?
उत्तर :
आन्वीक्षिकीत्रयीवार्तानां योगक्षेमसाधनः दण्डः।
પ્રશ્ન 5.
वार्ता केभ्य: उपयुजीत?
उत्तर :
वार्ताम् अध्यक्षेभ्यः उपयुञ्जीत।
2. योग्यं विकल्पं चित्वा उत्तरं चिनुत :
પ્રશ્ન 1.
मानवाः इत्यस्य कोऽर्थः?
(क) मनुशिष्याः
(ख) जनाः
(ग) लोकाः
(घ) प्रजाः
उत्तर :
(क) मनुशिष्याः
પ્રશ્ન 2.
कौटिल्यो नाम कः?
(क) कुटिलः
(ख) चाणक्यः
(ग) कुशलः
(घ) कर्मकर:
उत्तर :
(ख) चाणक्यः
પ્રશ્ન 3.
उद्यतदण्डः कस्य विशेषणम् अस्ति?
(क) नृपस्य
(ख) लोकस्य
(ग) आचार्यस्य
(घ) शिष्यस्य
उत्तर :
(क) नृपस्य
પ્રશ્ન 4.
राजा किं वशीकरोति?
(क) स्वपक्षम्
(ख) परपक्षम्
(ग) स्वपक्षं परपक्षं च
(घ) लोकम्
उत्तर :
(ग) स्वपक्षं परपक्षं च
પ્રશ્ન 5.
आन्वीक्षिकी त्रयीं च केभ्यः उपयुञ्जीत?
(क) शिष्टेभ्यः
(ख) अध्यक्षेभ्यः
(ग) वक्तृभ्यः
(घ) प्रयोक्तृभ्यः
उत्तर :
(क) शिष्टेभ्यः
3. Fill in the blanks selected a proper word.
1. …………………………… प्रसीदति न सीदति। (लोकः, जनः, प् रजाः)
2. कृषिपाशुपाल्ये वाणिज्या च ……………………………। (आन्वीक्षिकी, वार्ता, नीति:)
3. तस्यामायत्ता ……………………………। (तीर्थयात्रा, धर्मयात्रा, लोकयात्रा)
उत्तर :
1. लोकः,
2. वार्ता,
3. लोकयात्रा,
4. Answer in mother tongue:
Question 1.
How many sciences are there according to the opinion of Barhaspatyas? Write their names.
उत्तर :
बार्हस्पत्यों के अनुसार विद्याएँ दो प्रकार की हैं। उनके नाम हैं वार्ता एवं दण्डनीति।
Question 2.
Who is known as Aushanas?
उत्तर :
औशनस के रूप में उशनस के शिष्यों या उनके मतावलम्बियों के विषय में अभिज्ञान होता है।
Question 3.
What is the meaning of Varta?
उत्तर :
वार्ता नामक विद्या में कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य विषयों का वर्णन है।।
Question 4.
Who are protected by penalty/punishment?
उत्तर :
दण्ड के द्वारा अप्राप्त वस्तु या लाभ को प्राप्त करके उसका रक्षण किया जाता है।
Question 5.
How should a king be?
उत्तर :
राजा को प्रजा का हितचिंतक होना चाहिए तथा प्रजा-हितार्थ यदि अपेक्षित हो तो दण्ड देने हेतु तत्पर होना चाहिए।
Question 6.
From whom should one learmAnvikshiki?
उत्तर :
आन्वीक्षिकी शिष्ट-प्रबुद्ध जनों के पास से सीखनी चाहिए।
5. Write an analytical note on:
1. आन्वीक्षिकी :
धर्म – अधर्म – न्याय – अन्याय – सबल – निर्बल आदि विषयों का सम्यक परीक्षण करके सत्य-सिद्ध करनेवाली विद्या को आन्वीक्षिकी कहा जाता है। यह आन्वीक्षिकी विद्या संसार का उपकार करती है। संकट एवं उन्नति में बुद्धि को प्रस्थापित करती है।
विचार, वचन और कर्म में स्थित निपुणता प्रदान करती है। साङ्ख्य, योग एवं न्यायशास्त्र आदि विषयों का विस्तृत वर्णन आन्वीक्षिकी में किया गया है।
2. स्वपक्षपरपक्षौ :
स्वपक्ष अर्थात् आत्मीय जन या स्व प्रजा तथा परपक्ष अर्थात् शत्रु या विरोधी पक्ष। राजा वार्ता नामक विद्या के उपयोग से धन प्राप्त करता है तथा उस धन के द्वारा आत्मीय जन या स्व प्रजा या स्वपक्ष को वश में करता है।
दंडनीति नामक विद्या के उपयोग से शत्रुओं के समुदाय को अर्थात् परपक्ष को नियन्त्रित करता है। इस प्रकार यहाँ राजा के लिए वार्ता एवं दंडनीति दोनों ही महत्त्वपूर्ण है, यह समझाया गया है।
3. चतस्रः विद्या :
चतस्रः विद्याः का अर्थ है चार विद्याएँ। कौटिल्य के अनुसार विद्याएँ चार प्रकार की होती है। बार्हस्पत्यों – मानवों एवं औशनसों के द्वारा वर्णित कुल तीन प्रकार की विद्याएँ है, किन्तु कौटिल्य ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा वर्णित त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति इन तीन विद्याओं के साथ कौटिल्य ने आन्वीक्षिकी नामक चतुर्थ विद्या को भी स्वीकार किया है।
अत: कौटिल्य के अनुसार त्रयी, वार्ता, दण्डनीति एवं आन्वीक्षिकी चार विद्याएँ हैं। राजा के लिए अत्यधिक मात्रा में निरन्तर सफलता के लिए कौटिल्य द्वारा वर्णित चार प्रकार की विद्याओं का आश्रय अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए।
6. Explain with reference to context :
प्रश्न 1.
चतस्रः एव विद्या इति कौटिल्यः।
उत्तर :
सन्दर्भ : यह वाक्य ‘चतस्रो विद्याः’ नामक पाठ का अंश है। पाठ्यपुस्तक में वर्णित यह पाठ कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में कौटिल्य ने राजा की सर्वविध सफलता के लिए अपेक्षित विद्याओं के विषय में अपने पूर्ववर्ती तीन आचार्यों के मतों के उल्लेख करने के पश्चात् स्वमत प्रस्तुत किया है।
कौटिल्य के मतानुसार विद्याएँ चार प्रकार की है। त्रयी, वार्ता, दण्डनीति एवं आन्वीक्षिकी। त्रयी विद्या के अन्तर्गत, ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद का वर्णन है। त्रयी नामक विद्या के द्वारा रक्षित प्रजा प्रसन्न रहती है। वार्ता नामक विद्या में अर्थ एवं अनर्थ अर्थात् कृषि आदि के द्वारा प्राप्त योग्य और अयोग्य फल-धन का वर्णन किया गया है। कृषि, पशुपालन एवं व्यापार – वाणिज्य आदि से युक्त विद्या कृषि विशेषज्ञों एवं वाणिज्य-विशेषज्ञों से प्राप्त करनी चाहिए।
साङ्ख्य, योग एवं न्यायशास्त्र का वर्णन आन्वीक्षिकी में किया गया है तथा चतुर्थ दण्डनीति में नय एवं अपनय दोनों का वर्णन किया गया है। दण्डनीति-विद्या के प्रवचन में एवं विद्या के प्रयोग में कुशलजनों से दण्डनीति – विषयक ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। इस प्रकार एक कुशल राजा को सर्वविध एवं निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर रहने के लिए कौटिल्य के द्वारा वर्णित चारों विद्याओं का आश्रय करना चाहिए।
प्रश्न 2.
त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।
उत्तर :
सन्दर्भ : यह वाक्य ‘चतस्रो विद्याः’ नामक पाठ का अंश है। पाठ्यपुस्तक में वर्णित यह पाठ कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में कौटिल्य ने राजा की सर्वविध सफलता के लिए अपेक्षित विद्याओं के विषय में अपने पूर्ववर्ती तीन आचार्यों के मतों के उल्लेख करने के पश्चात् स्वमत प्रस्तुत किया है।
कौटिल्य के मतानुसार वर्णित चार विद्याओं में से एक विद्या है त्रयी। त्रयी विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद तीनों का समावेश किया गया है। तीनों वेदों में निर्दिष्ट कर्तव्याकर्तव्य एवं विधि-निषेधानुसार वर्तन-व्यवहार-युक्त समाज या प्रजा प्रसन्न रहती है।
कभी उस समाज का विनाश नहीं होता है या कभी उस समाज पर कोई संकट नहीं आता है। यहाँ समाज या प्रजा के रक्षणार्थ वेदों की अनिवार्यता दर्शाई गई है तथा वेदत्रयी का महत्त्व प्रतिपादित किया है। तीनों वेदों जहाँ विधि-निषेधानुसार वर्तन किया जाता है।
अर्थात् वेदत्रयी का शिक्षण शिष्ट अर्थात् वेदों के ज्ञाता, प्रबुद्ध विद्वानों से प्राप्त करना चाहिए।
પ્રશ્ન 3.
राजा नित्यमुद्यतदण्ड: स्यात्।
उत्तर :
सन्दर्भ : यह वाक्य ‘चतस्रो विद्याः’ नामक पाठ का अंश है। पाठ्यपुस्तक में वर्णित यह पाठ कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में कौटिल्य ने राजा की सर्वविध सफलता के लिए अपेक्षित विद्याओं के विषय में अपने पूर्ववर्ती तीन आचार्यों के मतों के उल्लेख करने के पश्चात् स्वमत प्रस्तुत किया है।
कौटिल्य के द्वारा स्वीकृत चार प्रकार की विद्याओं में से एक दण्डनीति नामक विद्या भी है। दण्डनीति में नय एवं अपनय अर्थात् न्याय एवं अन्याय का वर्णन प्राप्त होता है। आन्वीक्षिकी, त्रयी एवं वार्ता नामक विद्याओं के योग-क्षेम का साधन दण्डनीति है।
सम्पत्ति प्राप्ति को योग एवं उसकी रक्षा को क्षेम कहा जाता है। प्रजाजनों के हिताहित ध्यान में रखते हुए वार्तानामक विद्या से प्राप्त धन से राजा स्व पक्ष एवं पर-पक्ष अर्थात् विरोधी या शत्रु-पक्ष को नियन्त्रित करता है।
इस प्रकार यहाँ राजा के लिए दण्डनीति का प्रयोग सम्यक् प्रकार से करके प्रजा का कल्याण करना चाहिए। इस प्रकार राजा को यथोचित दण्ड देने के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए तथा जनकल्याण के कार्य में तल्लीन रहना चाहिए।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB नाट्यमेतन्मया कृतम् Additional Questions and Answers
चतस्त्रोः विद्याः स्वाध्याय
1. अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत।
પ્રશ્ન 1.
चतस्रः विद्या: का:?
उत्तर :
आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता दण्डनीति: चे ति चतस्रः विद्याः।
પ્રશ્ન 2.
राजा स्वपक्षं परपक्षं च कथं वशीकरोति?
उत्तर :
राजा वार्त्तया प्राप्तेन कोशेन, प्रजायां प्रस्थापितेन दण्डेन च स्वपक्षं परपक्षं च वशीकरोति।
પ્રશ્ન 3.
दण्डनीति केभ्य: उपयुजीत?
उत्तर :
दण्डनीतिं वक्तृप्रयोक्तृभ्यः च उपयुञ्जीत।
પ્રશ્ન 4.
दण्डनीत्याम् किम् अस्ति?
उत्तर :
दण्यनीत्याम् नयापनयौ स्तः।
પ્રશ્ન 5.
आन्वीक्षिकी त्रयीं च विद्यां केभ्यः उपयुजीत?
उत्तर :
आन्वीक्षिकी त्रयीं च विद्या शिष्टेभ्यः उपयुजीत।
પ્રશ્ન 6.
धर्माधर्मी कुत्र स्त:?
उत्तर :
धर्माधर्मों त्रय्यां स्तः।
2. योग्यं विकल्पं चित्वा उत्तरं लिखत।
પ્રશ્ન 1.
बार्हस्पत्याः इत्यस्य कोऽर्थः?
(क) बृहस्पतिशिष्याः
(ख) मनुशिष्याः
(ग) प्रजाः
(घ) लोकाः
उत्तर :
(क) बृहस्पतिशिष्याः
પ્રશ્ન 2.
साङ्ख्यं योगो लोकायतं चेति किम्?
(क) त्रयी
(ख) आन्वीक्षिकी
(घ) दण्डनीतिः
(ग) वार्ता
उत्तर :
(ख) आन्वीक्षिकी
પ્રશ્ન 3.
अर्थानौँ कुत्र?
(क) त्रय्याम्
(ख) दण्डनीत्याम्
(ग) वार्तायाम्
(घ) आन्वीक्षिक्याम्
उत्तर :
(ग) वार्तायाम्
પ્રશ્ન 4.
वार्ता केभ्यः उपयुञ्जीत?
(क) शिष्टेभ्यः
(ख) वक्तृप्रयोक्तृभ्यः
(ग) अशिष्टेभ्यः
(घ) अध्यक्षेभ्यः
उत्तर :
(घ) अध्यक्षेभ्यः
પ્રશ્ન 5.
विद्याः चतस्रः इति कस्य मतानुसारम् ?
(क) मानवानुसारम्
(ख) बार्हस्पत्यानुसारम्
(ग) औशनसानुसारम्
(घ) कौटिल्यानुसारम्
उत्तर :
(घ) कौटिल्यानुसारम्
પ્રશ્ન 6.
कृषिपाशुपाल्ये वाणिज्या च का विद्या?
(क) त्रयी
(ख) वार्ता
(ग) दण्डनीतिः
(घ) आन्वीक्षिकी
उत्तर :
(ख) वार्ता
પ્રશ્ન 7.
आन्वीक्षिकीत्रयीवार्तानां योगसाधनः किम्?
(क) त्रयी
(ख) वार्ता
(ग) दण्डः
(घ) योग:
उत्तर :
(ग) दण्डः
3. योग्य-पद का चयन कर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
1. त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति …………………………………….। (मानवाः, बार्हस्पत्याः, औशनसा:)
2. दण्डनीतिरेका विद्या इति …………………………………….। (औशनसाः, बार्हस्पत्याः, कौटिल्यः)
3. सा ……………………………………. लोकस्योपकरोति। (त्रयी, वार्ता, आन्वीक्षिकी)।
4. साङ्ख्ये ……………………………………. लोकायतं चेत्यान्वीक्षिकी। (योगः, दण्डः, लोकः)
5. सामर्यजुर्वेदास्त्रय …………………………………….। (त्रयी, वार्ता, दण्डनीति)
6. …………………………………….अध्यक्षेभ्यः उपयुञ्जीत। (वार्ताम्, त्रयीम्, दण्डनीतिम्)
उत्तर :
1. मानवाः,
2. औशनसाः,
3. आन्वीक्षिकी,
4. योगः,
5. त्रयी,
6. वार्ताम्।
4. मातृभाषा में उत्तर दीजिए।
પ્રશ્ન 1.
वार्ता किससे सीखनी चाहिए?
उत्तर :
वार्ता कृषि, वाणिज्य आदि विषयों के विशेषज्ञों (अध्यक्षों) से सीखनी चाहिए।
પ્રશ્ન 2.
प्रवचन एवं प्रयोग में कुशल जनों से क्या सीखना चाहिए?
उत्तर :
प्रवचन एवं प्रयोग में कुशल जनों से दण्डनीति सीखनी चाहिए।
પ્રશ્ન 3.
राजा किस प्रकार स्वपक्ष और परपक्ष को नियन्त्रित करता है?
उत्तर :
राजा वार्ता से प्राप्त कोश से एवं प्रजा में प्रस्थापित दण्ड से स्वपक्ष और परपक्ष को नियन्त्रित करता है।
પ્રશ્ન 4.
धर्म और अधर्म किस विद्या में विद्यमान है?
उत्तर :
धर्म और अधर्म त्रयी में विद्यमान है।
પ્રશ્ન 5.
मानवों के अनुसार विद्याएँ कितनी होती हैं?उनके नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मानवों के अनुसार त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति नामक तीन विद्याएँ हैं।
5. विवरणात्मक टिप्पणी लिखिए।
1. अर्थानौँ वार्तायाम् :
अर्थानौँ अर्थात् अर्थ एवं अनर्थ। यहाँ अर्थानौँ शब्द से आशय है कृषि आदि के द्वारा प्राप्त योग्य एवं अयोग्य फल – धन। इस प्रकार अर्थ एवं अनर्थ का वर्णन वार्ता नामक विद्या में किया गया है। कृषि वाणिज्य आदि में कब क्या करें, तो उस निर्णय का शुभाशुभ फल प्राप्त होता है, यह ज्ञात किया जा सकता है।
2. नयापनयौ दंडनीत्याम् :
नय एवं अपनय अर्थात् न्याय एवं अन्याय। न्याय एवं अन्याय विषय का वर्णन दंडनीति में किया गया है। कौटिल्य के द्वारा स्वीकृत दंडनीति नामक विद्या से आशय है, योग-क्षेमार्थ हिताहित – दर्शक विद्या जिसमें दंड का निर्धारण किया गया हो।
सम्पत्ति की प्राप्ति को योग एवं प्राप्त सम्पत्ति की रक्षा को क्षेम कहा जाता है। आशय यह है जो हितकारक है उसे नय एवं जो अहितकारी है उसे अपनय कहा जाता है। इस प्रकार दंडनीति में नय एवं अपनय दोनों का वर्णन किया गया है।
चतस्त्रोः विद्याः Summary in Hindi
चतस्त्रोः विद्याः सन्दर्भ
संस्कृत भाषा के प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि धर्म-नीति के सम्बद्ध ग्रन्थों-शास्त्रों को धर्म-शास्त्र के रूप में एवं राजनीति से सम्बद्ध विषयों का वर्णन करनेवाले ग्रन्थों को अर्थशास्त्र के रूप में विभक्त किया गया है।
इस प्रकार अर्थशास्त्रीयग्रन्थों में चाणक्य द्वारा विरचित कौटिल्य अर्थशास्त्र सर्वाधिक प्रसिद्ध है। ई.स. से लगभग 300 वर्ष पूर्व रचित इस राजनीति-शास्त्र के ग्रन्थ को इसकी अनेक विशेषताओं के कारण अर्थशास्त्र का पर्याय ही माना जाता है।
वर्तमान में अर्थशास्त्र शब्द के उच्चारण मात्र से कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही मानस-पटल पर छा जाता है। प्रस्तुत पाठ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण में से उद्धृत किया है। गया है।
इस ग्रन्थ की शैली विशिष्ट है। इस ग्रन्थ में कुछ विषयों का वर्णन करते समय सर्वप्रथम पूर्व-आचार्यों के तत्तद्द विषयों के मतों का उल्लेख किया गया है तथा अन्त में आचार्य कौटिल्य उन विषयों पर स्वमत प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुत गद्यांश में विद्याओं का चिन्तन किया गया है।
इस प्रसंग में प्रथम मानव, बार्हस्वत्य एवं औशनस् इन तीन मतों का उल्लेख करने के पश्चात् कौटिल्य ने अपना मत प्रस्तुत किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में कौटिल्य के पूर्ववर्ती राजनीति शास्त्र के निष्णातों के मत भी सुरक्षित रह सके हैं।
राजा स्वयं की नैसर्गिक प्रतिभा से राजकार्य में सफल होता है। किन्तु यदि राजा अत्यधिक सफलता सदा प्राप्त करना चाहता है तब उसे विद्या का आश्रय करना चाहिए। ये विद्याएँ कौन-कौन सी हैं तथा उनका उपयोग कब, क्यों और किसलिए किया जाए, इस विषय का सूक्ष्मचिंतन सूत्रात्मक रूप से यहाँ किया जा रहा है।
चतस्त्रोः विद्याः शब्दार्थ
त्रयी = तीन वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद – त्रयाणां समूहः त्रयीः। वार्ता = कृषि, पशुपालन तथा व्यापार-वाणिज्य आदि का ज्ञान देनेवाली विद्या। दण्डनीतिः = अपराधी को दण्ड- सजा देने की नीति अथवा अपराधी को दण्ड या सजा देने की नीति – दण्डस्य नीति: – षष्ठी तत्पुरुष समास, दण्डः – प्रधान: यस्माम् सा नीतिः – मध्यम पदलोपी – बहुव्रीहि समास। मानवा: = मनु के शिष्य अथवा मनु के मत को स्वीकार करनेवाले सर्वजन – मनोः इमे शिष्याः इति मानवाः। बार्हस्पत्या: = बृहस्पति का शिष्य, बृहस्पति के मत को स्वीकार करनेवाला प्रत्येक जन। बृहस्पतेः इमे शिष्याः।
औशनसा: = उशनस के शिष्य, उशनस के मत को स्वीकार करनेवाला प्रत्येक जन – उशनसः इमे शिष्याः। चतस्रः = चार – चतुर – स्त्रीलिङ्ग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। ताः – तत् सर्वनाम् स्त्रीलिङ्ग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। आन्वीक्षिकी = योग्य परीक्षण के द्वारा सत्यदर्शन करानेवाली विद्या तर्क या हेतु – विद्या। साङ्ख्यम् = प्रकृतिपुरुष के विवेचन से युक्त कपिल-मुनि द्वारा विरचित एक दर्शन-शास्त्र। योगः – अष्ट-अंगों से युक्त महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित एक दर्शनशास्त्र। लोकायतम् = न्यायशास्त्र। धर्माधर्मो = धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य। धर्मः च अधर्म: च – इतरतेतर द्वन्द्व समास।
त्रय्याम् = तीनों वेदों में – त्रयी, स्त्रीलिङ्ग, सप्तमी विभक्ति, एकवचन। अर्थान्नौँ = अर्थ और अनर्थ, कृषि आदि से प्राप्त होनेवाला योग्य – अयोग्य फल – धन। वार्तायाम् – वार्ता नामक विद्या में। नयापनयौ = न्याय और अन्याय – नय: च अपनयः च – इतरेतर द्वन्द्व समास। दण्डनीत्याम् = दंडनीति में दंडनीति के अन्दर – दण्डनीति – सप्तमी विभक्ति एकवचन। बलाबले = सबल और निर्बल। एतासाम् – इनका – एतत् सर्वनाम शब्द, स्त्रीलिङ्ग, षष्ठी विभक्ति, एकवचन। हेतुभिः = न्याय से, तर्क से। अन्वीक्षमाणा = परीक्षण किए जाते हुए। लोकस्य = प्रजा का, समाज का।
उपकरोति = उपकार करता है – उप + कृ – उपकार करता है – वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। व्यसने = आपत्ति में, संकट में। अभ्युदये = विकास में, प्रगति में, उन्नति में। बुद्धिम् = निर्णय को, विचार को अवस्थापयति = सहज रूप में स्थापित करता है – अव + स्था धातु, वर्तमान-काल, अन्य पुरुष, एकवचन। प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यम् = विचार, वचन एवं कर्म में निपुणता-कुशलता को – प्रज्ञा च वाक्यम् च क्रिया च – इतरेतर द्वन्द्व समास – तासु वैशारद्यम् – सप्तमी तत्पुरुष समास। करोति = करता है, सम्पन्न बनाता है। कृ धातु = वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन।
सामर्यजुर्वेदा: = सामवेद, ऋग्वेद एवं यजुर्वेद – साम च ऋक् च यजुर्वेदः च – इतरेतर द्वन्द्व समास। त्रयः = तीन – त्रि पुल्लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। त्रय्या = तीन वेदों से त्रयी – स्त्रीलिङ्ग, तृतीया विभक्ति, एकवचन। लोकः = प्रजा, समाज। प्रसीदति = प्रसन्न होता है – प्र + सीद् धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। सीदति = दुःखी होता है, नष्ट होता है – सीद् धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। कृषिपाशुपाल्ये = कृषि एवं पशुपालन – कृषिः च पाशु-पाल्यं च इतरेतर द्वन्द्व समास। वाणिज्या = व्यापार, वणज।
धान्यपशुहिरण्यकुप्यविष्टिप्रदानात् = अनाज, पशु, सोना, ताँबा एवं विष्टि उद्योग देनेवाली होने के कारण – धान्यं च पशुः च हिरण्यं च कुप्यं च विष्टिः च – इतरेतर द्वन्द्व समास, – धान्यपशुहिरण्यकुप्यविष्टीनां प्रदानम्, तस्मात् – षष्ठी तत्पुरुष समास। औपकारिकी = उपकार करनेवाली। योगक्षेमसाधनः = योग एवं क्षेम के साधनवाला – योग: च क्षेमः च इतरेतर द्वन्द्व समास। योगक्षेमौ साधनं यस्य सः – बहुव्रीहि समास। अलब्धलाभार्था = अप्राप्त लाभ या वस्तु को प्राप्त करने के लिए – न लब्धम् इति – नञ् तत्पुरुष समास, अलब्धस्य लाभः इति अलब्ध – लाभ: – षष्ठी तत्पुरुष समास, अलब्धताभः अर्थः यस्याः सा – बहुव्रीहि समास। लब्धपरिरक्षणी = प्राप्त लाभ या वस्तु का रक्षण करनेवाली – लब्धस्य परिरक्षणी – षष्ठी तत्पुरुष समास।
रक्षितविवर्धनी = रक्षित लाभ या वस्तु का वर्धन करनेवाली – रक्षितस्य विवर्धनी – षष्ठी तत्पुरुष समास। वृद्धस्य = अभिवर्धित का। तीर्थेषु = तीर्थों – पवित्र स्थलों में। प्रतिपादनी = योग्य रूप से प्रस्थापित करनेवाली। तस्याम् = उसमें, तत् – स्त्रीलिङ्ग – सप्तमी विभक्ति, एकवचन। आयत्ता = अधीन है। लोकयात्रा = लोक-व्यवहार। लोकयात्रार्थी = प्रजा के हित को चाहनेवाला, प्रजाहित का विचार करनेवाला – राजा का विशेषण। उद्यतदण्डः = दंड देने में तत्पर रहनेवाला। स्यात् = होना चाहिए – अस् धातु विधिलिङ्ग, अन्य पुरुष, एकवचन। वार्त्तया = वार्ता के द्वारा – वार्ता – तृतीया विभक्ति, एकवचन।
कोशेन = धनराशि के द्वारा। प्रस्थापितेन = नियत रूप से स्थापित (धन) से, नियत किए गए धन से। स्वपक्षम् = स्वयं के समुदाय को, स्वयं के पक्ष में रहे स्वजन को। परपक्षम् = दूसरे के समुदाय को, अन्य के पक्ष में स्थित शत्रु को। वशीकरोति = वश में करता है, नियन्त्रण करता है। शिष्टेभ्यः = शिष्ट – प्रबुद्ध लोगों से, जिन लोगों ने विविध विद्याएँ योग्य रूप से प्राप्त की है उन लोगों के पास से। उपयुजीत = प्राप्त करनी चाहिए – उप + युज् धातु, विधि लिङ्ग, अन्य पुरुष, एकवचन। अध्यक्षेभ्यः = (कृषि आदि वाणिज्य विद्याओं में) अग्रेसर लोगों से।
वक्तृप्रयोक्तृभ्यः = प्रवचन एवं प्रयोग में कुशल लोगों से – उपदेशक एवं उपदेशों को व्यवहार में प्रयोग करनेवाले लोगों से – वक्ता च प्रयोक्ता च, तेभ्य, इतरेतर द्वन्द्व समास।
चतस्त्रोः विद्याः अनुवाद :
वेदत्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) वार्ता और दण्डनीति (ये तीन प्रकार की विद्याएँ होती हैं।), मानवों (मनु के मतावलम्बी-जनों) के अनुसार होती है। वार्ता (कृषि, पशुपालन तथा व्यापार-वाणिज्य आदि का ज्ञान देनेवाली विद्या) और दण्डनीति ये (दो विद्याएँ हैं -) बार्हस्पत्यों – (बृहस्पति के) मतानुसार है।
उशनस के मतानुसार दण्डनीति एक विद्या है। कौटिल्य के अनुसार चारों ही विद्याएँ हैं। ओर वे आन्वीक्षिकी, वेदत्रयी, वार्ता और दण्डनीति हैं। साङ्ख्य, योग और लोकायत आन्वीक्षिकी हैं। धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य वेद त्रयी में है।
अर्थ और अनर्थ (कृषि आदि के द्वारा प्राप्त होनेवाला योग्य और अयोग्य फल-धन) वार्ता नामक विद्या में हैं। न्याय और अन्याय दण्डनीति नामक विद्या में है।
सबल और निर्बल में इन्हें हेतु (न्याय, तर्क) से परीक्षण करनेवाली विद्या आन्वीक्षिकी (योग्य परीक्षण के उपरांत योग्य सत्य-दर्शन करानेवाली विद्या – तर्क या हेतु विद्या) है। वह आन्वीक्षिकी विद्या प्रजा का उपकार करती है, संकट में, उन्नति में बुद्धि को सहजतया स्थापित करती है। वह विचार, वचन और कर्म में निपुणता प्रदान करती है।
सामवेद, ऋग्वेद और यजुर्वेद (ये) तीन वेद ही त्रयी (वेदत्रयी) हैं। इन तीनों वेदों से रक्षित प्रजा प्रसन्न होती है, दुःखी नहीं होती कृषि और पशुपालन में व्यापार ही – वार्ता नामक विद्या है। अन्न, पशु, स्वर्ण, ताँबा आदि विष्टि-उद्योग प्रदान कराने के कारण उपकार करनेवाली है।
आन्वीक्षिकी, त्रयी और वार्ता का योग-क्षेम-साधन ही दण्ड है। उसकी नीति दण्डनीति है। और वह अप्राप्त लाभ या वस्तु को प्राप्त करानेवाली, प्राप्त लाभ या वस्तु का रक्षण करनेवाली, रक्षित लाभ या वस्तु का अभिवर्धन करनेवाली, वृद्धि अभिवर्धित को तीर्थों में योग्यरूप से प्रस्थापित करनेवाली है। उसमें लोक – (वर्धितका) व्यवहार अधीन है। अतः प्रजाहित करनेवाला राजा दण्ड देने में तत्पर हो।
राजा वार्ता (नामक विद्या) से प्राप्त धनराशि से और प्रजा में प्रस्थापित दण्ड से स्वपक्ष और परपक्ष को वश में करता है।
आन्वीक्षिकी, त्रयी विद्या को प्रबुद्ध-जनों से प्राप्त करनी चाहिए। कृषि एवं वाणिज्य विशेषज्ञों से वार्ता (नामक विद्या) का अर्जन किया जाना चाहिए। प्रवचन और प्रयोग में कुशल जनों से दण्डनीति को अर्जन करना चाहिए।